बात महिलाओं के हक की है तो सारे मुदृे निपटा दिए जाएं
तीन तलाक पर भेदभाव की आशंका के लिए कोई स्थान नहीं रहे, इससे निपटने के लिए कॉन्स्टिट्यूशन बेंच में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी सभी धर्मों के मानने वाले जज शामिल हैं.
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पंच, परमेश्वर होते हैं. देश की सबसे बड़ी पंचों की अदालत आज से तीन तलाक पर बहस शुरू करेगी. मुद्दे बहुत हैं, लेकिन निपटारा भी जरूरी है. आखिर कब तक देश की महिलाएं इस दंश को झेलती रहेंगी. लिहाजा पंचों की जूरी में चीफ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अब्दुल नजीर को शामिल किया गया हैं. भेदभाव की आशंका के लिए कोई स्थान न रहे, इससे निपटने के लिए कॉन्स्टिट्यूशन बेंच में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी सभी धर्मों के मानने वाले जज शामिल हैं.
पंच भी परमेश्वरों की तरह अलग-अलग धर्मों के इससे बढ़िया उदाहरण भारतीय लोकतंत्र के अलावा कहा मिल सकता है. तीन तलाक की शुरुआत फरवरी 2016 में उत्तराखंड की शायरा बानो से हुई थी. शायरा बानो पहली महिला हैं जिन्होंने ट्रिपल तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला पर बैन लगाने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. शायरा को भी उनके पति ने तीन तलाक दिया था.
मामला रंग में आया जब अक्टूबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के महोबा में रैली के दौरान तीन तलाक का मुद्दा उठाया. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, 'क्या एक व्यक्ति का फोन पर तीन बार तलाक कहना और एक मुस्लिम महिला का जीवन बर्बाद हो जाना सही है? इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.'
उन्होंने कहा 'मेरी मुसलमान बहनों का क्या गुनाह है. कोई ऐसे ही फोन पर तीन तलाक दे दे और उसकी जिंदगी तबाह हो जाए. क्या मुसलमान बहनों को समानता का अधिकार मिलना चाहिये या नहीं. कुछ मुस्लिम बहनों ने अदालत में अपने हक की लड़ाई लड़ी. उच्चतम न्यायालय ने हमारा रुख पूछा. हमने कहा कि माताओं और बहनों पर अन्याय नहीं होना चाहिए. सम्प्रदायिक आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए'. प्रधानमंत्री ने कहा 'चुनाव और राजनीति अपनी जगह पर होती है लेकिन हिन्दुस्तान की मुसलमान औरतों को उनका हक दिलाना संविधान के तहत हमारी जिम्मेदारी होती है.'
तो अब पंचों की अदालत तो अपना फैसला देर सबेर दे ही देगी, इसके बाद राजनीति किस करवट बदलती है कोई नहीं जनता, लेकिन इतना जरूर है कि इस पर राजनीति जरूर होगी. रोटी सेकने के मौका कौन छोड़ना चाहेगा, खासकर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड. आशा है देश के सभी वर्गों के लोग पांच जजों की कॉन्स्टिट्यूशन बेंच के फैसले को अन्यथा नहीं लेंगे.
महिलाओं के हक की अगर बात की जाए तो यही हक अब संसद से लेकर विधानसभाओ में भी लागू होना चाहिए. महिलाओं को दिए जाने वाले आरक्षण बिल को भी जल्द से जल्द संसद में पास होना चाहिए.
क्यों नहीं देश में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण पर देशव्यापी मुहिम शुरु की जानी चाहिए . क्यों संसद में 1996 से लटका है यह बिल. आशा की जानी चाहिए कि ट्रिपल तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला खत्म होने के बाद महिला आरक्षण पर भी राजनैतिक दल अपनी मर्जी नहीं थोपेंगे.
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