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Updated: 30 जुलाई, 2022 11:27 PM
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साल 2020 में लगभग चार महीनों के सख्त देशव्यापी लॉकडाउन के बावजूद देश मे 59,262 बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज किए गए. इनमें से 77% मामले बच्चियों के गुमशुदगी के थे. लॉकडाउन के चलते हो रही सख्त निगरानी और कोविड-19 के डर के बावजूद देश मे बच्चों के गुमशुदगी और उससे जुड़े बाल तस्करी के मामलों में कोई खास गिरावट नही देखी गयी. बल्कि, बच्चियों के गुमशुदगी के मामलों में वृद्धि दर्ज की गयी.

कहीं बेरोजगारी एवं आजीविका के नुकसान की वजह से परिवार मे हो रही आर्थिक तंगी के चलते बच्चों को बाल मजदूरी और बाल तस्करी का शिकार होना पड़ा. तो, दूसरी तरफ लॉकडाउन के दौरान बंद घरों के अंदर हो रही हिंसा, यौन शोषण से परेशान होकर भागे बच्चे बाल तस्करों का आसान निशाना बन गए. वहीं, महीनों तक बंद रहे स्कूलों ने बच्चों से उनकी अभिव्यक्ति का एक सुरक्षित ठिकाना भी छीन लिया.

World Day against Trafficking in Person Child Trafficking epidemic भारत में सख्त लॉकडाउन के दौरान भी बाल तस्करी के आंकड़ों में कोई कमी नही आई है.

उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में बच्चों के लिए काम करने वाली गैर-सरकारी संस्थाओं के अनुभवों के अनुसार महामारी ने तस्करों को बाल तस्करी का आसान मौका दिया. जहां वह लोग आर्थिक तंगी से प्रभावित परिवारों को नौकरी का लालच दिखाकर उनके बच्चों को बहला-फुसला कर ले गए. कई ऐसे भी मामले सामने आए जहां कर्ज चुकाने के दबाव के चलते परिवारों ने अपने बच्चों को मजदूरी, बाल विवाह और देह व्यापार मे धकेल दिया.

क्राई द्वारा उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों मे गुमशुदा बच्चों की स्थिति पर पिछले 10 वर्षो से सालाना एक रिपोर्ट जारी की जा रही है. इस वर्ष जारी की गयी रिपोर्ट मे गुमशुदा बच्चों की स्थिति मे खासा सुधार नहीं देखा गया है. इस साल की रिपोर्ट दर्शाती है कि महामारी के चलते कई तरह की पाबंदियों और सख्त निगरानी के बावजूद बच्चों की गुमशुदगी के आंकड़े कम होने के बजाए बढ़े ही है. रिपोर्ट के अनुसार, साल 2021 में मध्य प्रदेश में लापता बच्चों का आंकड़ा 8751 से बढ़कर 10648 हो गया. वहीं, राजस्थान मे यह आंकड़ा 3179 से बढ़कर 5354 दर्ज किया गया. उत्तर प्रदेश के 75 में से 58 जिलों में पिछले साल 2,998 बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज की गयी. दिल्ली के 8 जिलों मे यह आंकड़ा 1641 दर्ज किया गया.

यह बेहद दुख का विषय है कि आधुनिकीकरण और तकनीकी क्षेत्र मे निरंतर विकास के बावजूद हम आज भी बाल तस्करी के नेटवर्क को नहीं तोड़ पा रहे हैं. एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश में आज भी 108234 बच्चे अनट्रेस्ड यानी लापता की श्रेणी में हैं. यानी देश में एक लाख से भी अधिक बच्चों पर मानव तस्करी का खतरा मंडरा रहा है या फिर यह तस्करी का शिकार हो चुके हैं.

महामारी ने बाल तस्करी के नेटवर्क को तोड़ना और भी चुनोतीपूर्ण बना दिया है. लेकिन जरूरी ये है कि तस्करों के नेटवर्क से लड़ने के लिए हम सिस्टम को और भी मजबूत और प्रगतिशील बनाएं. जहां कोविड के दौरान मास्क के अनिवार्य रूप से इस्तेमाल के कारण तस्करों और अपहरणकर्ताओं को पहचान पाना और चुनौतीपूर्ण हो गया है. वहीं, बच्चों के लिए फोन और इंटरनेट की आसान उपलब्धता ने बच्चों तक तस्करों की पहुंच को और आसान बना दिया है.

ऐसे में जरूरी है कि पेशेवर जांच के साथ लॉ इनफोर्समेंट को प्राथमिकता दी जाए और मजबूत बनाया जाए. सभी तस्करों की पहचान कर उनपर कार्यवाही करना भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. यहीं नहीं सोर्स, ट्रांसिट और डेस्टीनेशन के साथ-साथ डिमांड और सप्लाई लिंक को तोड़ने की जरूरत है.

जिस तरह तस्कर नए आधुनिक तरीकों का प्रयोग करने मे सक्षम हैं. उसी प्रकार पुलिस विभाग को भी मानव और वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने के साथ साथ आधुनिक ज्ञान, कौशल, संसाधन और सही दृष्टिकोण के साथ सशक्त होने की आवश्यकता है.

ट्रेस्ड बच्चों का पुनर्वास बेहद ज़रूरी

बनारस की रहने वाली बबली (परिवर्तित नाम) जब 17 वर्ष की थी. तब उसके एक रिश्तेदार ने उसके खाने मे कुछ नशीला पदार्थ मिलकर उसे पड़ोसी राज्य मे बेच दिया. तकरीबन 23 दिन बाद किसी न किसी तरह से बबली ने अपने परिवार से संपर्क करा. परिवार ने पुलिस की मदद से बबली को छुड़वाया और वापिस लेकर आए. जहां बबली के परिवार को एक तरफ पुलिस मे शिकायत दर्ज करवाने मे कई दिन लग गए. वहीं बबली के परिवार के ऊपर कई तरह का सामाजिक दबाव बनाया गया. बबली के परिवार वालों ने भी एक एक कर उसका साथ छोड़ दिया. इस हादसे से जूझ रही बबली ने हिम्मत नहीं हारी और केस दर्ज करवाया. इस दौरान बबली को परामर्श और पुनर्वास सहायता की बहुत ज़रूरत थी. लेकिन, इस तरह की कोई सहायता उसे नहीं प्रदान की गयी. बनारस में काम करने वाली क्राई की एक सहयोगी संस्था शंभुनाथ रिसर्च फाउंडेशन ने बबली के पुनर्वास का बेड़ा उठाया और उसकी पढ़ाई भी पूरी करवाई.

हमने इस वर्ष बबली जैसे कई बच्चों से बातचीत कर उनके अनुभवों को एक पुस्तक मे दर्ज किया. और, यह पाया कि बबली जैसी तकरीबन हर लड़की जो तस्करी का शिकार होती है. उसे और उसके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामने करना पड़ता है. तस्करी और कई बार योण शोषण का भी शिकार हुई इन बच्चियों को इतनी प्रताड़ना झेलने के बावजूद किसी भी तरह की परामर्श सेवा या पुनर्वास सेवा प्रदान नहीं की जाती है. बल्कि, कानूनी कार्रवाई के लिए धक्के खाने पड़ते हैं.

केवल बच्चियां ही नहीं ट्रेस होकर घर वापस आए लड़कों का पुनर्वास भी एक गंभीर मुद्दा है. परामर्श और सही पुनर्वास के अभाव मे ऐसे लड़के अधिकतर सामान्य जीवन नहीं जी पाते हैं. और, किसी न किसी तरह की आपराधिक गतिविधि का शिकार बनते है.

तस्करों पर कार्यवाही, बाल श्रम पर प्रतिबंध

महामारी के बाद बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए तस्करों की पहचान कर उनपर सख्त कार्यवाही करना ज़रूरी है. यही नहीं किसी भी तरह का बाल श्रम चाहे वो गैर खतरनाक या फिर खतरनाक क्ष्रेणी में आता हो पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाना इस जघन्य अपराध को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा. शारीरिक कठिनाइयों के अलावा तस्करी के शिकार बच्चे अवसाद और चिंता से भी पीड़ित होते हैं, उन्हें धूम्रपान, शराब या नशीली दवाओं के दुरुपयोग जैसी विनाशकारी आदतों में धकेल दिया जाता है, जिससे जीवन में आत्मसम्मान की कमी, अवसाद और रिश्ते की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. ऐसे मे यह महत्वपूर्ण है की ट्रेस किए गए बच्चों को शिक्षा, पुनर्वास और सुरक्षा प्रदान कर उन्हे बेहतर भविष्य दिया जाए.

महामारी के चलते बच्चों के जीवन पर पढ़ रहे नकारात्मक प्रभावों ने एक बार फिर यह दर्शाया है कि किसी भी तरह की आपातकालीन स्थिति में हमें बच्चों की प्राथमिकताओं को नहीं भूलना चाहिए. कोविड-19 महामारी जैसी संकट की स्थिति में भी बच्चों को तस्करी, बाल विवाह और देह व्यापार जैसे जघन्य अपराधों से बचाने के लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि उनसे उनकी व्यवस्थाएं और सेवाएं न छीनी जाएं. ताकि देश का भविष्य कहलाने वाले यह बच्चे सस्ते मजदूर मात्र बनकर न रह जाए.

(iChowk.in के लिए यह लेख चाइल्ड राइट्स एंड यू संस्था की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा ने लिखा है)

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