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Updated: 28 नवम्बर, 2022 03:56 PM
विजय मनोहर तिवारी
विजय मनोहर तिवारी
  @vijay.m.tiwari
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मेरठ के पास लोइया गांव में जून 2019 में एक दिन हाथ और सर कटी एक युवती की लाश एक खेत में दफनाई हुई मिली. आमतौर पर गालियां खाने वाली पुलिस ने एक साल में वह गुत्थी जिस ढंग से सुलझाई वह उसकी कामयाबी का एक अलग ही अध्याय है, जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई. पुलिस आखिरकार पंजाब के लुधियाना जा पहुंची थी.

जून 2020 में देश को पता चला कि वह लुधियाना से गायब बीकॉम की एक होनहार हिंदू छात्रा की लाश थी, जिसे शाकिब नाम का मजदूर अमन बनकर भगा ले गया था. वह 25 लाख रुपए के जेवर लेकर घर से भागी थी. अमन हिंदू बनकर उसके जीवन में आया था. जब वह ईद के दिनों में पहली बार लोइया लेकर गया, तब उसे पहली बार पता चला कि वह शाकिब है. दोनों में विवाद हुआ. अब शाकिब के बदनीयत घरवाले सीन में आए. सब तरह के झंझट से बचने के लिए और जेवर पर कब्जा करने के लिए सबने मिलकर उसे काट डाला. हाथ पर दोनों के नाम लिखे हुए थे सो हाथ काटा और सर तन से जुदा करना तो एक पवित्र कार्य है ही. यह केस उत्तरप्रदेश पुलिस की शानदार और सराहनीय तफशीश के लिए पढ़ा जाना चाहिए. गूगल पर इसकी डिटेल्स हैं.

एक दिन मध्यप्रदेश में सतना का समीर खान नाम का एक शख्स सलाखों के पीछे गया. उसने एक जिम और साइबर कैफे की आड़ में आशिकी का धंधा जोरों पर चलाया था और कई हिंदू लड़कियों को फांसकर ब्लैकमेल करने के कारनामे सामने आए थे. गुना के जैन परिवार की एक लड़की ने जहर खाकर खुदकुशी कर ली. पता चला कि वसीम कुरैशी नाम के एक नौजवान ने तीन साल पहले उसे फांसकर एक तरह से बंधक बना लिया था. उसका धर्म बदला गया. कश्मीर में दो सिख बेटियों के साथ हाल ही में ऐसा ही हुआ. पंजाब की एक लड़की को निकाह के बाद श्रीनगर ले जाया गया और फिर उस पर उसके ससुर के साथ शारीरिक संबंध बनाने का 'ऑफर' दिया गया, यह कहकर कि घर की बात घर में ही रहेगी.

अजमेर के शातिर चिश्तियों ने कितनी स्कूली लड़कियों की जिंदगी तबाह की, youtube पर उसकी कलंकित कहानियां बड़े विस्तार में हैं. ये आज़ाद भारत की सेक्युलर सड़ांध का सबसे घृणित अध्याय है. देश भर में ऐसी घटनाओं की बाढ़ अचानक नहीं आई है. धीमी गति का यह जहर हमेशा ही फैला हुआ रहा है. सेक्युलर परिवेश में लाल कालीन के नीचे दबा दी गई आहें और कराहें इंटरनेट की बदौलत तत्काल हर हाथ के मोबाइल पर पहुंचने लगी हैं. फोटो और वीडियो सहित पूरी डिटेल में. मेरी राय में हर शहर में पिछले तीस सालों में गायब हुई ऐसी लड़कियों का विस्तृत डेटा बनना चाहिए, जो किसी आमिर, शाहरुख, नवाजुद्दीन, फरहान या फरदीन के चक्कर में पड़ी हों और जिनका आज कोई अता-पता नहीं है. कौन जाने वे किस नर्क में पड़ी हैं या जन्नत के मजे ले रही हैं? यह एक सांप्रदायिक समस्या ही नहीं, सामाजिक अध्ययन का भी विषय है. अगली बेटी आपके घर भी हो सकती है.

विश्वविद्यालयों और सामाजिक शोध संस्थानों का ध्यान पता नहीं इस गंभीर जहरीली सामाजिक समस्या की तरफ क्यों नहीं है. उनके समाजशास्त्र विभागों में मृत पाठ्यक्रमों को ढो रहे किसी एचओडी या प्रोफेसर को क्यों नहीं लगता कि वह अपने आसपास की ऐसी घटनाओं का एक विस्तृत डेटाबेस तैयार करे और दस्तावेजीकरण कराए. पुलिस और अदालत तक गए मामलों में तो बहुत कुछ ऐसा है जो सार्वजनिक है.

there are many stories like Shraddha Murder Case but no one wants to look on thatअजमेर के शातिर चिश्तियों ने कितनी स्कूली लड़कियों की जिंदगी तबाह की, youtube पर उसकी कलंकित कहानियां बड़े विस्तार में हैं.

मैं इस विषय को पूरी तरह निजी मानता हूं इसलिए कोई निर्णय नहीं करना चाहिए. हो सकता है कि अपने मां-बाप की मर्जी के खिलाफ निर्णय लेने वाली ये लड़कियां बहुत अच्छे माहौल में अपने बड़े होते बच्चों के साथ जीवनयापन कर रही हों. वे अपने पैरों पर खड़ी हों. उन्हें रहने-जीने की पूरी आजादी हो. उनके आशिक अच्छे पति भी साबित हुए हों और वे अपनी पत्नी को वह सब कुछ दे पाने में सक्षम साबित हुए हों, जो एक लड़की के माता-पिता की कल्पनाओं में होता है. हो सकता है कि उन लड़कियों ने अपने धर्म न बदले हों और वे अपने देवी-देवताओं की पूजा उन घरों में पूरी स्वतंत्रता से कर रही हों. हो सकता है कि ऐसा न भी हो. कुछ भी हो सकता है. मेरे परिचय में अलग-अलग शहरों के कुछ ऐसे परिवार हैं, जिनमें पारिवारिक रजामंदी से अंतरधार्मिक विवाह हुए हैं. कोई सोच भी नहीं सकता, उनकी गृहस्थी और आपसी रिश्ते इतने मधुर हैं. कुछ परिवारों में लड़की मुस्लिम है और वह किसी गैर मुस्लिम परिवार में बहू बनकर आई. कुछ परिवारों में लड़की गैर मुस्लिम है और वो मुस्लिम परिवेश में गई. केवल वर-वधू ही नहीं, उनके परिवार भी शुरुआती संकोच के सालों बाद अब खूब मजे से मिलते-जुलते हैं. कहने का मतलब है कि ऐसी खुशगवार कहानियां भी हमारे आसपास हैं. लेकिन एक आफताब और एक श्रद्धा की आए दिन की कहानी भी हमारे समाज की एक सच्चाई है, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.

कोचिंग और कॉलेज वाले हर बड़े तीस-चालीस लाख आबादी वाले शहर में एक से दो लाख आबादी ऐसे युवाओं की है, जो छोटे कस्बों और शहरों से पढ़ने या करिअर बनाने के लिए आए हैं. ये युवा बड़े शहरों में आकर अपनी जिंदगी के मालिक खुद हैं, भले ही पैरों पर खड़े हों या नहीं. दूर बैठे उनके माता-पिता इस उम्मीद में हर महीने उनकी हर जरूरत पूरी करने में लगे हैं कि उनका ठीकठाक भविष्य बन जाए. वे नहीं जानते कि उनके बेटे या बेटियां शहरों में अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कैसे कर रहे हैं. जाहिर है हर कोई हर उस इम्तिहान में पास नहीं हो जाता, जिसके लिए वो वहां गया है. एक स्कूटी और एक मोबाइल ने उनके जीवन में उड़ान भरने के लिए दो बेलगाम पंख लगा दिए हैं.

खासकर पढ़ाई के लिए घर से निकली बेटियों के बारे में सोचा जाना बेहद जरूरी है. बेटियों को ऐसी खुली आजादी हर समुदाय में नहीं है और जिन समुदायों में है, उनमें बचपन से कभी नहीं बताया जाता कि बड़े होने पर उन्हें अपने सामाजिक व्यवहार में क्या सावधानियां आवश्यक होंगी? उन्हें यह विवेक कोई नहीं देता कि वे किन लोगों से सावधान रहें, किन्हें अपने पास आने दें और किनके कितने पास वो जाएं? रही सही कसर हिंदी सिनेमा, सीरियल और अब ओटीटी के चरित्रहीन नायक-नायिकाओं और उनके पात्रों ने पूरी की हुई है. कितने मां-बाप किसी शहर में अपने बच्चों खासकर बेटी को पढ़ने के लिए छोड़ते वक्त यह बताते हैं कि वह ऐसा कुछ न करे, जिससे एक दिन किसी सूटकेस में बंद लाश के रूप में मिले या किसी फ्रिज में 35 टुकड़ों में देखी जाए या किसी खेत में सिर कटी लाश के रूप में नजर आए!

बच्चों को यह कौन बताएगा कि हमारे आसपास जन्मजात शत्रुबोध के साथ एक संगठित समाज सदा के लिए उपस्थित है, जिसके जीवनमूल्यों को आपके जीवन मूल्यों से कोई मेल नहीं है और उनसे सामाजिक व्यवहार की कुछ कठोर कसौटियां तय होनी ही चाहिए. जिनके लिए ऐसी फैशनेबुल काफिर लड़कियां जंगल में घास चर रहे लापरवाह हिरण की तरह मूर्ख शिकार हैं और कामयाब शिकार की एवज में उनके लिए ढेरों शाबाशियां और लुभावने इनाम-इकराम मुकर्रर हैं!

स्कूल-कॉलेज-कोचिंग वाले कभी इस विषय पर अपने विद्यार्थियों को सावधान नहीं करेंगे, क्योंकि उनकी नजर में ऐसा करने से मामला हिंदू-मुस्लिम होने का डर है. वे अपना धंधा बिगाड़ना नहीं चाहेंगे. तो, छात्रों के नाम पर बैनर वाले संगठन क्या कर रहे हैं? वे केवल सच्चाई बताएं, सच्ची कहानियां सुनाएं, सावधानियों पर बात करें, अपना कोई निर्णय न सुनाएं. केवल जागरूकता के लिए.

महिलाओं के संगठन भी यह विषय ले सकते हैं. लेकिन, महिलाएं सबसे पहले अपने घरों में बच्चों को सही समझ और सीख दें. कुछ सरकारों ने कानून बनाकर कदम उठाए हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं. वे तो मामला पूरा पक जाने के बाद के कदम हैं. शुरुआत परिवारों से ही होनी चाहिए. ऐसा करने से ही कोई श्रद्धा या कोई शालू कॉलेज या कोचिंग जाने के पहले ही यह समझ चुकी होगी कि अब वह जिस दुनिया में कदम रख रही है, उधर शिकारी कुत्तों से उसे कैसे बचना है?

आखिर में, हमें हर शहर के तीस सालों के रिकॉर्ड खंगालने चाहिए. ऐसी हर कहानी की गुमनाम लड़की का अता-पता लगाना चाहिए. वह किसके साथ गई थी, कहां गई थी, आज कहां है, किस हाल में है, उसकी जिंदगी कैसी गुजरी? ऐसी कहानियों को सोशल मीडिया पर लेकर आएं. लिखें. चर्चा करें. किसी लेखक या कवि को धरपकड़ें कि वह चिड़िया, मौसम, हवा, पानी, फूल, पत्ती, तितली, भौंरा, फूल, खुशबू पर कविता-कहानी कुछ महीने बाद लिख ले, पहले समाज को जहरीला बना रही इस घातक लहर को लेखनी में ले आए. यह उसका भी सामाजिक जिम्मा है. अब ऐसी कहानियों के लिए कोई अखबार या मैगजीन का मोहताज नहीं है. सोशल मीडिया की ताकत बड़ी है. मैंने ऐसी ही एक कहानी का 25 साल तक पीछा किया. टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ जानकारियां आईं. आखिरी जानकारी उस बेबस बेटी की मौत की थी, जिसके मां-बाप घर से उसके भागते ही खुदकुशी कर चुके थे. वह मध्यप्रदेश में इंदौर के एमआईजी इलाके की शालू थी. एक जैन परिवार की 18 साल की कन्या. और, ऐसी अनगिनत भूली-बिसरी कहानियां हर शहर में हैं. हर कहानी में एक बदकिस्मत शालू की आहें और कराहें हैं! अंधे माहौल में हर श्रद्धा या शालू का अपना एक आफताब है!

लेखक

विजय मनोहर तिवारी विजय मनोहर तिवारी @vijay.m.tiwari

लेखक मध्यप्रदेश के स्टेट इन्फॉर्मेशन कमिश्नर हैं. और 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' सहित छह किताबें लिख चुक हैं.

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