World population day: इंसान बढ़े, इंसानियत घटी
World Population Day पर आज भले ही इंसान (Human ) और इंसानी आबादी (Human Population ) बढ़ रहे हों मगर जब हम इंसानियत (Humanity ) को देखते हैं वो वो लगातार घटती जा रही है और सारी बातें घूम फिर कर पैसे पर आकर रुक गयी हैं.
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इंसानियत (Humanity) खत्म हो रही, क्योंकि इंसान (Human) बढ़ते जा रहे हैं. अर्थशास्त्र (Economics) में एक 'डिमांड एंड सप्लाई' का नियम चलता है. इसका व्यावहारिक अर्थ यही है कि किसी भी चीज का महत्त्व या मूल्य उसकी मांग और उपलब्धता पर निर्भर करेगा. यानी माल कम है, मांग बनी हुई है, तो दाम ज्यादा होगा. सालों पहले मैंने इस नियम का व्यावहारिक निगमन कर लिया था, जिसका पहला पॉइंट यही था कि दुनिया में इंसानियत इसीलिए खत्म होती जा रही है, क्योंकि इंसान बढ़ते जा रहे हैं. और क्योंकि इंसान बढ़ते जा रहे हैं, इसीलिए उनकी कीमत या महत्त्व घटता जा रहा है. ये बढ़ती जा रही आबादी का ही असर है, कि आज इंसान महज आंकड़ा बनकर रह गया है. ज़िन्दगी की जद्दोजहद में अपना अस्तित्त्व बचाये रखना ही अब एक बड़ी चुनौती है. इसी का परिणाम है कि बेतहाशा बढ़ी आबादी जिंदा रहने के संघर्ष में टिड्डों की तरह सब कुछ चट कर डालने पर आमादा है.
इंसानों की वो भीड़ जिसके पास से आज इंसानियत लगभग ख़त्म सी हो गयी है
सुबह होते ही वयस्क टिड्डा घर से तैयार होकर निकलता है. उसका लक्ष्य परिवार के बाकी सदस्यों का पेट भरना रहता है, जिसके लिए वो शाम तक ज्यादा से ज्यादा संसाधन चबा कर घर लौटता है. सुबह झुंड में निकलना, शाम को झुंड में वापस आना. और वापस आकर परिवार के अल्पवयस्क नन्हे टिड्डों को कम समय में ज्यादा से ज्यादा संसाधनों को चट कर जाने की तैयारी करवाना, आइडियाज़ देना. यही उसकी दिनचर्या है. यही उसके जीवन और आगामी पीढ़ियों का दुष्चक्र है.
ये टिड्डावादी मानसिकता असल में बेतहाशा बढ़ी आबादी की ही देन है, जिसने हवा, पानी और धूप जैसी अत्यंत सुलभ चीजों को अलभ्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. सच तो ये है कि संसाधनों का संपत्ति में बदल जाना हमारी सभ्यता की वो त्रासदी है, जिसके दूरगामी परिणाम विकास की हमारी सभी संकल्पनाओं को ध्वस्त कर देंगे. सच तो ये है कि धरती पर बाकी संसाधनों की तरह ही प्रेम, दया, विनम्रता जैसे सकारात्मक भावों का कोटा भी सीमित है.
पर आबादी बढ़ते जाने के साथ ही इन भावों का प्रति व्यक्ति वितरण, या उपलब्धता भी सीमित होती जा रही है. असल में यही सकारात्मक भाव ही मनुष्यता के बोधक भी हैं, जो हमें मनुष्य के महत्त्व का बोध कराते हैं. ऐसे में अर्थशास्त्र की मांग-पूर्ति के नियम से यहां सिद्ध होता है कि, इंसानों की कीमत या महत्त्व, उसकी संख्या में वृद्धि के साथ ही घटता जा रहा है.
हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि सन 1950 में दुनिया की आबादी लगभग 250 करोड़ थी, जो 1980 में 440 करोड़, और सन 2000 में 611 करोड़ हो गई. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के मुताबिक दुनिया की जनसंख्या 779 करोड़ यानि 7.7 अरब से ऊपर हो चुकी है.
ज़ाहिर है, आबादी घटाने के अधिकांश उपाय अब तक बेअसर ही रहे हैं...और मजाक की बात तो ये है कि आबादी नियंत्रण में गर्भ निरोधकों से ज्यादा योगदान निजी स्कूलों की फीस ने दिया है.
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