परिवर्तन तो चाहिए, पर प्रक्रिया का दर्द नहीं ?
हम नई फिल्म की रिलीज़, भारत-पाकिस्तान मैच, डिस्काउंट के लिए पूरा दिन हंसते-हंसते लाइन में खड़े रहते हैं और उफ्फ भी नहीं करते. लेकिन प्रधानमंत्री जब लाइन में खड़ा होने को कहते हैं तो पसीने छूट जाते हैं.
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आप भूले नहीं होंगे कि जब अन्ना हजारे और केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था, तो जनता ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. पूरा देश जैसे खुशी से पागल हो गया था, कि इस बार कोई ऐसा इंसान आया है जो भारत की तस्वीर बदलकर रख देगा. उनके समर्थन के लिए भीड़ जुटने लगी, घरबार, नौकरी, समय किसी की भी परवाह न करते हुए हर चेहरे पर प्रसन्नता थी, जोश था,एक उम्मीद थी. यदि मुझे सही-सही याद है तो शायद सिर्फ दस रुपये का कोई रजिस्ट्रेशन कराना था, AAP की सदस्यता के लिए. राजनीति में कोई दिलचस्पी न होने के बावजूद भी न सिर्फ मैंनें बल्कि भारत के करोड़ों नागरिकों ने उनके सपोर्ट के लिए इस फॉर्म को भरा. झाड़ू ने स्वच्छता अभियान को हर गली-मोहल्ले में सफल बना दिया. झाड़ू हाथ में लेने में अब किसी को तनिक भी संकोच न होता था.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश की संवेदनाएं और समर्थन राजीव गांधी के साथ था. हर आंख नम थी और हर दिल की यही दुआ कि इस नए प्रधानमंत्री के स्वप्न साकार हों. राजनीति से कोसों दूर रहने वाले अमिताभ बच्चन भी उनके साथ आ खड़े हुए. आम जनता का अपार स्नेह और आशीर्वाद गांधी परिवार के साथ था और सभी ने खुले ह्रदय से उनका स्वागत किया.
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ऐसा ही मोदी जी के साथ भी हुआ. उनके भाषणों से प्रभावित होकर हम सब फिर उसी रौ में बह गए और उनको भी वही मान मिला, जिसके वो हकदार थे. स्वच्छ भारत अभियान, भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए किये गए उनके प्रयासों को देखकर पुनः हम सबकी बांछें खिलने लगीं.
दरअसल हम भारतीय बड़े ही सच्चे वाले देशभक्त, भावुक, बेवकूफ, आशावादी, स्वार्थी, छुट्टी पसंद और आलसी हैं.
देशभक्त होना वाज़िब है पर ये देशभक्ति राष्ट्रीय अवकाश के दिन सोशल साइट्स पर सबसे ज्यादा दिखती है. जब देश के लिए कुछ करने का मौका आये तो हम सब भाग खड़े होते हैं. हम नई फिल्म की रिलीज़, भारत-पाकिस्तान मैच, मात्र दो-तीन दिन के लिए लगी सेल (डिस्काउंट) के लिए पूरा दिन हंसते-हंसते लाइन में खड़े रहते हैं और उफ्फ भी नहीं करते. लेकिन जिस इंसान को वोट देकर जिताया, जब वो लाइन में खड़ा होने को कहता है तो पसीने छूट जाते हैं. भारी विपत्ति का समय लगने लगता है. हम कर्फ्यू, दंगे, बाढ़, भूकंप सब झेल जाते हैं लेकिन यहां रात को एक खबर सुनते ही ऐसे घबरा जाते हैं कि अगली सुबह के लिए जैसे घर में एक दाना भी शेष न रहा हो. अफरा-तफरी का माहौल हम ही बनाते हैं, क्या किसी के भी घर में अगली सुबह के लिए एक पैसा न था जो भागकर सीधा पहुंच गए. कभी देश की इतनी चिंता की है कभी, जितनी अपनी होती है?
भावुक इसलिए कि हमारे दिल बड़े नाजुक हैं इन्हें कोई भी, कभी भी आसानी से जीत सकता है. हम अपनी परेशानी में फूट-फूटकर रोते हैं लेकिन दूसरों की समस्या से हमें तब तक कोई लेना-देना नहीं होता जब तक कि उसमें हमारा स्वार्थ न छिपा हो.
ये बेवकूफ़ी ही तो है कि हम पुराने अनुभवों से कुछ सीखते नहीं.
आशावादी होना अच्छा संकेत है. हमसे किसी ने जरा प्यार से क्या बोला कि उम्मीद की हजारों किरणें झिलमिलाने लगती हैं. आवश्यकता से अधिक अपेक्षा पाल लेते हैं, पर स्वयं कुछ नहीं करना चाहते.
स्वार्थी लोगों की भी कमी नहीं. इन्हें देश की चिंता तब तक है, जब तक इनकी दिनचर्या यथावत रहे. जरा-सा हेरफेर होते ही ये बौखला उठते हैं और इनके असल रंग बाहर निकल आते हैं.
छुट्टी का रोना सबसे ज्यादा वही रोते हैं, जिनके खाते में सबसे ज्यादा छुट्टियां पहले से दर्ज हैं. ये हर संभव छुट्टी को भुनाना कभी नहीं भूलते और इसके अतिरिक्त भी जब मौका लगे, मार ही लेते हैं. लेकिन ज्यों ही काम की बारी आई तो इनके दुखड़े शुरू. माने सरकार पगार तो दे, पर काम न ले. क्यों भला? प्राइवेट कंपनी वाले तो कभी न काम का रोना रोते. जिस दिन सरकारी कार्यालयों में इनकी तरह काम होने लगे और छुट्टियां हट जाएं, सरकारी नौकरी का मोह छूटते देर न लगेगी. वर्तमान/ अगली सरकार इस दिशा में भी तुरंत प्रयास करे.
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सौ बात की एक बात यह है कि हम परिवर्तन तो चाहते हैं पर इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनना चाहते.
- हमें हर सुविधा चाहिए, पर उसकी प्राप्ति के लिए उठाये जाने वाले कष्ट हमें स्वीकार नहीं.
- हम सफाई तब करेंगे, जब सरकार कहेगी अन्यथा सार्वजनिक स्थानों पर बेधड़क गंदगी फैलाएंगे.
- हम अपने गाँव में शौचालय बनवाने के लिए भी वर्षों सरकार की मनुहार का इंतज़ार करते हैं.
- हमें अपनी जान भी प्यारी नहीं, इसलिए हेलमेट भी ट्रैफिक पुलिस को देखने के बाद पहनते हैं और सीट बेल्ट भी तभी अटका लेते हैं.
- हम चाहते हैं कि कोई हमें हमारी जिम्मेदारियां याद दिलाता रहे.
- हम स्वप्न तो खूब देखते हैं पर उन्हें साकार करने के लिए दिव्य शक्तियों से चमत्कार की उम्मीद पाल बैठते हैं.
हमारी आदत बन गई है, सत्ता के विरुद्ध खड़े होने की. फिर हम उन्हें चुनते ही क्यों हैं, आखिर?
जितने भी दल हैं, सब सत्ता के लिए लड़ रहे हैं. कम-से-कम आम नागरिक तो एक हो सकता है. आखिर कोई भी पार्टी हमें व्यक्तिगत तौर पर क्या देगी? बात देश की है, तो सबको एक तरफ रख देशहित में ही सोचना होगा. जिसे हमने स्वयं सत्ता सौंपी, उसकी बातों को एक बार मानकर देखना होगा वरना 'चुना' किस उम्मीद से था. क्या एक अकेला इंसान परिवर्तन ला सकता है? आप साथ न खड़े होना चाहेंगे?
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आम भारतीय दिल से न कांग्रेसी है, न भाजपाई, न आप समर्थक और न अन्य दलों से उसका कोई स्वार्थ जुड़ा. वो उस इंसान का समर्थक है, जो एक नेक काम के लिए हर मुसीबत झेलने को तैयार खड़ा है, जिसकी बातों में सच्चाई दिखती है, फिर चाहे वो किसी भी दल का हो. मैं भी अपने देश की समर्थक हूं और अच्छी तरह जानती हूं कि जिन्हें भी हम अब तक चुनते आये हैं, वो जब-जब अपने वादों से मुकरे; उनकी मात ही हुई है. बाज़ी सदैव ही जनता के हाथ में रही है. फिर डरना कैसा? संशय क्यों? इतनी जल्दी घबरा क्यों गए ?
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