दक्षिण अफ्रीका का टेस्ट निगेटिव या पॉजिटिव?
हाशिम अमला और एबी डिविलियर्स ने वो कर दिखाया जो लंबे समय से क्रिकेट में देखने को नहीं मिला. खासकर, आज के टी-20 के दौर में तो ये और असंभव सा लगता है.
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उम्मीद तो क्रिकेट के बड़े-बड़े एक्सपर्ट्स तक को नहीं थी कि दिल्ली टेस्ट पांचवें दिन तक चलेगा. लेकिन ऐसा हुआ. अब कप्तान विराट कोहली शायद उस पल को कोस रहे होंगे जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को फॉलोऑन नहीं खिलाने का फैसला किया था. हाशिम अमला और एबी डिविलियर्स ने वो कर दिखाया जो लंबे समय से क्रिकेट में देखने को नहीं मिला. खासकर, आज के टी-20 के दौर में तो ये और असंभव सा लगता है. इसलिए बहस हो रही है कि दोनों के खेल को कैसे देखा जाए. यह 'शर्मनाक' और 'निगेटिव' क्रिकेट है या टेस्ट क्रिकेट में कोई नया मानक.
सोशल मीडिया पर दोनों की बल्लेबाजी को लेकर खुब चुटकी ली गई लेकिन अफ्रीकी बल्लबाजों के इस प्रदर्शन को देखने का दूसरा नजरिया भी तो है...
क्या निगेटिव क्रिकेट की नई 'परिभाषा' है ये
दूसरी पारी में अमला जब बल्लेबाजी करने उतरे तो उनकी टीम महज 5 रनों पर अपने सलामी बल्लेबाज डिन एल्गार का विकेट गंवा चुकी थी. सामने 481 का असंभव जैसा लक्ष्य. बस अमला ने वहीं खूंटा गाड़ने का फैसला कर लिया. वो भी ऐसा कि खाता खोलने में उन्हें 45 गेंद खेलने पड़े. मतलब, दक्षिण अफ्रीका के ही क्लाइव एक्सिटन का रिकॉर्ड टूटते-टूटते बचा जिन्होंने 1994-95 में न्यूजीलैंड के खिलाफ 46 गेंदों में अपना खाता खोला था. वैसे इस मामले में इंग्लैंड के जॉन मरे आज भी अव्वल हैं जिन्होंने 1962-63 में सिडनी में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 79 गेंदों में अपना खाता खोला. अमला 244 गेंदों में 25 रन बनाकर आउट हुए. इस लिहाज से 200 से ज्यादा गेंद खेलते हुए सबसे धीमे स्ट्राइक रेट के मामले में वो टॉप पर पहुंच गए.
रिकॉर्ड की फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती. अमला और डिविलियर्स के बीच तीसरे विकेट के लिए 253 गेंदों में 27 रनों की साझेदारी हुई. मतलब कुल 42.1 ओवर. अगर 175 या उससे ज्यादा गेंद खेलने की पार्टनरशिप को देखें तो यह सबसे धीमा है. चौंकाया तो डिविलियर्स ने है. एक ओर उनके नाम वनडे में 31 गेंदों में सैकड़ा लगाने का रिकॉर्ड है तो टेस्ट में धीमे स्ट्राइक रेट के मामले में भी वह चौथे नंबर पर हैं. 2012 में उन्होंने एडिलेड में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 246 गेंदों में 33 रनों की पारी खेली थी. इस लंबे-चौड़े आंकड़ेबाजी को देखकर लग रहा होगा कि आज के दौर में यह शर्मनाक और निगेटिव क्रिकेट ही तो है. जहां बल्लेबाजों ने पूरे मैच को नीरस बन दिया. लेकिन जरा ठहरिये...
असल टेस्ट भी तो यही है...
दक्षिण अफ्रीका इस पूरे मैच में बैकफुट पर रहा. पहली पारी में भारत को 200 से ज्यादा की बढ़त मिली और सीरीज गंवाने के बाद मेहमान टीम के लिए जरूरी था कि वह ये मैच बचाए. और टेस्ट क्रिकेट तो इसी का नाम है जहां हर मैच केवल हार या जीत के नजरिये से नहीं देखा जाता. खिलाड़ियों का टेंपरामेंट, धैर्य, पांच दिनों की चुस्ती और हर सेशन में बदलते खेल के साथ रणनीति बदलने की चुनौती सामने होती है. बल्लेबाज विकेट बचाने की जद्दोजहद करते हैं और गेंदबाज उन्हें पवेलियन भेजने के लिए संघर्ष. वैसे भी, बीस विकेट झटके बिना आप जीत की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. टेस्ट मैच जीतने की तो पहली शर्त ही यही है.
पिच की इज्जत बचाई अफ्रीकी बल्लेबाजों ने..
हम दक्षिण अफ्रीका की आलोचना भले ही कर लें. लेकिन उन्हें इस बात की शाबाशी तो देनी ही चाहिए कि उन्होंने पिच क्यूरेटर की इज्जत बचा ली. मोहाली के बाद जब नागपुर में भी तीसरे दिन ही खेल समाप्त हो गया तो क्रिकेट की आत्मा पर चोट लगने की बहस शुरू हो गई. लगा कि क्या वाकई हार-जीत के द्वंद में हमने टेस्ट क्रिकेट को मारने की तैयारी कर ली है. लेकिन फिरोजशाह कोटला में नई बात दिखी. नई बात ये कि बिना रन बनाए विकेट पर टिके रहने की जिद भी कई बार मैच को दिलचस्प बना जाती है और हर बार पिच दोषी नहीं होती.
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