इसलिए भारत में भी मनना चाहिए No Bra Day
ये अभियान इसलिए नहीं है कि ब्रा मत पहनो, बल्कि इसका उद्देश्य ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरुकता पैदा करना है.
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एक दोस्त ने फेसबुक पेज का लिंक शेयर करते हुए पूछा- क्या तुम्हें पता है कि 13 अक्टूबर को इंटरनेश्नल 'नो ब्रा डे' है. मैंने माना कि इस अभियान के बारे में मैंने पहले नहीं सुना था.
मैं पिछले एक महीने से बीमार होने के कारण अपने ब्रेस्टों के आकार और वो कैसे दिखते हैं, सही ब्रा पहनी है कि नहीं, वो कसी हुई है या फिर ढीली है, वो टी-शर्ट ब्रा है, अंडर वायर्ड है या फिर पैडेड है, इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे सकी.
और स्पष्ट कहूं तो मैं अकसर ब्रा पहनती ही नहीं, ऐसा करके मुझे स्वतंत्र महसूस होने के साथ-साथ ये भी लगता है कि मेरे ब्रेस्ट कितने सामान्य हैं. 40 की उम्र से तीन साल पहले, मैं महिलाओं में होने वाली उस कॉम्प्लेक्स भावना से धीरे-धीरे बाहर आ रही हूं, वो भावना, जब उसे महावारी शुरू होती है और उसके ब्रेस्ट आकार लेने लगते हैं, वो भावना जब हम अपने आप से पूछते हैं - क्या मेरे ब्रेस्ट वाकई सुंदर हैं? मेरे ब्रेस्ट मेरा हिस्सा हैं. शायद वो सबसे अच्छे तो नहीं हैं. वो वैसे तो नहीं हैं, जैसे चमकदार फैशन मैगजीन में दिखाए जाते हैं, फिल्मों के सेक्स सीन में दिखाए जाते हैं, या फिर पोर्न वीडियो में दिखाए जाते हैं, लेकिन फिर भी अच्छे हैं. और स्पष्ट रूप से औसत से तो ऊपर ही हैं.
एक उद्देश्य के लिए
इंटरनेश्नल नो ब्रा डे के फेसबुक पेज पर एक पोस्ट है, जिसमें कहा गया है कि 'ब्रेस्ट अद्भुत होते हैं... हम सभी ऐसा सोचते हैं. इसे अभिव्यक्त करने का इससे अच्छा तरीका भला क्या हो सकता है कि एक पूरा दिन ब्रेस्टों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाए. महिलाएं अद्भुत प्राणी होती हैं और ब्रेस्ट उनके शरीर का एक अहम हिस्सा. हमें एक दिन अपने ब्रेस्ट को उनके पिंजरे से बाहर निकाल कर बिताना चाहिए. तो बहनों, 24 घंटों के लिए अपने ब्रेस्ट को ब्रा से आजाद कर दो. हमारी खुशमिजाजी छुपनी नहीं चाहिए. यही वो समय है जब दुनिया देखे कि हमें किससे नवाजा गया है. आपके ब्रेस्ट जैसे भी हों... उन्हें आजाद कर दो.
ये अभियान इसलिए नहीं है कि ब्रा मत पहनो, बल्कि इसका उद्देश्य ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरुकता पैदा करना है. एक दशक पहले, ब्रेस्ट कैंसर के मामले मुंह के कैंसर से भी ज्यादा थे, जिसमें भारत दुनिया भर में पहले स्थान पर था, और यह देश का सबसे तेजी से बढ़ने वाला घातक रोग बनता जा रहा है.
बोस्टन के हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के अनुसार, 2012 से 2030 तक भारत को ब्रेस्ट कैंसर पर 20 अरब डॉलर खर्च करने की जरूरत है. breastcancerindia.net के हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर होने की आयु वर्ग में भी बदलाव हुए हैं.
25 साल पहले तक ब्रेस्ट कैंसर के हर 100 पीड़ितों में से दो महिलाएं 20 से 30 आयु वर्ग से, सात 30 से 40 आयु वर्ग से जबकि 69 महिलाएं 50 वर्ष से ऊपर की होती थीं. वर्तमान में 20 से 30 आयु वर्ग से चार महिलाएं, 30 से 40 आयु वर्ग से 16 जबकि 40 से 50 आयु वर्ग की 28 महिलाएं पीड़ित हैं.
तो इस तरह से लगभग 48 फीसदी पीड़ित महिलाएं 50 वर्ष से कम की हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार ब्रेस्ट कैंसर का मुख्य कारण है - बच्चे नहीं पैदा करना, काफी उम्र में बच्चे पैदा करना, ब्रेस्टपान नहीं कराना, वजन में अत्यधिक वृद्धि और अक्सर शराब का सेवन करना - ऐसी लाइफ स्टाइल, जो पश्चिमी देशों में ज्यादा आम हैं.
भारत में, इन संभावित कारणों के बहुत कम होने और कुछ मामलों में तो नगण्य होने के बावजूद हर साल ब्रेस्ट कैंसर के 1.3 लाख नए मामले सामने आते हैं. एक दशक पहले तक यह आंकड़ा 54,000 था.
चिंता का विषय
क्या ब्रेस्ट कैंसर होने का मतलब मुख्य रूप से यही है कि कोई औरत अब अपने शरीर के इस महत्वपूर्ण अंग को खो देगी - ब्रेस्ट, शरीर का एक ऐसा भाग, जिसे अक्सर नारीत्व के सिंबल के रूप में देखा जाता है. कई कलाकार और मूर्ति बनाने वाले इसे खास तौर से प्रदर्शित करते हैं. इसे महिला शरीर की आतंरिक खूबसूरती के तौर पर भी देखा जाता है और माना जाता है कि पुरुषों के लिए महिला शरीर का यह भाग आकर्षण का सबसे बड़ा कारण होता है.
मातृत्व को दर्शाने की सबसे लोकप्रिय छवि भी यही है... जब एक बच्चा अपने मां के ब्रेस्ट से दूध पीता है. यह ऐसा भाग है, जिसके बिना हमारा स्त्री होना अधूरा है. नाकाफी है. नीरस है.
लेकिन ऐसा क्यों है कि अपने ही शरीर के बारे में बात करना या मैमोग्राम करवाना भी हमें शर्मनाक लगता है. खुद को भी छूने से हम कतराते हैं या किसी डॉक्टर (जिसके बारे में यही समझा जाता है कि वह एक अनजान पुरुष है) से उसकी जांच करवाने से भी हम बचते हैं. इसका कारण वे पुरानी मान्यताएं और टैबू हैं जो कहीं न कहीं हमारे ही परिवार ने हम पर थोपे हैं. ऐसा क्यों है कि ब्रेस्ट को हटा देने (मैस्टेकटोमी) को हमारे नारीत्व से जोड़ कर देखा जाने लगता है. भारतीय अस्पतालों में निजता की कमी भी इस समस्या को और बढ़ाती है. मेरा मतलब उन सारी मान्यताओं से है, जो एक महिला के ब्रेस्टों को लेकर गढ़ी गई हैं.
आप खुद से पूछिए... आखिरी बार आपने बेडरूम में खुद को अकेले कब गौर से शीशे में निहारा है. अपने ब्रेस्टों को ध्यान से देखा है, उन्हें छुआ है... अपने हाथों को सिर के ऊपर उठा कर ब्रेस्टों के नीचे झांकने की कोशिश की है? आप ने कब इस डर को किसी से साझा किया है कि आप अपने ब्रेस्टों को पहले से ज्यादा भारी महसूस कर रही हैं? ऐसे किसी संदेह के होने पर आपने खुद से कब कहा कि उस पर ध्यान देने की जरूरत है. जरूरी नहीं कि एक महिला होने के नाते आप हमेशा पहले अपने परिवार का ही हित देखें, बल्कि खुद के स्वास्थ्य की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है.
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि ब्रेस्ट कैंसर के खिलाफ जंग को हम केवल फैशनेबल कैंपेन तक ही न रहने दें? इसकी बात केवल पांच सितारा होटलों में फिल्मी सितारों और पेज-3 के लोगों तक ही सीमित न हो और हम इस बीमारी पर साल में केवल एक दिन ही बात न करें. क्या जरूरी नहीं कि हम नजरिया बदलें और अपने शरीर के साथ भी आंतरिक संवाद करें. निर्वस्त्र होना शर्म है या ये आपको चौंकाता है? कैंसर आपकी पिछली जिंदगी के खराब कर्मों का फल नहीं है... और यह भी जरूरी नहीं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक होते हुए ये आपकी बेटी को भी हो जाए. यह अनुवांशिक नहीं है और अगर इस बीमारी का पता शुरुआती चरण में होता है तो इलाज संभव है. ब्रेस्ट कैंसर होने के पांच साल बाद भी 80 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं जिंदा हैं. 1960 में यह आंकड़ा 64 फीसदी तक सीमित था. अगर इस बीमारी का पता शुरुआती चरण में ही लगा लिया जाए तो यह आंकड़ा बढ़ कर 96 फीसदी तक जा सकता है.
ब्रेस्ट को सेक्सुअल रूप में देखने से ज्यादा जरूरी किसी का जीवित रहना है. मैं इंटरनेशनल नो ब्रा डे मनाना चाहती हूं और आपको भी ऐसा ही करना चाहिए.
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