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Updated: 01 नवम्बर, 2015 04:54 PM
विनीत कुमार
विनीत कुमार
  @vineet.dubey.98
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हम ऐसे दौर में हैं जहां विस्थापित होना सामान्य और एक आर्थिक प्रकिया है. लाखों लोग रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश में शहर-दर-शहर भटक रहे हैं. यह प्रवासी जिंदगी हमने अपनी इच्छा के अनुसार अपनाई. लेकिन कश्मीरी पंडित जो आज दिल्ली सहित हिंदुस्तान या धरती के किसी और कोने में बसे हैं, उन्हें आप क्या कहेंगे प्रवासी या शरणार्थी. बेहतर शब्द हम सभी समझते हैं. कश्मीर पिछले 68 वर्षों से हर चुनाव, हर बहस का मुद्दा बनता रहा है लेकिन कश्मीरी पंडितों की चर्चा कम ही होती है.

उनके फिर से बसाने को लेकर कई योजनाएं बनीं. तमाम सरकारें दावें करती रही, पैकेज दिए गए लेकिन नतीजा क्या निकला, इसकी कलई खुल गई है. दरअसल करोड़ो रुपये, कई सरकारी स्कीम और 25 वर्षों का लंबे अर्से के बावजूद आजाद भारत के सबसे बड़े विस्थापन का दाग हमारे माथे से नहीं मिटा सका है. 90 के दशक में जब आतंकवाद घाटी में तेजी से उभरा तो 4 लाख से ऊपर कश्मीरी पंडितो को अपना घर-बार छोड़ भागना पड़ा था. इसके बाद से ही विभिन्न सरकारें इनकी वापसी की कोशिश के बड़े-बड़े दावे करती रही हैं. नरेंद्र मोदी भी इसे अपनी प्रथमिकता बता चुके हैं. लेकिन आलम देखिए तमाम कोशिशों के बीच इन वर्षों में केवल एक परिवार घाटी में लौटा है.

यह बात कोई और नहीं कह रहा बल्कि स्वयं जम्मू-कश्मीर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताई है. सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ. जबकि पहले की कोशिशों से इतर मनमोहम सिंह सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 1600 करोड़ रुपये के पैकेज को मंजूरी दी. सरकारी विभागों में कश्मीरी पंडितों के लिए अतिरिक्त 3000 पदें मुहैया कराई गईं. इसके अलावा घर लौटने को इच्छुक कश्मीरी पंडितों से आवेदन मंगाए गए और 6510 आवेदन प्राप्त भी हुए. कश्मीरी पंडितों के लिए अलग ट्रांजिट सिटी बनाने की बात हुई. लेकिन लौटा केवल एक परिवार.

ऐसा नहीं है केवल डर इसका एकमात्र कारण है. राज्य सरकार इसके लिए कितनी गंभीर है और केंद्र कैसे इसमें अपनी भूमिका निभा रहा है, यह भी महत्वपूर्ण है. राज्य सरकार ने कोर्ट के सामने माना कि कश्मीरी पंडितों की जो प्रोपर्टी उनके जाने के बाद अन्य लोगों द्वारा बेची गई, उसे गैरकानूनी घोषित करने को लोकर उसने कोई कदम नहीं उठाए हैं. जमीनी स्तर पर भी बहुत कुछ खास नहीं किया गया. विस्थापित परिवारों के बीच वह आत्मविश्वास पैदा ही नहीं हो सका कि वापस जाने पर 19 जनवरी की रात वाले हालात दोबारा पैदा नहीं होंगे.

जरा सोचिए, रातों-रात जिन लोगों को अपना मकान, अपना मोहल्ला, अपने खेत, अपने लोग, अपना मंदिर सबकुछ छोड़ कर भागना पड़ा, उनके दिल पर क्या तब क्या बिता होगा. 1990 के बाद से एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है. लेकिन वे अब भी अपने उस असल वजूद की ओर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. सरकार केवल अपनी योजनाओं के बल पर इन्हें लौटाने में कामयाब होगी, ऐसा संभव नहीं है. जो दरार उस दौर में दो समाजों के बीच डाली गई उसे भरने की जरूरत है. और जो लोग ऐसा करने में कामयाब रहे, उनकी गर्दन दबोचने की भी. क्योंकि बड़ा मसला सुरक्षा ही है.

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लेखक

विनीत कुमार विनीत कुमार @vineet.dubey.98

लेखक आईचौक.इन में सीनियर सब एडिटर हैं.

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