पाकिस्तान को अभी और बर्बाद होना है, इन दो एक्टिव क्रिकेटर्स की ताजा उपलब्धियों से समझिए कैसे?
पाकिस्तान के इन दो मशहूर क्रिकेटर्स के जरिए भी वहां के हालात और पीछे की वजहों को आसान भाषा में समझा जा सकता है. ऐसी चर्चा है कि वहां के तमाम इलाकों में आतंकियों ने अपनी सरकार गठित कर ली है. और भी इलाके टूटने को तैयार हैं. लोग तिल-तिल कर मरने को विवश है. लोगों को भूखे सोना पड़ रहा है.
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जंग के मारी किगी. यह पश्तों का वाक्य है- जिसका मतलब है कि जंग में मौतें होती रहती हैं. असल में यह वाक्य पाकिस्तान में धाकड़ कहे जाने वाले विकेटकीपर बल्लेबाज मोहम्मद रिजवान ने बोला था जिस पर एक विवाद भी देखने को मिला था. तब बयान के मायने थे. हुआ ये था कि पिछले साल टी20 विश्वकप के दौरान रिजवान ने भारत के साथ होने वाले मैच से पहले मेलबर्न में नेट प्रैक्टिस के दौरान कमेंट किया था. मोहम्मद नवाज का एक शॉट लगने के बाद शान मसूद जमीन पर गिर गए थे और कुछ देर बेहोश थे. इसी दौरान रिजवान का बयान आया था. बयान को भारत के खिलाफ मैच को मैच की बजाए जंग की तरह लेने की वजह से चर्चा मिली थी.
अब जो हेडिंग पढ़कर आप यहां तक आए हैं- आपको लग रहा होगा कि भला आज पाकिस्तान जिस बर्बाद हालत में है उसमें क्रिकेट और मोहम्मद रिजवान का क्यों और कैसा कनेक्शन निकाला जा रहा है? आज के पाकिस्तान की चीजों को बहुत डिटेल और गहराई से समझना हो तो रिजवान और उनके मुल्क में एक बहुत बड़ा कनेक्शन नजर आता है. सिर्फ इसके जरिए पाकिस्तान के हालात को समझना इतना आसान है कि उसके लिए ज्यादा प्रयास की जरूरत भी नहीं. पाकिस्तान क्रिकेट के दो सितारों मोहम्मद रिजवान और वहाब रियाज भर से भी इसे बढ़िया से समझा जा सकता है. इन दोनों क्रिकेटर्स को लेकर जो हालिया अपडेट हैं- उनमें भी पाकिस्तान की बर्बादी का एक फ़ॉर्मूला और सूत्र साफ़ नजर आता है.
पाकिस्तान में कुछ इलाकों की स्वतंत्र सरकार तक बन चुकी है
पाकिस्तान में क्या चल रहा है- किसी को बताने की जरूरत नहीं. इमरान खान की सरकार जाने के बाद पख्तूनों के इलाके स्वतंत्र हो चुके हैं. अंतरिम सरकार और मंत्रिमंडल तक बनाए जाने की खबरें सामने आ चुकी हैं. जबकि इमरान के समय या उससे पहले ही बलूचिस्तान पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर जा चुका है. सिंध में हालात भयावह हैं और गिलगिट बाल्टिस्तान और पीओके जैसे इलाकों के लोग भारत में शामिल होने के लिए सीमाओं को खोलने के लिए रोज गुहार लगा रहे हैं. पाकिस्तान बंदूकों के बूते भारतवंशियों की आवाज दबाते नजर आ रहा है. वहां प्रशासनिक हालात तो पहले से ही बदतर थे, मगर चरमरा चुकी अर्थव्यवस्था ने आम-ख़ास हर तरह के लोगों का जीना दूभर कर दिया है.
मोहम्मद रिजवान और वहाब रियाज.
लोग आटा-दाल-चावल-तेल-चिकन और अंडों का बोझ उठाने में भी सक्षम नहीं. पेट्रोल डीजल की कीमतें इतनी बढ़ाई जा चुकी हैं कि वहां व्यापक जनता खाने-पीने की किल्लत का सामना करने को विवश है. फैक्ट्रियां लगभग बंद हो चुकी हैं. ना तो बिजली है और ना ही कच्चा माल. फैक्ट्रियां बंद हैं तो लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं. जिनकी नौकरियां किसी तरह बची हैं उन्हें सैलरी ही नहीं मिल पा रही है. पाकिस्तानी सरकार का खजाना पूरी तरह खाली है. समझा जा सकता है कि जो सरकार जनता को पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति ना कर पा रहा हो- वहां सरकारी कर्मचारियों को समय पर सैलरी देने में किस तरह की मुसीबतें सामने आ रही होंगी. और जब यह हाल सरकारी कर्मचारियों का है तो निजी क्षेत्र के कर्मचारियों और असंगठित क्षेत्र से जुड़े मजदूरों की हालत को समझना मुश्किल नहीं. लोग संपत्ति बेंचकर पेट भरने को विवश हैं. अपराध बेतहाशा बढ़ चुके हैं. अराजकता चरम पर है.
भारत से बंटवारे के बाद पाकिस्तान की यह हालत हुई क्यों, बांग्लादेश क्यों बच गया?
ऐसे भी समझें कि पाकिस्तान में कुकिंग गैस एक बहुत बड़ी आबादी तक पहुंच ही नहीं पाया है. वहां केरोसिन ऑइल यानी मिट्टी तेल का रसोई बनाने के काम में खूब इस्तेमाल होता है और ज्यादातर गरीब और निम्न वर्ग के लोग इस्तेमाल करते हैं. आज की तारीख में एक लीटर मिट्टी तेल की कीमत वहां 189.80 रुपये है. इतने भर से वहां हालात समझ सकते हैं. अब सवाल है कि पाकिस्तान में यह सब हुआ कैसे? 1947 में लश्करी जुबान उर्दू और तमाम मजहबी आधार पर अविभाजित भारत में राज करने वाले शाही वंशजों ने अपनी सत्ता को चलाए रखने के लिए भारतवंशी मुसलमानों को गुमराह किया. कुछ कट्टरपंथी भारत में ही रुके रहें, पता नहीं क्यों? भारतीय मुसलमानों को एक अलग और संपन्न मजहबी स्टेट का ख्वाब दिखाया गया. जबकि हकीकत में यह मुट्ठीभर लोगों की निजी महत्वाकांक्षा थी. उर्दू जुबान वालों की- जो आज भी पाकिस्तान की आबादी का महज एक से दो प्रतिशत हिस्सा बताया जाता हैं. पाकिस्तान का जो मुट्ठीभर देसी विदेशी अशराफ तबका है- सेना, कारोबार, राजनीति और न्याय पालिका पर उसी का कब्जा है. कहा तो यह भी जाता है कि आज की तारीख में सिर्फ आधा दर्जन या उससे कुछ ज्यादा ताकतवर घराने समूचे पाकिस्तान को चला रहे हैं. बाकी जो दिखता है- वह नाममात्र का है. जैसे- इमरान खान भी असल में नाममात्र के प्रधानमंत्री ही थे. उनमें कोई ताकत थी नहीं.
जबकि बलूचिस्तान, सिंध, खैबर पख्तूनख्वा, गिलगिट बाल्टिस्तान और पंजाब जैसे इलाके भारतीय क्षेत्रों की तरह ही अलग-अलग भाषा और स्थानीय संस्कृति समेटे हुए थे. मगर मुट्ठीभर लोगों ने वहां अपना सिंडिकेट बनाए रखने के लिए समूचे पाकिस्तान को एकरंग में रंगते हुए, उर्दू-इस्लाम के जरिए विदेशी-देसी अशराफों ने वहां की पूरी सत्ता और सिस्टम पर कब्जा कर लिया. उर्दू और इस्लाम के बहाने इन एक से दो प्रतिशत विदेशी मूल के लोगों ने वहां अपना वर्चस्व तो बनाए रखा. परिवार नियोजन भी किया. पैसे भी बनाए. अंग्रेजी भी पढ़ी और विदेश में भी बसे. अपना विकास भी किया लेकिन अवाम को मजहब की अंधी सुरंग में झोंक दिया. विदेशी अशराफों की इन्हीं औपनिवेशिक नीतियों की वजह से 1971 में जब बांग्लादेश में अराजकता चरम पर पहुंच गई, भारत को अपनी संप्रभुता बचाने के लिए ना चाहते हुए भी दखल देना पड़ा और बांग्लादेश एक अलग मुल्क बना.
दिलचस्प है कि जब पाकिस्तान संयुक्त था, बांग्लादेश की जनसंख्या यानी पाकिस्तान की तुलना में उसके पूर्वी हिस्से में आबादी ज्यादा थी. आज की हकीकत यह है कि बांग्लादेश ने मजहबी कट्टरपंथ पर और बढ़ती जनसंख्या पर काबू पा लिया है (बावजूद कि करीब ढाई दशक पाकिस्तान में रहने की वजह से तमाम मजहबी असर अभी भी बांग्लादेश में ख़त्म नहीं हुए हैं). मगर विभाजन के बाद आज पाकिस्तान की जनसंख्या बांग्लादेश से बहुत बहुत आगे निकल चुकी है. पाकिस्तान की जनसंख्या इस वक्त करीब 23.14 करोड़ से ज्यादा है. जबकि बांग्लादेश की जनसंख्या मात्र 16.94 करोड़ है. पाकिस्तान और बांग्लादेश के तमाम फर्क को आबादी के उतार चढ़ाव से भी समझा जा सकता है. बांग्लादेश आज की तारीख में ज्यादा संपन्न है. अलग होने की कगार पर खड़े पाकिस्तान के तमाम इलाकों की मौजूदा परेशानी के पीछे पाकिस्तान का वही अप्रोच है जो कभी बांग्लादेश को लेकर था. खैर.
क्रिकेटर मोहम्मद रिजवान और वहाब रियाज पाकिस्तान की हकीकत हैं
चूंकि बात शुरू में रिजवान और वहाब के जरिए हुई तो उन्हीं की स्थितियों से पाकिस्तान की हालत समझ सकते हैं कि वहां मजहबी आधार पर भारत विभाजन के जरिए कौन से सर्कस का खेल खेला गया. जबकि ये दोनों क्रिकेटर पाकिस्तान का सेलेब्रेटी चेहरा हैं. और पाकिस्तानी अवाम का रोल मॉडल भी हैं. मोहम्मद रिजवान की मजहबी सोच क्या है- लोगों ने खेल के मैदानों पर देखा ही होगा. हिंदुओं (भारत) के सामने नमाज पढ़ना, जंग में मौतें होती रहती हैं जैसे बयान से उनके मजहबी रुझान को समझना मुश्किल नहीं. रिजवान पाकिस्तान के उसी क्षेत्र से हैं जहां फिलहाल पेशावर में करीब 93 लोगों को टीटीपी के हमले में अपनी जान गंवानी पड़ी है.
मोहम्मद रिजवान अभी हाल ही में तीसरी बार एक बेटी के पिता बने हैं. वे पहले से ही दो बेटियों के पिता हैं. पाकिस्तान में चर्चा है कि ऐसा बेटे की चाह में किया गया है. रिजवान तब तक रुकने वाले नहीं जब तक कि बेटा नहीं होगा. भले वे दर्जनभर बेटों के पिता बन जाए. कुछ लोग बेशक आलोचना भी कर रहे हैं. पर ऐसे लोगों की पाकिस्तान में चलती नहीं हैं. ये भारतवंशी मुसलमान भारत समर्थक माने जाते हैं. रिजवान कोई पहला उदाहरण नहीं हैं. शाहिद अफरीदी और उन जैसे अलग अलग क्षेत्रों के तमाम सेलिब्रिटी भी कई कई बच्चों के पिता हैं. पाकिस्तान में यह हालत रिजवान या अफरीदी भर के फ्रंट पर नहीं है. बल्कि यह तो बहुत बेहतर हालत है. पाकिस्तान में जो निचली सामाजिक ईकाई है और जो शरिया की सामाजिक व्यवस्था को पवित्रता से मानती है- वहां कई कई शादियां करते हैं. स्वाभाविक है कि उनके कई कई बच्चे हैं. पिछले साल पाकिस्तान में ऐतिहासिक बाढ़ के दौरान पाकिस्तान के ऐसे ही कुछ संख्या के लिहाज से भारी भरकम परिवारों की कहानी सामने आई थी. आबादी को लेकर यह उस पाकिस्तान की हालत है जहां बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए स्कूल तक नहीं हैं. शुरुआती पढ़ाई लिखाई उन्हें मदरसे में करनी पड़ती है. मदरसा में उन्हें क्या पढ़ाया जाता होगा- समझना मुश्किल नहीं.
अलग-अलग इलाकों की दिक्कत यह भी है कि उर्दू वहां मान्य भाषा है लेकिन बच्चों को पढ़ाई के दौरान मातृभाषा की कमी की वजह से जूझना पड़ता है. दूसरी दिक्कत यह है भी है कि पाकिस्तान में ऐसा ढांचा है ही नहीं कि बड़ी आबादी को रोजगार दिया जा सके. वह भी मदरसा की शिक्षा व्यवस्था के जरिए. स्वाभाविक है सामाजिक असमानता में गहरी खाई बन चुकी है और वे स्वाभाविक रूप से मजहबी कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित हो रहे हैं. क्योंकि वहां कट्टरपंथी ही मजहबी आधार पर समाधान देते नजर आ रहे हैं. वैसे पाकिस्तान की आबादी में योगदान के लिए वहां का एक तबका रिजवान की आलोचना कर रहा है.
अब पाकिस्तान में राजनीति और प्रशासनिक मनमानी का अंदाजा बिलावल भुट्टो से ना लगाइए. बिलावल के परिवार का रुतबा पाकिस्तान में लगभग वही है, जैसा रुतबा राहुल गांधी के परिवार का भारत है. ठीक है बिलावल को चीजों की समझ नहीं है, मगर वह वहां की वंशवादी राजनीति में तो असरदार बने हुए हैं. और वहां की राजनीतिक संभावनाओं में एक उम्मीद के रूप में देखे जाते हैं. कब तक यह बाद की बात है. लेकिन वहाब रियाज वो चेहरा हैं जो पाकिस्तान की गैरजिम्मेदार राजनीति की कलई खोलकर रख देते हैं. वहां के राजनीतिक लूटतंत्र की, गैर जिम्मेदारी की. वहाब पाकिस्तान के एक्टिव क्रिकेटर हैं. 37 साल के हैं, तेज गेंदबाज हैं और अभी क्रिकेट से संन्यास नहीं लिया है. मगर उन्हें एक हफ्ता पहले ही पंजाब प्रांत में कार्यवाहक खेल मंत्री के रूप में नामित किया गया. अब वहाब रियाज क्रिकेट खेलेंगे या खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालेंगे- या तो खुद बेहतर बता सकता है या फिर पाकिस्तान की राजनीति.
वहाब को जब मंत्री बनाया गया, वह बांग्लादेश में क्रिकेट लीग खेल रहे थे. वहां से लौटकर उन्हें शपथ लेना था. वे पीएसएल (पाकिस्तान क्रिकेट लीग) के टॉप क्रिकेटर हैं और अब चर्चा है कि वहाब नए सीजन में मंत्री के रूप में काम करेंगे या क्रिकेट खेलेंगे. पाकिस्तान में हर तरफ सर्कस दिख रहा है. कुछ घरानों ने पाकिस्तान को बच्चों का खेल बना दिया है.
मोहम्मद रिजवान और वहाब रियाज भर से पाकिस्तान की पूरी तस्वीर समझ में आ जाती है.
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