New

होम -> समाज

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 10 सितम्बर, 2021 05:34 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
  • Total Shares

कोरोना महामारी के आने के बाद देश-दुनिया में आत्महत्या (Suicide) के मामलों अचानक से उछाल आया है. कोविड-19 ने लोगों की मानसिक, शारीरिक और आर्थिक उलझनों को काफी हद तक बढ़ा दिया है. आंकड़ों की मानें, तो कोरोना काल में आत्महत्या के मामलों में 30 फीसदी की तेजी दर्ज की गई है. बीते साल बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद आत्महत्या पर पूरे देश में मेंटल हेल्थ को लेकर एक्सपर्ट्स से लेकर आम लोगों ने काफी बातचीत की. कहा जा सकता है कि कोरोना काल के दौरान भारत में मेंटल हेल्थ को लेकर जितनी खुलकर बात हुई, शायद पहले कभी नहीं हुई थी. वहीं, कोरोना में आइसोलेशन की प्रक्रिया ने भी लोगों में मानसिक अवसाद को काफी बढ़ा दिया है. ऐसे में वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे (World Suicide Prevention Day) पर आत्महत्या के बारे में बात करना जरूरी हो जाता है.

निश्चित तौर पर मनोरोग की समस्या आत्महत्या के पीछे एक बड़ी वजह नजर आती है. लेकिन, क्या आत्महत्या जैसा कृत्य केवल मानसिक कारणों से किया जाता है या इसके पीछे समाज भी एक बड़ी वजह है. फ्रांस के सामाजिक विचारकों में से एक इमाईल दुर्खीम (Emile Durkheim) ने 1897 में प्रकाशित हुई फ्रेंच भाषा में छपी किताब Le suicide या सुसाइड में आत्महत्या को समाजशास्त्र के प्रारूप में परिभाषित किया है. दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत बताता है कि आत्महत्या एक व्यक्तिगत कारण न होकर सामाजिक तथ्य है. दुर्खीम (Durkheim) ने अपने इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए दुनियाभर से इकट्ठा किए गए आंकड़ों को आधार बनाया था. दुर्खीम के इन सिद्धांतों को पढ़ने पर लगता है कि दुनिया के सामने आत्महत्या के विषय में अब तक जो परिकल्पनाएं रखी गई हैं, वो कहीं न कहीं सामाजिक कारणों से जुड़ी हुई होती हैं.

दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत बताता है कि आत्महत्या एक व्यक्तिगत कारण न होकर सामाजिक तथ्य है.दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत बताता है कि आत्महत्या एक व्यक्तिगत कारण न होकर सामाजिक तथ्य है.

दुर्खीम का मानना है कि समाज किसी व्यक्ति पर दो तरह के दबाव डालता है. हर व्यक्ति की अपनी मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आवश्यकताएं होती हैं. जिसे वह समाज के सहारे ही पूरा कर सकता है. ऐसी जरूरतें समाज को एक सूत्र में बांधती हैं. समाज में हर व्यक्ति की एक-दूसरे पर निर्भरता सभी जरूरतों को पूरा करती हैं. आनंद के मिश्रण के साथ एक-दूसरे से बंधे रहने का दबाव सभी पर होता है. जो समाज का स्वस्थ दबाव कहलाता है. वहीं, अस्वस्थ दबाव में समाज किसी व्यक्ति के सामने ऐसे हालात उत्पन्न कर देता है कि आत्महत्या करने वाले शख्स खुद को सामूहिक जीवन से अलग-थलग महसूस करने लगता है. उस इंसान को ऐसै लगता है कि समाज या दुनिया में अब उसका कोई अपना नहीं रह गया है. इसी अस्वस्थ दबाव में वो आत्महत्या का रुख कर लेता है. दुर्खीम ने कहा है कि मेंटल हेल्थ, गरीबी, निराशा, प्रेम मे असफलता जैसे कारणों से आत्महत्या के पीछे समाज का अस्वस्थ दबाव काम करता है. इन सभी कारणों में एक बात जो हर जगह जुड़ी है वो ये है कि इन सभी व्यक्तिगत कारणों से इंसान खुद को समाज से अलग महसूस करने लगता है. ये दबाव अमीर-गरीब, ऊंच-नीच जैसे भेदों पर निर्भर नहीं करता है.

उदाहरण के तौर पर देखें, तो कोरोना काल में नौकरी जाने, आर्थिक स्थितियां बिगड़ने, पारिवारिक समस्याएं बढ़ने, मनोरोग जैसी कई वजहों से लोगों में अवसाद का स्तर चरम पर पहुंचा. इस मामले में पूरी तरह से आंकड़े तो स्पष्ट नही हैं. फिर भी अनुमान के अनुसार, इस दौरान ऐसे हजारों या लाखों मामले सामने आए हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इन समस्याओं से जूझ रहे सभी लोगों ने आत्महत्या को विकल्प के रूप में चुना? जवाब बहुत सीधा सा है कि नहीं. लेकिन, वो क्या वजह है कि एक शख्स इन समस्याओं के सामने आने पर एक झटके में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है. वहीं, दूसरा व्यक्ति ऐसी ही स्थितियों से गुजरते हुए भी सुसाइड के बारे में नहीं सोचता है. हालांकि, मनोविज्ञान भी अभी तक इस अलग-अलग प्रतिक्रिया को लेकर किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाया है.

वैसे, जीवन की इस लंबी राह में कभी न कभी ऐसा मोड़ आता है या आया होगा, जब व्यक्ति आत्महत्या के बारे में सोचता होगा. सच कहूं, तो मैंने भी इसे लेकर एक बार कोशिश की थी. हालांकि, यह कोशिश भावनाओं के ज्वार में की गई गलती कही जा सकती है. क्योंकि, आज मैं जब उस बारे में सोचता हूं, तो लगता है कि मैंने कैसे मूर्खतापूर्ण ख्याल में भरकर एक गैर-जरूरी चीज के लिए ऐसा कदम उठाने के बारे में सोच लिया था. मेरा मानना है कि वो व्यक्ति जो इन समस्याओं से घिरने के बाद भी एक मजबूत सामाजिक ढांचे में रहा हो, उसे इनसे निपटने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर समाज से ही ताकत मिलती है. समाज में माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त-रिश्तेदार, बॉस-कलीग या इनके जैसे ही हजारों लोग हो सकते हैं. जो ऐसी मुश्किल परिस्थितियों में आपकी मदद के लिए आगे आते हैं.

वहीं, अगर इस मजबूत सामाजिक ढांचे के बीच किसी के लिए इन संबंधों से मदद की गुंजाइश खत्म हो जाती है, तो परिणाम आत्महत्या के रूप में ही निकलता है. आसान शब्दों में कहें, तो भौतिक समृद्धि के सहारे एकाकी हुए परिवारों में एक समय के बाद मदद के विकल्प खत्म होने के साथ ही लोगों को आत्महत्या ही आखिरी विकल्प दिखाई देने लगता है. कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के आसपास की सामाजिक संरचना उसकी जरूरतों की पूर्ति के लिए जितनी मजबूत होगी, उसमें ऐसी परिस्थितियों से निकलने और लड़ने की उतनी ही ताकत होगी. दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धांत में बताया गया है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष, शादीशुदा लोगों की तुलना में अकेले, बच्चों वाले जोड़े की तुलना में नि:संतान दंपति, कम पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में पढ़े-लिखे लोगों में आत्महत्या की दर ज्यादा है. हालांकि, कहा जा सकता है कि आज के समय में ये आंकड़े बदल गए होंगे. लेकिन, इसके पीछे के सामाजिक कारण आज भी नहीं बदले हैं.

क्या है वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे

वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे 2021 (world suicide prevention day 2021) को हिंदी में (world suicide prevention day meaning in hindi) विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस कहा जाता है. वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे 2021 हर सला (when is world suicide prevention day) 10 सितंबर को मनाया जाता है. दुनिया में हर साल करीब 70 लाख लोग आत्महत्या करते हैं. वहीं, आत्महत्या की कोशिश करने वालों का आंकड़ा भी लाखों में है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय