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Updated: 11 जुलाई, 2018 11:00 AM
शुभ्रस्था
शुभ्रस्था
  @shubhrastha
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"मैंने बहुत कम उम्र में ही अपनी माँ को खो दिया. तब मैं तीन साल की थी. मेरे पिता ने 15 साल तक मुझे पीटा और मेरे साथ बलात्कार किया. मेरे साथ क्या सही या गलत हो रहा था मुझे उसका अहसास नहीं था. मैं सिर्फ असहज और गंदा महसूस करती थी. 20 वर्ष की आयु में मैं अपने प्रेमी के साथ छोटे से गांव थीमिला, कर्नाटक से भागकर दिल्ली आ गई. मुझसे चाँद और सितारों के वादे किए गए थे. लेकिन एक सप्ताह के भीतर हनीमून के बाद ही मुझे जीबी रोड पर एक कोठे में बेच दिया गया था. अब लगभग 30 साल का लंबा वक्त बीत जाने के बाद यहां घर जैसा ही लगता है. इस जगह ने कम से कम मुझे एक पहचान दी है. यहां मैं खुद अपना ख्याल रख सकती हूं. और किसी पर निर्भर नहीं हूं."- स्वीटी

"मैं काम की तलाश में दिल्ली आयी थी. लेकिन दिल्ली की सड़कों पर एक अनपढ़ औरत के लिए छोटे-मोटे काम करने की बजाय उसका शरीर बेचकर एक बेहतर जीवन पाना आसान था. धीरे धीरे मैंने इसी काम को चुना. मध्य प्रदेश में मेरा परिवार है, जो सोचता है कि मैं यहां एक नौकरानी के रूप में काम करती हूं और एक परिवार के साथ रहती हूं. मैं उन्हें पैसा भेजती हूं और बस."- रीमा

"मैं अपने प्रेमी के बारे में सोच घर से भागी थी. मुझे लगता था कि उसने जो वादा किया है वो उसे निभाएगा. मैं दिल्ली पहुंच गयी, पर उसने अपना वादा नहीं निभाया. मैं डरी हुई थी. असम के एक बहुत छोटे से गांव से आई लड़की के लिए यह एक नया शहर था. रेलवे स्टेशन पर मुझे नशे की दवा खिलाकर बलात्कार किया गया और बाद में यहाँ लाकर बेच दिया गया था."- बेबी

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"मेरी शादी एक ऐेसे परिवार में हुई थी जो मुझ पर दहेज के लिए अत्याचार करता था. जब मैं पहली बार भागकर कोलकाता गई. मेरे पति ने मुझे ढूंढ़ लिया. और मुझे किसी और के सुपुर्द कर दिया. उसके बाद कई बार मेरी तस्करी की गई और अंत में मुझे दिल्ली लाया गया."- डॉली

ऐसी कहानियां और कई ऐसे लोग सामने आए. जब मैंने कई ऐसी जगहों का दौरा किया जिनकी झलक हम आंशिक रूप से सिनेमा और साहित्य के माध्यम से ही पाते हैं.

इनके कमरों को "एनकांउटर रूम" कह सकते हैं. ये महिलाएं छोटे-छोटे से इन कमरों को गंदे बाड़े के रूप में बुलाती हैं. जहां मुश्किल से एक गद्दा, एक तकिया, एक छोटा स्टूल जिसे जोड़कर मेज बन जाए और एक पानी की बोतल मेहमान नवाजी के लिए होती है. ये महिलाएं इन "एनकांउटर रूम" यानी कमरों में अपने ग्राहकों और दलालों के परे एक अलग तरह की जिंदगी भी जीती हैं. यहां जीने के लिए इन महिलाओं ने दोस्तों की आबादी बनाई है. जिनके साथ ये अपनी रसोई, शौचालय और "आँगन" भी साझा करती हैं. वे यहां फिल्में देखने के बाद हंसती भी हैं और वे ऐसा जीवन जीने के लिए परीक्षण के तौर पर दर्द भी महसूस करती है. उन नाजायज बच्चों को भी वहां रखा जाता है जिनकी वे मां हैं. वो बच्चे जिन्हें पैदा करने के लिए कभी कभी इन्हें मजबूर किया जाता है या वे खुद करना चाहती हैं.

साइमा कहती हैं कि "मेरी मां यहीं रहा करती थी. वह असहाय थी और शायद उसी ने मेरे लिए इस जगह को चुना. पर मैं ऐसा नहीं करूंगी. मेरी बेटी दो साल की है और मैं उसे पढ़ाना चाहती हूं. जिस तरह का सपनों जैसा जीवन आप जीती हैं मैं उसे ऐसी जिन्दगी देने का सपना तो नहीं देख सकती लेकिन यह तय करूंगी कि वह इस झंझट से दूर रहे."

रीमा की आवाज ने दूर तक मेरा पीछा किया "मेरे पास कोई विकल्प नहीं था दीदी. जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो मुझे खुद को पालने के लिए कुछ भी दिखाई नहीं देता. सिलाई, बुनाई- इन सभी में वक्त लगता है. और जहां मैं रहती हूं वहां इस काम से कितना कमा सकती हूं. बाहर मुझे कौन स्वीकार करेगा? अब मैं वापस उस क्रूर दुनिया में क्यों जाऊं जहां अपने लोगों का कोई मूल्य नहीं है. उनके लिए दया नहीं है. अगर मैं आपसे कुछ करने के लिए कहूं तो आप जो कमाती हैं क्या उसके बाहर जाकर कुछ कर पाएंगी दीदी? मैं यहां आसानी से जो पैसा कमाती हूँ उससे मुझे गांव में मेरा घर बनाने में मदद मिली है. मैं बूढ़ी हो जाने पर वापस अपने गांव चली जाऊंगी. वैसे भी यह पेशा क्रूर है. बूढ़े हो जाने पर यहां कुछ नहीं कर सकते."

बेबी कहती है "मैं अपने बेटे को स्कूल भेजती हूं. यह बिल्कुल रेलवे स्टेशन के पास है. मुझे पता है कि यहां उसे मिलने वाली संगति ठीक नहीं है. मुझे ये भी पता है कि उसके लिए अपने अतीत से बचना आसान नहीं होगा. लेकिन यही सबसे अच्छा है जो मैं उसके लिए कर सकती हूं. मैं उसे एक दलाल बनकर इस गंदगी का हिस्सा बनते हुए नहीं देख सकती."

इन महिलाओं के पास से निकलने से पहले कई चौंकाने वाले सवाल मेरे सामने खड़े थे. हम उन्हें पीड़ित समझने वाले कौन होते हैं? हम ऐसा क्यों सोचते हैं कि हम लोगों के पास उन्हें एक वैकल्पिक जीवन देने का अधिकार है जबकि हम में से अधिकतर ऐसे सारे सुझाव अभिजात वर्ग से और वातानुकूलित कमरों में आयोजित होने वाले सम्मेलनों से निकालकर लाते हैं?

ये महिलाएं दुर्व्यवहार का शिकार शरीर लिए, टूटे हुए विश्वास, उनके हालात को समझते हुए जानती हैं कि वे क्या कर रही हैं; उन्हें पता है कि यह एक बड़े तंत्र और सामाजिक क्रिया का हिस्सा है. और वे अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए सुधारात्मक उपाय कर रही हैं. भले ही पेशे पर नहीं मगर उन्हें अपने प्रयासों और दृढ़ विश्वास पर गर्व है.

ये वक्त इन महिलाओं को उमराव जान की छवि से दूर ले जाने का है. अब उन्हें केवल पीड़ितों के रूप में देखना बंद कीजिए और उन्हें रोचक "कहानी" लिखे जाने का मसाला समझना बंद कीजिए. यह वक्त रेड लाइट क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को परिवर्तन और आशा की दूत के रूप में स्वीकार करने का है.

(मुंबई में एक रेड लाइट एरिया कमाथीपुरा की एक महिला ने अपनी एक पुत्री श्वेता कट्टी को बार्ड विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका भेजा है. श्वेता वापस आकर देश के रेड लाइट क्षेत्रों में काम करना चाहती है.)

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लेखक

शुभ्रस्था शुभ्रस्था @shubhrastha

सामाजिक, राजनीतिक सलाहकार एवं स्वतंत्र लेखिका

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