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Updated: 10 अप्रिल, 2016 06:07 PM
सिद्धार्थ झा
सिद्धार्थ झा
  @sidharath.jha
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समाज का किन्तु परन्तु और सहमति असहमति अपनी जगह पर हो सकता है लेकिन चैत्र नवरात्र के पहले दिन शनि शिगनापुर मंदिर में महिलाओ का प्रवेश करने वाली खबर दिल को सकून देती है. 400 वर्षों से चली आ रही प्रथा को तोड़ने के लिए जिस प्रकार से महिलाएं लामबंद हुई और जीत हासिल की ये देखना दिलचस्प लगता है. आदर्श स्थिति तो ये होती की समाज और मंदिर प्रशासन अपने स्तर पर ही उनको ये हक दे देता लेकिन अगर उसमे कोई कमी थी तो राज्य प्रशासन को दरियादिली दिखाते हुए हस्तक्षेप करना चाहिए था.

लेकिन संभवत धर्म और प्रभावशाली लोगों के दबाव में वो ऐसा नही कर पाए और भूमाता ब्रिगेड को मुम्बई हाइकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा. अंत में पहली अप्रैल को कोर्ट को ये आदेश देना पड़ा क्योंकि हमारा संविधान ऐसे किसी भी परंपरा कानून या प्रथा को खारिज करते हुए सबको समानता का हक देता है. हालांकि मंदिर प्रशासन और गांव वालों का हठ अब भी बरकरार है. याद कीजिए कुछ समय पहले तक जब मंदिरो में दलितों के प्रवेश पर मनाही थी तब भी इस तरह की कुप्रथाओ का हवाला दिया गया था तब भी कई आंदोलन हुए और सरकार और अदालतों को आगे आना पड़ा.

और आज स्थिति ये है देश के कई मंदिरो के पुजारी भी दलित हैं. दक्षिण भारत में ऐसे मंदिरो की भरमार है यानी समाज ने भी अपनी सहमति की मुहर लगा दी है. कुछ लोगो के तर्क हो सकते है की धर्म आस्था और विश्वास का प्रतीक है इसलिए इनकी परम्पराओं का निर्वाह करना जरूरी है. लेकिन अगर हम देखें तो किसी भी धर्म की शुरुआत में जितने सरल नियम या कर्मकाण्ड होते है वो समय के साथ बढ़ते-बढ़ते आडम्बर का रूप ले लेते हैं और फिर हम उनके रिवाजों का हवाला देते हुए जारी रखना चाहते है.

अगर आप ईश्वर में विश्वास रखते हैं तो हमें ये बात भी समझनी होगी की भगवान की नजर में हम सब बराबर हैं. स्त्री पुरुष जीव-जंतु हम सब. ऐसे में इस प्रकार का विभेद हमारी आपकी श्रद्धा को कम कर सकता है. वैसे भी हिन्दू धर्म सनातनी परम्पराओ में विश्वास करता है जिसमे स्थान समय और समाज के अनुसार निरंतर परिवर्तनों के दौर से गुज़रा है. ऐसा नही है कि शनि शिंगणापुर ट्रस्ट भी जड़ है या परम्पराओ से बंधा है. हाल ही में दो महिला ट्रस्टियों का चयन इस बात का संकेत देता है की वो धर्मभीरू नही है. महिला पुरुष में अंतर नही करता है. हिंदुत्व का आधार ही अर्द्धनारीश्वर के सिद्धांत पर टिका हुआ है.

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अहमदनगर स्थित शनि शिंगणापुर मंंदिर का द्वार महिलाओं के लिए खोले जाने के बाद भूमाता ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई शनि भगवान की मूर्ति पर तेल चढ़ाते हुए

नारियां अपना हक लेना जानती हैं. उन्हें अपने पैरोकारी करने वालों की जरूरत नही है. लेकिन मुझे इस बात से आपत्ति है कुछ लोग स्त्रियों के मंदिर में प्रवेश को बराबरी का हक दिए जाने से जोड़ रहे है हो सकता है की प्रतीकात्मक रूप से आप ऐसा विचार अंगीकार कर सकते हैं. लेकिन अगर सात्विक मन से मंथन करें तो इस तरह की सोच नाकाफी है क्योंकि जब हम महिलाओं की बात करते है तब हम मीलों दूर बैठी किसी अनजान की बात नही कर रहे बल्कि अपने घर परिवार मोहल्ले की महिलाओ की नजर से देखना होगा कि हमारा दृष्टिकोण क्या है.

अगर आप मंदिर में प्रवेश की इजाजत न देते तो हो सकता है. महिलाएं उस धर्म को खारिज कर देतीं और किसी एक भी महिला का ऐसा करना उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी धर्म से विमुख कर सकता था. क्या हिंदुत्व इतना बड़ा नुकसान झेल पाता? शायद नही.

अभी भी देश में कई ऐसे मंदिर है जहां महिलाओं के प्रवेश की इजाजत नही है. उम्मीद है महिलाएं अपनी चुप्पी एक दिन वहां भी तोड़ेंगी. सबरीमाला, भगवान अय्यपा का मंदिर, असम का पतबोसि, पुष्कर का मंदिर और ऐसे तमाम मंदिर जहां आज भी इस तरह का भेदभाव है, उम्मीद करनी चाहिए आने वाले दस पंद्रह वर्षों बाद ऐसी खबरें अतीत का हिस्सा होंगी. आज भी ऐसी बहुत सी परम्पराएं हैं जिनका वो चुपचाप निर्वाह कर रही हैं. मगर हालात बदल रहे हैं. हाल ही में वृन्दावन की विधवा महिलाओं ने जमकर होली खेली और सदियों पुरानी दकियानूसी परम्परा को सिरे से खारिज भी किया.

उम्मीद है शनि शिंगणापुर मंदिर में मिली पूजा की इजाजत अन्य धार्मिक स्थलो को भी महिलाओं के लिए खोलने की बहस का रास्ता तो खोलता ही है और उम्मीद की जानी चाहिए, वो माहिलाएं उन सभी मुद्दों पर अपनी चुप्पी तोड़ेंगी जो महिला-पुरुष की बराबरी की राह में रोड़ा बनी हुई हैं.

लेखक

सिद्धार्थ झा सिद्धार्थ झा @sidharath.jha

स्वतंत्र लेखक और लोकसभा टीवी में प्रोड्यूसर

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