क्या 'सुप्रीम' राहत सिर्फ नेताओं और धनाढ्यों के लिए है?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत में समानांतर दो न्याय व्यवस्था नहीं हो सकती. एक उनके लिए जो साधन संपन्न, राजनीतिक शक्ति रखने वाले और प्रभावी लोग हैं और दूसरे वे छोटे साधनहीन लोग जिनके पास अन्याय से लड़ने और न्याय पाने की क्षमता नहीं है.
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यही कड़वी सच्चाई है. कभी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत में अमीर, संसाधनों से युक्त और राजनीतिक रूप से ताकतवर लोगों और न्याय तक पहुंच एवं संसाधनों से वंचित छोटे लोगों के लिए दो समानांतर कानूनी प्रणालियां नहीं हो सकती और ऐसा वर्तमान चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही कहा था. निःसंदेह आम लोगों में एक आम सोच घर कर गई है कि न्याय बपौती बन गई है नेताओं की, धनाढ्यों की, पावर की. हवाला दें माननीय न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी का तो न्यायविद और यहां तक कि न्यायालय स्वयं भी घर कर गई इस आम सोच को इस बिना पर नकार देंगे कि तब संदर्भ दूसरा था, लेकिन वास्तविकता यही है उच्चतम न्यायालय से राहत और कभी कभी छुटकारा पाने वाले बखेड़े भी वही हैं जिन्हें पावरफुल लोगों ने खड़ा किया है.
कल्पना कीजिए यदि किसी टुटपुंजिये नेता ने या किसी आम आदमी ने कहीं किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर (चूंकि उस बेचारे की औकात कहां है कि प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसे तवज्जो मिले) यही "बखेड़ा" खड़ा कर दिया होता और उसे गिरफ्तार कर पुलिस अदालत ले जा रही होती तो क्या कोई लाखों की फीस के लायक अभिषेक मनु सिंघवी सरीखा नामीगिरामी वकील आनन फानन में शीर्ष न्यायालय का ध्यान बंटवा पाता. पवन खेड़ा की तो बड़ी 'क्वालिफिकेशन' जो थी जजों का ध्यान आकर्षित करने के लिए, बेचारे टुटपुंजिये या आम आदमी को कैसे डिस्क्राइब करते सिंघवी जी, यदि मान लें कि येनकेनप्रकारेण उनकी फीस का जुगाड़ कर ही लेता बेचारा, और करते भी तो न्यायमूर्ति कह देते कि प्रोसेस ऑफ़ लॉ फॉलो कीजिए.
पवन खेड़ा का बयान जानबूझकर था और उन्होंने सोचसमझकर ही कहा था. उनके इरादे गलत थे और जो भी उन्होंने कहा, भावनाओं को भड़काते हुए सार्वजानिक असंतोष की स्थिति निर्मित करने के लिए उसकी अनर्गल व्याख्या किसी भी हद तक की जा सकती थी. एक बात और समझ नहीं आती शीर्ष न्यायालय इन नेताओं की दिखावे की माफ़ी की बिना पर अंतरिम राहत क्यों दे देती है? इधर सिंघवी सर्वोच्च न्यायालय में आदर्श बघार रहे थे कि खेड़ा ने जो कहा, गलत कहा, वे स्वयं कभी कांग्रेस के स्पोकेसपर्सन की हैसियत से ऐसा नहीं कहते और चूंकि खेड़ा अनकंडीशनल माफ़ी मांगेंगे.
उन्हें अभी गिरफ्तारी से राहत तब तक के लिए दे दी जाए जब वे सभी भिन्न भिन्न जगहों पर दर्ज प्राथमिकियों के एकीकृत होने पर नियमित जमानत निचली अदालत से ले लेंगे; उधर कांग्रेस के अनेकों दिग्गज नेता एयरपोर्ट के टरमैक पर ही धरना देते हुए नारे बुलंद कर रहे थे, 'मोदी तेरी कब्र खुदेगी' और तमाम नेता खेड़ा के कहे को जस्टिफाई कर रहे थे. कोई कह रहा था उन्होंने तो मजाक किया था; एक अन्य ने कहा कि स्लिप ऑफ़ टंग थी आदि आदि. क्या शीर्ष न्यायालय को स्वतः संज्ञान नहीं लेना चाहिए था इस बिना पर कि आप हमारे सामने बिना शर्त माफ़ी मांगने का ढोंग करते हैं? खैर, हम कहां भटक रहे हैं?
हम अदालत द्वारा न्याय को लेकर भेदभाव किये जाने वाली मूल बात पर ही रहें. फर्ज कीजिए बखेड़ा खड़ा किया एक "धनीराम" नाम के आदमी ने जिसका सिर्फ नाम ही है धनीराम, ना तो धन है उसके पास और ना ही राम कृपा है उसपर. उसे असम पुलिस हांकते हुए ले जाती, मिनटों में ट्रांजिट रिमांड भी मिल जाता और असम की निचली अदालत उसके जेल का टिकट भी काट देती. फलतः धनीराम तब तक जेल में ही रहेगा जब तक स्वार्थपरक राजनीति इंटरेस्टेड होकर किसी एक्टिविस्ट ज्यादा वकील कम को उसके छुड़ाने के काम पर नहीं लगा देती.
निष्कर्ष यही है अनर्गल बयानबाजी करने वाले बोल वचन नेताओं को "सुप्रीम" कवच मिल ही जाता है. सुप्रीम अदालत से अपेक्षित है कि वह इस प्रकार के मामलों को, आरोपी पक्ष का हो या विपक्ष का, सुने ही नहीं ताकि कम से कम इन आदतन बोलबचनों को 'प्रोसेस ऑफ़ लॉ' से तो गुजरना पड़े. एक झूठ के लिए तो धर्मराज युधिष्ठिर को भी नर्क से होकर गुजरना पड़ा था. शायद प्रोसेस ऑफ़ लॉ से गुजरने की ज़लालत से ही वे सबक लें और भविष्य में तौबा कर लें. वरना तो "चौकीदार चोर है" के लिए 'सुप्रीम' माफ़ी भी ले ली और अब भी खुद नहीं तो खासमखासों से चौकीदार को गाहे बजाहे चोर बता ही देते हैं.
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