एक दलित छात्र के IIT में 100% अंक के साथ टॉप करने के मायने
जब शीर्षकों में यह लिखा जा सकता है कि किसी दलित पर अत्याचार हुआ, तब शीर्षक यह भी बनता है कि किसी दलित ने टॉप किया. लेकिन खबरों का शीर्षक तो कुछ और ही दिख रहा है...
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आइआइटी सरीखे देश के अव्वल इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिले के लिए होने वाले प्रवेश परीक्षा JEE -Main 2017 में इस बार इतिहास रचा गया है. राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले कल्पित वीरवार 360 अंक में पूरे 360 अंक हासिल करके देश में टॉप करने वाले पहले छात्र बन गए हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि कल्पित वीरवार दलित समुदाय से आते हैं?
कल्पित का दलित होना कुछ अलग सवालों पर रौशनी डालता हैमैं रोजाना की तरह इस परीक्षा के रिजल्ट के दिन न्यूज वेबसाइट्स की खबरें देख रहा था. अचानक एक खबर की शीर्षक पर मेरी नजर ठहर गई, लिखा था- "एक कम्पाउंडर के बेटे ने IIT-Main 2017 की परीक्षा में टॉप किया है." जिज्ञासावश मैंने वह खबर खोली और उसमें आगे बढ़ने पर बस एक वाक्य लिखा था- "कल्पित ने सामान्य श्रेणी के अलावा अनुसूचित जाति की श्रेणी में भी टॉप किया है." तब जाकर मुझे पता चला कि दरअसल एक दलित छात्र ने टॉप है और पहली बार किसी ने इस परीक्षा में 100 प्रतिशत अंक हासिल किए हैं. तब मैंने सोशल मीडिया पर यह बात बताई कि किसी दलित ने टॉप किया है और यह बात आग की तरह काफी तेजी से फैल गई. खासकर पिछड़े समुदायों के लोगों ने इसका स्वागत किया. अब सवाल उठता है कि जब शीर्षकों में यह लिखा जा सकता है कि किसी दलित पर अत्याचार हुआ, तब शीर्षक यह भी बनता है कि किसी दलित ने टॉप किया. लेकिन अजीब बात यह है कि अपवाद को छोड़ दें शायद ही किसी ने लीड में ऐसा लिखा, जबकि यह 'बिकने' वाली हेडिंग भी है क्योंकि पिछड़ी समुदायों का बड़ा वर्ग पाठक के बतौर तैयार हुआ है और यह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय भी है. असल में मेरे हिसाब से दलितों को लेकर पूर्वाग्रह ही है कि ऐसा कामयाबियों की खबरों को मीडिया में प्रमुखता नहीं दी जाती या आसानी से हजम नहीं किया जाता.
इतना ही नहीं किसी दलित के टॉप करने की खबर आते ही कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं: "अरे खबर झूठी होगी, चेक कर लो", "टॉपर के नाम के साथ दलित क्यों लगा रहे हो? कोई औचित्य नहीं", "प्रतिभा को जाति में मत बांटो", "अरे वो दलित कैसा, A.C. कमरों में पढ़ा है", "अब तो आरक्षण खत्म कर दी जानी चाहिए." आदि-आदि. ये सब पूर्वाग्रहपूर्ण कमेंट ही होते हैं. दरअसल दलित टॉप कर रहे हैं, यह इसलिए भी बताना जरूरी है क्योंकि हाल के दौर में उन पर तीखे कमेंट होते रहे हैं. मसलन "उनमें प्रतिभा नहीं होती और वे बस आरक्षण की खाते हैं" जैसे कमेंट. इस तरह की सोच रखने वालों पर कल्पित की कहानी करारा तमाचा है.
और टॉप करने वाले कल्पित अकेले शख्स नहीं हैं. इसी परीक्षा में लड़कियों में टॉपर और झारखंड से टॉपर ओबीसी छात्र हैं. बड़ी संख्या में आरक्षित वर्ग के बच्चों ने विभिन्न परीक्षाओं में टॉप किया है. पिछले साल टीना डाबी ने IAS में टॉप किया था, इस साल BHU P.hd (Hindi) के एंट्रेंस में एक आदिवासी लड़की पार्वती तिर्की ने टॉप किया है. इसी तरह महाराष्ट्र से लेकर छत्तीसगढ़ की बोर्ड परीक्षाओं में आरक्षित वर्ग के बच्चों ने टॉप किया है. इतना ही नहीं, पिछले दशकों में दलितों की साक्षरता दर में सवर्णों के मुकाबले ज्यादा वृद्धि हुई है. जाहिर है, प्रतिभा के मामले में ये कमतर नहीं बल्कि अब अव्वल हैं.
कल्पित वीरवार जैसों के टॉप करने के और क्या मायने हैं? दरअसल यह यह भी बताता है कि अगर दलितों-वंचितों को पढ़ाई और उचित संसाधन मिलेंगे और भेदभाव नहीं होगा, तो वे भी टॉप करने का माद्दा रखते हैं.
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि 'किसी एक दलित के टॉप कर जाने से क्या होगा या इससे पूरे समाज में थोड़े ही बदलाव आएगा.' दरअसल ऐसा कहने वाले भूल रहे हैं कि वंचित समुदायों के बच्चों की व्यक्तिगत कामयाबी भी बेहद महत्वपूर्ण है. वह न केवल उनकी जिंदगी बदलता है बल्कि उस पूरे समुदाय को प्रेरणा देता है. असल में शिक्षा ही वह हथियार है, जो ऐसे वंचित समुदायों की जिंदगी बदल रहा है. डॉ. भीमराव आंबेडकर की यह बात याद रखी जानी चाहिए कि 'शिक्षा शेरनी के दूध के समान है जो पीएगा वह दहाड़ेगा.'
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