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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 27 मई, 2017 02:04 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों पर दो जगह उग्र भीड़ का 6 लोगों की पीट-पीटकर हत्या करने की दर्दनाक घटना अनेक सवाल खड़े करती है. इनके जवाब देश को तलाशने होंगे. इससे जुड़ा एक बड़ा मसला देश के अनेक राज्यों में पुलिसकर्मियों पर बढ़ते हमले को लेकर भी है. इन दोनों बिन्दुओं को एक साथ जोड़कर देखने की आवयश्कता है. सिर्फ अफवाह के आधार पर छह लोगों का कत्ल करना रोंगटे खड़े कर देने वाला मामला है. न तो कोई बच्चा चोरी हुआ न बच्चा चोरी की कोई शिकायत ही की गयी. न कोई एफआईआर दर्ज हुई, केवल अफवाह फैलाकर 6 लोगों को बेरहमी से मार डाला गया. ये कहां का न्याय है?

झारखंड में बच्चा चोरी के आरोप में पिटाई और हत्या के शिकार कोई मुसलमान नहीं हो रहे. हिन्दू मारे गए हैं. कुछ स्तरों पर यह बात फैलाई जा रही है कि भीड़ के शिकार सभी मुसलमान थे. ये मिथ्या प्रचार देश के विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने की कोशिश है. इस पर रोक लगनी चाहिए और जो बेबुनियाद प्रचार को खाद-पानी दे रहे हैं, उन पर कठोर कार्रवाई हो.

शरारती भीड़

झारखंड में बच्चों का अपहरण करने के शक में कुछ हिन्दुओं को भी एक बूढ़ी औरत के साथ पीटा गया, जिसमें से तीन की मौत हो गई. झारखंड में बच्चा चोरी का इल्जाम लगा, मार देने की कहानी पिछले एक महीने से चल रही है. गांव में नौजवानों ने वाट्स्एप ग्रुप बना रखे हैं, भीख मांगने वाले संदिग्ध गरीब बुजुर्ग इनके खास निशाने पर होते हैं. हिंसक हो चुके झारखंड का आदिवासी समाज दुनिया भर में झारखंड की जो छवि पेश कर रहा है उसे बदलने में बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे. ज्यादातर हमलावर अनुसूचित जाति के ही पाए गए हैं. एक भीड़ किसी को पीट-पीट कर मार डालती है, जला देती है.

jharkhand, lynchingसिर्फ अफवाह पर 6 लोगों की हत्या कर दी गई

झारखंड की घटना को इस घटना के वीभत्स रूप में देखने की जरूरत है कि आखिर क्यों पुलिस का खौफ आम जन के मन से खत्म होता जा रहा है? अब समाज का एक तबका पुलिस का इंतजार करने से पहले ही किसी को मार डालता है, यह दर्शाता है कि न तो अब आम जनता में पुलिस की वर्दी का खौफ बचा है, और न ही पुलिस से कोई आशा ही रह गई है. आम जन का पुलिस पर से विश्वास उठना खतरे की घंटी है.

जान के प्यासे

अब दिल्ली से करीब 180 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सहारनपुर जिले में बीते कुछ समय पहले जातीय हिंसा के मामले की बात भी कर ही लेते हैं. सहारनपुर यूपी के बेहतरीन जिलों में एक रहा है. वहां पर राजपूत और दलित समुदाय के लोग एक-दूसरे की जान के प्यासे हो गए थे. जमकर आगजनी हुई. कौन दोषी है, यहां पर इस सवाल का जवाब नहीं खोजा जा रहा है. यह काम जांच एजेंसियां करेंगी. पर यह सबको जानने का हक है कि आखिर हिंसा और आगजनी में लिप्त उपद्रवियों को पुलिस का कोई भय क्यों नहीं रहा? अगर नहीं रहा तो क्यों नहीं रहा?

dalit, saharanpur, violenceहिंसा की आग में जल रहा है सहारनपुर

आपको मालूम होगा कि पिछली 5 मई को सहारनपुर के थाना बडगांव के शब्बीरपुर गांव में दलित और राजपूत समुदाय के बीच जमकर हिंसा हुई. इस जाति आधारित हिंसा के दौरान पुलिस चौकी को जलाने और 20 वाहनों को आग के हवाले कर देने की खबर है. कश्मीर घाटी में भी पुलिस पर स्कूली बच्चों से लेकर बड़े तक पथराव करते नजर आते हैं. उनके साथ बदतमीजी करते हैं. वैसे तो कश्मीर घाटी को देश के बाकी भागों के साथ जोड़ा नहीं जा सकता. कश्मीर में पाकिस्तान भारत विरोधी शक्तियों को खुलकर मदद दे रहा है. पर कश्मीर से बाहर पुलिस पर हमलों का तेजी से बढ़ना एक बेहद गंभीर मामला है.

अब सड़कों पर रोड रेज के मामले ही ले लीजिए. बात-बात पर लोग एक-दूसरे को मार डाल रहे हैं. एक की मोटर साइकिल का दूसरे की कार पर लगने का मलतब है कि कोई बड़ा हादसा हुआ. ये तो बस एक उदाहरण है. पुलिस को सूचना देने से पहले ही पीड़ित पक्ष बदला ले लेता है. पीड़ित हो या न हो मजबूत पक्ष चढ़ बैठता है. यानी अब पुलिस की किसी को कोई जरूरत ही नहीं रही, या यूं कहिए कि जनता का भरोसा ही पुलिस पर से उठ गया है और अब वह खुद ही न्याय देने पर ज्यादा भरोसा करने लगी है.

निशाने पर पुलिस

आपने झारखंड की खबर में पढ़ा ही होगा कि घटना स्थल पर पुलिस के पहुंचने पर भीड़ ने पुलिसकर्मियों पर भी हमला बोल दिया. बात यहां पर ही समाप्त नहीं हुई. जमशेदपुर में आदिवासियों की भीड़ द्वारा मारे गए युवकों की हत्या का विरोध कर रही खास संप्रदाय विशेष की भीड़ ने पुलिस के साथ जमकर मारपीट भी की. पुलिस अफसरों की वर्दी को फाड़ दिया गया. आदिवासियों के कृत्यों की निंदा करने वाले इस घटना की भर्त्सना करने का साहस तक नहीं जुटा पा रहे हैं.

दरअसल खाकी वर्दी का भय अब खत्म होता जा रहा है. कानून के दुश्मनों के निशाने पर पुलिस वाले भी आ गए हैं. शातिर अपराधियों को पुलिस का रत्तीभर भी खौफ नहीं रहा. ये बेखौफ हो चुके हैं. ये पुलिस वालों की हत्या करने से भी परहेज नहीं करते. झारखंड में आदिवासियों और एक अल्पसंख्यक समुदाय के लफंगों की घटनाओं को इसी रूप में देखा जाना चाहिए.

policeलोगों में से पुलिस का खौफ खत्म हो रहा है

हालत यह है कि देश में बदमाशों या आतंकियों के हाथों रोज औसत दो पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं. साल 2015 में देश भर में 731 पुलिसकर्मी जानलेवा हमलों में जान गंवा बैठे. ये आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हैं. इन 731 में से 412 यानी 48.8 फीसद उत्तर प्रदेश 95,  महाराष्ट्र 82, पंजाब और तमिलनाडू में 64-64, गुजरात में 55, राजस्थान में 52 पुलिसवाले ड्यूटी के दौरान मारे गए. इन अभागे पुलिसकर्मियों में 427 कांस्टेबल, 178 हेड कांस्टेबल तथा 68 सहायक सब इंस्पेक्टर शामिल थे. गौर करें कि इन छह राज्यों पर जहां ड्यूटी देते हुए सर्वाधिक पुलिस कर्मी मारे गए.

अपराधी तत्वों का पुलिस को अपना शिकार बनाना इस बात का खुला संकेत है कि देशभर की पुलिस को नए सिरे से अपने कर्तव्यों के निवर्हन के लिए तैयार किया जाए. कहीं न कहीं पुलिस महकमें में भी भारी कमजोरी आई है, जिसके चलते पुलिस का भय सामान्य नागरिकों के दिल से काफूर होता जा रहा है.

कितने सस्पेंड

उत्तर प्रदेश में नई सरकार बनने के बाद प्रदेश के विभिन्न शहरों में अभी तक 100 से अधिक पुलिसकर्मी सस्पेंड भी किए जा चुके हैं. सस्पेंड किए गए ज्यादातर पुलिसकर्मी गाजियाबाद,  मेरठ,  नोएडा और लखनऊ के हैं. पुलिस अधिकारियों ने सस्पेंड किए गए पुलिसकर्मियों को दागी बताया है. दागी पुलिसकर्मियों को निलंबित करने का फैसला शिखर स्तर से लिया गया. यानी पुलिस महकमे को दीमक खा रही है.

बेशक झारखंड और सहारनुपर जैसी घटनाएं नहीं होनी चाहिए. इस लिहाज से पुलिस को अधिक चुस्त होना पड़ेगा. अगर कानून की रक्षा करने वाले पुलिसकर्मी ही अपराधियों से हारने लगेंगे या दागी होने लगेंगे तो फिर देश के सामान्य नागरिक का क्या होगा? उसे कौन बचाएगा? एक बात और पुलिस वालों की हत्या का तो नोटिस ले लिया जाता है. मीडिया में खबरें दिखा दी जाती हैं या छप जाती हैं. पर पुलिसवालों के साथ अब लगातार मारपीट भी हो ही है. झारखंड में ही देख लीजिए. वहां पर उसे आदिवासियों की भीड़ ने भी मारा और फिर एक वर्ग विशेष से जुड़े नौजवानों ने भी अपना निशाना बनाया. ये बेहद गंभीर ट्रेंड है. इसी तरह से पिछले साल 14 मई को पंजाब के बटाला शहर में भीड़ ने एक सब इंसपेक्टर को खंभे से बांध कर पीटा. दरअसल एक हादसे में युवक की मौत हो जाने के बाद भीड़ का गुस्सा पुलिस वाले पर टूट पड़ा. भीड़ ने उस पर आरोपी ड्राइवर को भगाने का आरोप लगाया. बाद में वहां पहुंची पुलिस ने किसी तरह सब-इंसपेक्टर को भीड़ के चंगुल से छुड़ाया.

कोई ये नहीं कह रहा कि सारे पुलिसकर्मी दूध के धूले हैं. अनेक पुलिसकर्मियों पर अलग-अलग तरह के आरोप तो लगते ही रहते हैं. मसला यह है कि जनता को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार किसने दिया ? अगर किसी ने अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी, और होती भी है. एक और उदाहरण लीजिए. पिछले साल 29 सितंबर को पटना में जूनियर डॉक्टरों ने एक पुलिसवाले को जमकर पीटा. दरअसल, पटना आईजीएमएस में तैनात सिपाही अनिल कुमार ने बिना हेलमेट के बाइक पर जा रहे एक जूनियर डॉक्टर को रोका तो दर्जनों डाक्टर उस पुलिसकर्मी पर टूट पड़े.

doctor beat police in biharपुलिसवाले की पिटाई करते जूनियर डॉक्टर

साफ है कि देशभर में कमोबेश कानून व्यवस्था के हालात खराब होते जा रहे हैं. अपराधियों के दिलों-दिमाग में पुलिस का भय फिर से पैदा करने के लिए जरूरी है कि सर्वप्रथम सभी राज्यों में पुलिस के रिक्त पद भरे जाएं. पुलिस वालों की ड्यूटी का टाइम तय हो. आबादी और पुलिसकर्मियों का अनुपात तय हो. हर हालत में गुंडे और मवालियों पर भारी पड़नी चाहिए पुलिस, तब ही देश में पुलिस का भय रहेगा और जनता पुलिस की आभारी होगी.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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