आखिर परायापन क्यों झेल रही हैं महिला एथलीट?
भारतीय महिला एथलीट्स को अभी लंबा सफर तय करना है. महिला एथलिटों को देश-दुनिया की लड़कियों के लिए मिसाल ही नहीं बनना है, महिला एथलिटों को लेकर पुरुषवादी मानसिकताओं के द्वन्द को भी तोड़ना है. कुल मिलाकर अपने घर के आंगन से निकलीं और मैदान मार लेने वाली महिला एथलिटों के पक्ष में खड़ा होने की जरूरत है.
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बीते दिनों घर की दहलीज़ से बाहर निकलकर अंडर-19 टी 20 वर्ल्ड कप जीतकर महिला खिलाड़ीयों ने नया इतिहास रच दिया है. अपने कंधे पर तिरंगा रखकर जब वह क्रिकेट स्टेडियम के चक्कर काट रही थीं, तब न उन्होंने केवल अपना जस्बां दिखाया बल्कि उस समाज के खिलाफ अपना हौसला भी बुलंद किया जिसने उनके रास्ते कभी गरीबी, तो कभी कुंठित ख्यालों का रोड़ा डाला. कुछ कर दिखाने का जज्बा इनके हौसले को कुंद नहीं कर पाया. वह खेलीं और बेहतरीन खेलते हुए दुनिया भर में छा गई.
महिला क्रिकेटरों के हक में...
महिला क्रिकेटरों के हक में कई चीजें बदल रही है जो जेंडर संवेदनशीलता के क्षेत्र में एक बड़ा कदम है. बीते दिनों विमेंस क्रिकेट के हक में पुरुष क्रिकेटरों के बराबर मैच फीस का फैसला, विमेंस टी-20 आइपीएल का फैसला के बाद, विमेंस क्रिकेट अंदर-19 टी20 वर्ल्ड कप जीतना एक बड़ी उपलब्धि है, साथ ही साथ ऐतिहासिक घटना भी है. राज्य स्तर पर क्रिकेट, फुटबाल, हांकी और कई खेलों के माध्यम से गांव-कस्बों और छोटे शहरों में खेलों के माध्यम से पुरुषवादी मानसिकता को तोड़ने का काम हो रहा है और समाज को जेंडर संवेदनशील बनाने का प्रयास हो रहा है.
जो बेशक देख के कई महिला एथलिटों के लिए नये दरवाजे खोलेगा. फिर महिला क्रिकेट खिड़ालियों के साथ मुख्यधारा का मीडिया परायेपन का व्यवहार क्यों कर रहा है? क्या यह विमेंस एथलिट की तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने जैसा नहीं है. जाहिर है विमेंस एथलिट आगे बढ़ रही हैं पर मुख्यधारा का मीडिया उनकी उपलब्धियों का जश्न तो मना रहा है पर अपनी पुरुषवादी मानसिकता में पिछड़ रहा है.
टी 20 वर्ल्ड कप जीतने के बाद जश्न मानती टीम इंडिया की महिला खिलाड़ी
विमेंस एथलिट के साथ भेदभाव क्यों ?
किक्रेट मैच खेलने के दौरान या अन्य किसी भी खेल के मैदान पर तो वह सिर्फ एक एथलीट होती हैं. कामयाबी का परचम लहराने के बाद समाचार के दुनिया में देश की बेटी-बहन बनने के साथ-साथ प्रेरणा बन गई. नहीं बन सकी तो बस विमेन एथलिट, जिसके लिए मेहनत किया, खून जलाया-पसीना बहाया और अपने खेल में प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला. क्या यह अजीब नहीं है, जिस खेल क्रिकेट ने समय के साथ लैंगिग भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्दों से पहरेज़ कर लिया. जहां मैन आफ द मैच या सीरिज़ या बैट्समैन अब प्लेयर आंफ द मैच और बैटर हो गया, उस खेल का समाचार लिखने में हम जेंडर संवेदनशील नहीं हो पा रहे हैं.
हम महिला क्रिकेट खिलाड़ियों से उसके बेहतरीन एथलीट होने का हक लगातार छीन रहे हैं. किसी भाई की बहन और किसी पिता की बेटी तो वो है ही फिर देश की बहन-बेटी बनाने की मानसिकता क्यों है? पुरुष खिलाड़ीयों की कामयाबी पर तो हम नहीं कहते देश के भाई-बेटों ने कामयाबी का परचम दुनिया में लहरा दिया. उनके लिए मुलतान का सुल्तान, नेशन हीरो और नए-नए विशेषण. परंतु, महिला खिलाड़ियों के साथ शब्दों या विशेषणों का अभाव क्यों?
खबर लिखने में भी दिखता है पूर्वाग्रह
विमेन एथलिटों को बेटी-बहन बोलकर उनके बेहरीन प्रर्दशन के बारीक बातों को तो कोई स्पेस ही नहीं मिलता. उनकी खेल क्षमता का मूल्यांकन करते हुए एथलिट क्षमता और उनकी निपुणता पर ध्यान केंद्रित करना तो दूर की कौड़ी लाने के बराबर है. न ही उनके सफलता के खबर लिखते समय उनके बनाये गए रिकार्ड या पहले के उपलब्धियों पर कोई बात दिखती है. अगर कैरियर के एक पड़ाव पर है तो शादी कब कर रही है और अगर गर्भवती है तो उनका कैरियर खत्म.
कपड़ों पर हमेशा होती है बहस
विमेंन एथलिटों के कपड़े तो हमेशा से ही पुरुषवादी मीडिया के निशाने पर रहते हैं . शायद ही कोई महिला एथलीट हो जिसकी सुंदरता उनके लिए परेशानी का कारण नहीं बनी हो. उनके चेहरे-मोहरे और रंग को प्राथमिकता देने के चक्कर में उनकी खेल प्रतिभा को पीछे ढ़केल दिया जाता है. समाज में महिला सौंदर्य को लेकर गढ़ी गई परिभाषाएं हमेशा उनकी खेल प्रतिभा के सामने बाधा बन जाती है.
बीते दिनों द गार्जियन अखबार ने स्पोर्ट इंग्लैड की रिपोर्ट के आधार पर लिखा कि कुछ महिलाओं पर किए गर सर्वेक्षण में 75% महिलाओं ने बताया कि वे खेलों में भाग लेना चाहती थीं लेकिन समाज और मीडिया द्वारा उनके रूप रंग और शारीरिक गठन के कारण उनके बारे में राय न बना ले, इस डर से उन्होंने अपने कदम पीछे हटा लिए.
पहले तो यह मानने को तैयार न थे कि कोई भी खेल महिलाओं के लिए भी है. महिला एथलित्यों ने यह साबित किया कोई भी खेल लड़के-लड़कियों का नहीं स्टेमिना का होता है. फिर कहने लगे, चूल्हा-चौका करने वाली छोरियां देश के लिए कैसे खेलेगी? छोरियों ने मैंडल अपने नाम किए तो कहने लगे, मारी छोरि, छोरों से कम है के. फिर कहा, इतने छोटे-छोट कपड़े पहनकर टांगे दिखाना सही तो न है? महिला एथलिटों ने अपने खेल पर ध्यान दिया, कपड़ों पर नहीं और कामयाब होती चली गई.
महिला एथलिटों पर बायोग्राफ़ियां
हाल के दिनों हिंदी सिनेमा में भी महिला खिलाड़ियों की कहानी कहती हुई कई बायोग्राफी रुपहले पर्दे पर आ चुकी हैं. जिसमें महिला खिलाड़ियों के साथ सामाजिक भेदभाव, खेल संघों का लैगिक पूर्वाग्रह और आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ कई भेदभाव को सतह पर लाने की कोशिशें हुई है. इसके बाद भी भारतीय समाज और मुख्यधारा मीडिया जेंडर संवेदनशील नहीं हो पा रहा है.
यह बताता है लैंगिक असमानता की जड़े भारतीय मानसिकता पर बहुत अधिक गहरी हैं. जाहिर है भारतीय महिला एथलीट को अभी लंबा सफर तय करना है. महिला एथलिटों को देश-दुनिया की लड़कियों के लिए मिसाल ही नहीं बनना है. महिला एथलिटों को लेकर पुरुषवादी मानसिकताओं के द्वन्द को भी तोड़ना है.
भारतीय मुख्यधारा मीडिया और समाज जिस तरह से मर्दवादी विचारों के साथ चिपका बैठा है. खेल की दुनिया में महिला एथलिट कामयाब तो होती रहेगी परंतु खेल में लैंगिक समानता का लक्ष्य कोसों पीछे चलेगा. अपने घर के आंगन से निकलीं और मैदान मार लेने वाली महिला एथलिटों के पक्ष में खड़ा होने की जरूरत है.
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