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Updated: 26 मार्च, 2016 04:09 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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भारतीय कानून व्यवस्था के तहत, तलाक के बाद महिला को पति द्वारा गुजारा भत्ता दिया जाता है, जिससे आर्थिक रूप से महिला की मदद हो सके. लेकिन हाल ही के एक मामले में कोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया जो तलाकशुदा महिला को दिए जाने वाले गुजारा भत्ते की सहूलियत पर बहस छेड़ने का दम रखता है.

गुजारा भत्ते पर सुनाया अनोखा फैसला-

दिल्ली की एक महिला अपने पति से अलग हो गई, जिसपर ट्रायल कोर्ट ने 12,000 रुपए गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था. लेकिन महिला के पति ने इस आदेश को चुनौती देते हुए याचिका लगाई कि उसकी पत्नी को आर्थिक मदद की जरूरत नहीं है, क्योंकि पत्नी एमएससी गोल्ड मेडलिस्ट है और उससे ज्यादा पढ़ी लिखी है. इसके बावजूद महिला ने कहीं भी जॉब के लिए एप्लाई नहीं किया है और घर पर खाली रहकर वो उसपर आर्थिक बोझ डाल रही है.

इस याचिका पर जज ने महिला से कहा कि वो पति पर बोझ बनने के बजाय खुद नौकरी ढ़ूंढ़े, क्योंकि वो अपने पति से ज्यादा पढ़ी लिखी है और नौकरी करने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम भी है.

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पर खुद को अबला मान बैठी इस महिला ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि इससे पहले उसने कभी नौकरी नहीं की, और न कभी अकेले सफर किया है, ऐसे में उसे कैसे नौकरी मिल सकती है. इसपर जज ने कहा कि अगर वो अकेले कोर्ट तक आ सकती हैं तो अकेले नौकरी भी ढ़ूंढ सकती हैं. फिर भी जज के आदेश पर पति महिला की नौकरी ढ़ूंढने में मदद करने और एक साल तक महिला को 12000 रुपए गुजारा भत्ता देने पर राजी हो गया. 

ये भत्ता भी आरक्षण से कम नहीं

अब देखा जाये तो इस समय जब आरक्षण को लेकर देश के तमाम बुद्धिजीवी, राजनैतिक दल और अधिकांश वर्ग एक दूसरे से रार ठानकर बैठे हैं, जब आरक्षण की मांग को लेकर एक पूरे शहर की जीवनरेखा थम गई, ऐसे में कोर्ट का ये फैसला समाज के सामने एक सवाल खड़ा करता है कि आखिर आरक्षण या भत्ता चाहिए ही क्यों? अगर आप आर्थिक रूप से सक्षम हैं, पढ़े-लिखे हैं तो फिर आरक्षण की जरूरत क्या है. जाति या फिर लिंग के आधार पर खुद को कमतर या असहाय समझना, सिर्फ दिखावा है. ये एक धोखा है जो व्यक्ति खुद को ही दे रहा है. आरक्षण या भत्ता उन्हीं के हिस्से में आए जो वास्तव में इसके हकदार हैं. 

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ठीक उसी तरह अगर महिला अच्छी खासी पढ़ी-लिखी है, और खुद को असहाय समझती है तो असहाय उसकी सोच है, वो खुद नहीं. उसे गुजारा भत्ता क्यों दिया जाए? वैसे भी जब एक महिला अपने पति से अलग होकर जीवन जीने का निर्णय लेती है, तो जीवन जीने के लिए उसे पति के दिए पैसों की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

अदालत का ये फैसला पहली नजर में कठोर जरूर लगता है लेकिन ये एक नज़ीर पेश करता है कि आरक्षण की बैसाखी एक बारगी तो सहारा दे सकती है लेकिन स्वावलंबन किसी भी तरह के आरक्षण से बेहतर है. ये फैसला उस सुनार की मानिंद है जो सोने को तपाकर खरा बनाने की कोशिश कर रहा है. आखिर महिलाओं की लड़ाई शुरू से अबला से सबला बनने की रही है, और महिला अधिकार उन्हें सबला बनाने के लिए हैं, अबला नहीं.

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यहां ये जानना भी जरूरी है कि ये फैसला सुनाने वाली भी खुद एक महिला हैं. जिन्होंने आरक्षण की भीख मांगने वालों के सामने अपने फैसले के जरिए एक मिसाल पेश की है.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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