सुन लीजिए, कमाऊ बहू दहेज का दूसरा ऑप्शन नहीं है...
बेटे की शादी के लिए घरवाले जब लड़की देखने जाते हैं तो पूछते हैं कि लड़की क्या करती है? कितना पढ़ी लिखी है. सिंपल बीए किया है या कोई प्रोफेशनल कोर्स किया है. हमें लड़की के बाहर काम करने से कोई परेशानी नहीं है. असल में उन्हें ऐसी बहू चाहिए होती है जो शादी के बाद अपनी सैलरी लाकर उनके हाथों में रख दे.
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वह जमाना शायद बीत गया जब लोगों को बहू (Daughter in law) के रूप में घरेलू लड़की चाहिए होती थी. आजकल कमाऊ बहुओं का जमाना है. ऐसे लोगों का कामकाजी से मतलब उस लड़की से है जो बाहर काम करके पैसे भी कमाती हो और घर पर रसोई में स्वादिष्ट खाना भी बनाती हो. लड़के भी ऐसी लड़की को तवज्जो देते हैं जिसने प्रोफेशलन कोर्स किया हो या नौकरी करती हो.
हमारे समाज में दहेज प्रथा को कबका खत्म कर दिया है मगर यह किसी ना किसी रूप में अभी भी हमारे बीच ही बना हुआ है. कभी परंपरा तो कभी गिफ्ट के नाम पर बेटी के साथ दहेज देना पिता का फर्ज है. शादी दूल्हा-दुल्हन दोनों की होती है मगर बेटी के भविष्य की चिंता सिर्फ लड़की के पिता की होती है.
कई बार तो यह कह दिया जाता है कि हमें तो कुछ नहीं चाहिए, आपको जो देना है अपनी बेटी के नाम पर दे दीजिए. हमारे पास तो सब है आप चाहें तो बेटी और दामाद के नाम पर एफडी कर दीजिए. हमें कोई लालच नहीं है यह तो बच्चों के भविष्य की बात है. सोचिए यह चिंता लड़के के परिवार वालों को क्यों नहीं रहती? सारा खर्च, सारा बोझ बेटी के पिता के माथे क्यों रहे?
हमारे समाज में देहज प्रथा को कबका खत्म कर दिया है मगर यह किसी ना किसी रूप में अभी भी हमारे बीच ही बना हुआ है
आजकल लोग जब बेटे की शादी के लिए लड़की देखने जाते हैं तो पूछते हैं कि लड़की कमाऊ है? असल में उन्हें ऐसी बहू चाहिए होती है जो शादी के बाद अपनी सैलरी लाकर उनके हाथों में रख दे. वह शादी के बाद अपने मायके पैसे ना दे. वे बहू को पैसे कमाने वाली मशीन समझते हैं.
बहू बाहर जाती है काम करती है मगर वह अपनी ही सैलरी पर उसका कोई अधिकार नहीं होता है. वे चाहते हैं कि बहू अच्छा पैसे कमाने वाली होनी चाहिए वरना 10 हजार की सैलरी में तो पॉकेट मनी का खर्चा ही नहीं निकलना, फिर घर खर्च चलाना तो बहुत बड़ी बात है.
कमाने वाली बहू को शोषण किया जाता है. वह ससुराल वालों की जरूरतें पूरी करने में रह जाती है. इस तरह वह फाइनेंसली डिपैंड नहीं हो पाती है. वह ना पैसे बचा पाती है ना अपने पैसों को अपने ऊपर खर्च कर पाती है. अगर वह अपने लिए कुछ करती है तो उसे खर्चीली बहू का टैग दे दिया जाता है. कहने का मतलब यह है कि बहू पर इनडायरेक्टली रूप से यह दबाव बनाया जाता है कि वह अपनी सैलरी का फैसला परिवार वालों को करने दे. परिवार के लोग भी कमाऊ महिला से कोई ना कोई डिमांड करते रहते हैं. वह ससुराल वालों को संकोच के कारण कुछ बोल नहीं पाती है और काम करने की आजादी के नाम पर उसका शोषण होता रहता है. ससुराल वालों के लिए बहू का पैसा दहेज का एक रूप बन जाता है. उन्हें लगता है कि कमाऊ बहू के पैसे पर उनका पूरा हक है. इसलिए तो जब वह अपने माता-पिता के लिए कुछ करती है तो ससुराल वालों को अच्छा नहीं लगता है. वह महिला अपने ही पैसे से जुड़ा निर्णय नहीं ले पाती है.
ससुराल वालों को लगता है कि बहू को नौकरी करने दे रहे हैं तो कोई बड़ा एहसान कर रहे हैं, अब उसे पैसे तो हमें देने ही पड़ेंगे. इस महिलाएं काम करते हुए भी सशक्त नहीं बन पाती हैं. जो लड़कियां शादी के बाद अपने माता-पिता की जिम्मेदारी लेना चाहती हैं, उनके सिर ससुराल का इतना बोझ औऱ दबाव बना दिया जाता है कि वे अपने फैसले से पीछे हट जाती हैं.
समाज के लोगों को समझना होगा कि महिलाएं फाइनेंस से जुड़े फैसले ले सकती हैं और यह उनका अधिकार है. आखिर एक महिला बिना किसी शर्त और नियम के क्यों कमा नहीं सकती? क्या महिलाओं को घर से बाहर निकलकर काम करने के लिए बदले में पैसे देने पड़ेंगे? क्या यह उनको मिलने वाली आजादी की कीमत है? अगर किसी भी घर में महिलाएं अपना वेतन ससुराल वालों के हिसाब से खर्च करती हैं तो यह गलत है. एक तरह से यह दहेज का दूसरा रूप है. आखिर महिला अपनी पूरी कमाई किसी और को क्यों दे? इस हिसाब से तो महिलाएं सशक्त बन चुकीं...शायद भारतीय महिलाओं के लिए करियर कोई विकल्प नहीं होता. यह सिर्फ पैसा कमाने का जरिया होता है. ससुराल वाले चाहते हैं कि वह नौकरी इसलिए करे ताकि घऱ में दो पैसे आ सकें.
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