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Updated: 28 सितम्बर, 2016 12:27 PM
विवेक शुक्ला
विवेक शुक्ला
  @vivek.shukla.1610
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शहीद–ए-आजम भगत सिंह की बात हो और उनकी पत्नी की बात न हो, यह ठीक नहीं है. आप सुनकर चौंक सकते हैं. चौकिए मत. ये सच है कि भगत सिंह ने शादी नहीं की थी. पर, एक महिला ने उनकी पत्नी बनकर उन्हें बचाया था ताकि उन्हें पुलिस पकड़ न सके. उस महिला का नाम था दुर्गा देवी वोहरा. वह भी भगत सिंह के साथ क्रांतिकारियों की गतिविधियों में एक्टिव थीं. हालांकि वह मशहूर हुईं दुर्गा भाभी के रूप में.

भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी साथी राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर, 1927 को लाहौर में गोरे पुलिस अफसर जे.पी. सांडर्स की हत्या की. उसके बाद वे मौका-ए-वारदात से फरार हो गए. पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए दबिश मारने लगी. सारे लाहौर को घेर लिया गया. चप्पे-चप्पे पर पुलिस. तब भगत सिंह के साथियों ने तय किया कि दुर्गा भाभी को भगत सिंह की पत्नी बनाया जाए. दुर्गा भाभी ने इस मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी उठाई. दुर्गा भाभी तय जगह पर पहुंची. वहां पर भगत सिंह थे. तब उनकी गोद में उनका तीन साल का पुत्र साची भी होता था. कहते हैं कि तब भगत सिंह एंग्लो इंडियन लूक में निकले दुर्गा भाभी के साथ लाहौर में. वे पुलिस की पैनी नजरों से बचने के लिए विवाहित इंसान बनने की कोशिश में सफल रहे. दुर्गा भाभी इस दौरान उनकी पत्नी बनने का रोल कर रही थीं. कुछेक जगहों पर पुलिस ने उन्हें रोका भी. लेकिन, फिर जाने दिया. यानी सफल रहा मिशन.

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 भगत सिंह की पत्नी बनकर उन्हें पुलिस से बचाया था 

दुर्गा भाभी असली जिंदगी में पत्नी थी भगत सिंह के संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपबलिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य भगवती चरण वोहरा की. वोहरा की बम का टेस्ट करते वक्त विस्फोट में जान चली गई थी. दुर्गा भाभी के अलावा एचएसआरए में कुछ और महिलाएं भी एक्टिव थीं.

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बहरहाल, भगत सिंह को 1931 में फांसी हो गई. उनका संगठन बिखर सा गया. उसके बाद दुर्गा भाभी ने 1940 में लखनऊ के कैंट इलाके में एक बच्चों का स्कूल खोला. उसे वह दशकों तक चलाती रहीं. 70 के दशक तक दुर्गा भाभी लखनऊ में ही रहीं. फिर उन्होंने अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ गाजियाबाद में शिफ्ट कर लिया. उनसे इस लेखक को भी 1995 में मुलाकात करने का मौका मिला. काफी वृद्ध हो चुकी थी दुर्गा भाभी तब तक. गुजरे दौर की यादें धुंधली पड़ने लगी थीं. पर, भगत सिंह का जिक्र आते ही फिर वह उन्हीं दिनों में वापस चली गईं थी. उन्होंने उस सारे घटनाक्रम को सुनाया जब वह बनीं थी भगत सिंह की पत्नी. उनका 1999 में गाजियाबाद में निधन हो गया था.

भगत सिंह शहीद-ए-आजम कैसे बन गए?

शहीद तो भगत सिंह के अलावा राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर, खुदीराम बोस समेत सैकड़ों हुए. इन सभी को जनमानस स्वत:स्फूर्त भाव से शहीद पुकारने लगा. तो भगत सिंह शहीद-ए-आजम कैसे बन गए? भगत सिंह संभवत: देश के पहले चिंतक क्रांतिकारी थे. वे राजनीतिक विचारक थे. वे लगातार लिख-पढ़ रहे थे. उनसे पहले या बाद में कोई उनके कद का चिंतनशील क्रांतिकारी सामने नहीं आया.

भगत सिंह को फांसी की सज़ा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले ‘प्रताप’ और इलाहाबाद से छपने वाले ‘भविष्य’ जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था. यानी कि जनमानस ने उन्हें अपने स्तर पर ही शहीदे-ए-आजम कहना शुरू कर दिया था. जब भगत सिंह को शहीद-ए-आजम अवाम कहने लगे तो सरकार कहां से आती है.

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 क्या इतने महान देशभक्त की स्मृति को लेकर हम गंभीर हैं?

भगत सिंह अपने जीवन काल में ही लीजैंड बन गए थे. उनकी फांसी की खबर जैसे ही देश को मालूम चली बस तब देश गुस्से में उबलने लगा. अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश चरम पर था. जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. भगत सिंह जैसे राष्ट्र भक्त सदियों में एक बार जन्म लेते हैं. वे किसी उपाधि या पुरस्कार के मोहताज नहीं थे. बहरहाल, भगत सिंह को शहीद हुए एक अरसा गुजर चुका हैं. उसके बाद भी वे देश के नौजवानों को प्रेरित करते हैं. बीते साल एक प्रमुख पत्रिका ने एक पोल किया था. सवाल पूछा गया था कि जनता सबसे अधिक किस स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी शख्सियत से प्रभावित है. उस पोल में भगत सिंह अन्य सब पर भारी पड़े थे.गांधी जी भी शहीद हुए. पर उन्हें कोई शहीद या शहीदे-ए-आजम नहीं कहता. इससे उनका कद छोटा नहीं हो जाता. गांधी, नेताजी, भगत सिंह जैसी शख्सियतों को किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है कि वे क्या थे.

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इस देशभक्त की स्मृति को लेकर कितने गंभीर हैं हम

लेकिन, क्या इतने महान देशभक्त की स्मृति को लेकर हम गंभीर हैं? शायद नहीं. दिल्ली और कानपुर का भगत सिहं के क्रांतिकारी जीवन से गहरा रिश्ता रहा है. दिल्ली में उनका बार-बार आना-जाना रहता था. उन्होंने इधर 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका. कानपुर से छपने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारी अख़बार ‘प्रताप’ में नौकरी करते वक्त वे दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगा कवर करने आए. दंगा दरियागंज में हुआ था. वे दिल्ली में सीताराम बाजार की एक धर्मशाला में रहे थे. अब आप लाख कोशिश करें पर आपको मालूम नहीं चल पाएगा कि वह धर्मशाला कौन सी थी, जहां पर भगत सिंह ठहरते थे.

अब कानपुर पर आते हैं. वे 1925 में प्रताप में नौकरी करने कानपुर गए थे. पीलखाना में प्रताप की प्रेस थी. वे उसके पास ही रहते थे. वे रामनारायण बाजार में भी रहे. वे नया गंज के नेशनल स्कूल में पढ़ाते भी थे. यानी कि उनका इन दोनों शहरों से खास तरह का संबंध रहा. पर, अफसोस कि इन दोनों शहरों में वे जिधर भी रहे या उन्होंने काम किया,बैठकों में शामिल हुए, उधर उनका कोई नामों-निशान तक नहीं है. उऩ्हें एकाध जगह पर बहुत मामूली तरीके से याद करने की कोशिश की गई है. जिस स्कूल में भगत सिंह पढ़ाते थे, उसका नाम भी भगत सिंह पर नहीं रखा गया. अब सोच लीजिए कि कानपुर जैसे शहर ने उनको लेकर कितना ठंडा रुख अपनाया.

‘प्रताप’ में भगत सिंह ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की. ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदाक्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी. भगत सिंह यहां पर बैठक घंटों ही पढ़ते थे. वस्तुत: प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था. भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया. चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी.

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 1927 में जब पहली बार भगतसिंह गिरफ्तार हुए थे तब ये तस्वीर ली गई थी

अब ‘प्रताप’ की इमारत खंडहर में तबदील हो रही है, पर इमारत के बाहर एक स्मृति चिन्ह तक नहीं लगा जिससे पता चल सके कि इसका भगत सिंह के साथ किस तरह का संबंध रहा है. कानपुर से वर्तमान में केंद्रीय कैबिनेट में दो मंत्री हैं. काश, इन्हें कोई बताए कि कानपुर में भगत सिंह से जुड़ी जगहों के बाहर कम से कम स्मृति चिन्ह ही लगवा दिया जाए.

दिल्ली में 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में भगत सिंह ने बम फेंका. पूरा हाल धुएँ से भर गया. भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया. उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे. बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब!- जिन्दाबाद!! साम्राज्यवाद!- मुर्दाबाद!!" का नारा लगा रहे थे और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल रहे थे. इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया. उस स्थान (संसद भवन) में उस घटना के 79 वर्षों के बाद उनकी प्रतिमा स्थापित की गई. हालांकि उस प्रतिमा को लेकर भगत सिंह के परिवार को आपत्ति है. उनका कहना है कि संसद में लगी प्रतिमा में उन्हें पगड़ी पहने दिखाया गया है. जबकि वे यूरोपीय अंदाज की टोपी पहनते थे.  

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भगत सिंह ने दिल्ली में अपनी भारत नौजवान सभा के सभी सदस्यों के साथ का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय किया और काफी विचार-विमर्श के बाद आम सहमति से ऐसोसिएशन को एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन. ये अहम बैठक दिल्ली में फिरोजशाह कोटला मैदान के साथ वाले मैदान में हुई. इसमें चंद्रशेखर आजाद, बिजय कुमार सिन्हा,भगवती चरण वोहरा,शिव वर्मा जैसे क्रांतिकारों ने भाग लिया था. इस स्थान पर एक स्मृति चिन्ह एक जमाने में लगा था, जो अब धूल खा रहा है. पहले तो इधर शहीद भगत सिंह बस टर्मिनल था. इस वजह से कुछ लोगों को मालूम चल जाता था कि इसका भगत सिंह से क्या संबंध रहा है.

ये सच है आपको देश के हर शहर और कस्बें में अहम विरासतें धूल खाती मिल जाएंगी. तमाम बड़े क्रांतिकारियों, लेखकों, खिलाड़ियों और जीवन के अन्य क्षेत्रों में अहम योगदान देने वाली शख्सियतों से जुड़ी जगहें उनके जाने के बाद जर्जर होने लगती है. उन्हें न तो समाज देखता है और न प्रशासन. अमेरिका और यूरोप में खास इमारतों के बाहर स्मृति पटल लगा दिया जाता है,जिसमें उस इमारत के महत्व पर विस्तार से जानकारी दे दी जाती है. पर हमें इस लिहाज से बहुत कुछ सीखना है. हम कब सीखेंगे, किसी को मालूम नहीं. क्या ये अपने आप में शर्मनाक नहीं है ?

लेखक

विवेक शुक्ला विवेक शुक्ला @vivek.shukla.1610

लेखक एक पत्रकार हैं.

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