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Updated: 05 अगस्त, 2021 08:51 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
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भारतीय हॉकी टीम ने साल 1980 के बाद आज ओलंपिक में पदक जीतकर सच में इतिहास रच दिया. हमारे शेरों ने जर्मनी को 5-4 से हराकर 41 साल बाद कांस्य पदक जीता. इसके साथ ही खिलाड़ियों ने करोड़ों लोगों के आस की लाज रख ली. लोगों ने हॉकी टीम से काफी उम्मीदें लगा रखी थीं. आज उन उम्मीदों की जीत हुई और कोरोड़ों चेहरे मायूस होने से बच गए.

अगर आज भारतीय हॉकी टीम हार जाती तो लोगों के दिल टूट जाते. हम भारत के लोग बहुत इमोशनल होते हैं. जब देश जीतता है तो धड़कन बढ़ जाती है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आंखों में आंसू अपने आप आ जाते हैं. हम भले ही खेल और ओलंपिक मेडल के बारे में ज्यादा ना जानें, हमारे लिए तो बस इतना ही काफी होता है कि कहीं विदेश में हमारे खिलाड़ी अपने देश का मान बढ़ाने के लिए जी जान लगाकर खेल रहे हैं.

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बस फिर क्या हम लगते हैं आंख मूंदकर दुआ मांगने कि हमारी टीम जीत जाए...क्योंकि खिलाड़ी भले ही कितना बेहतर प्रदर्शन करें अगर वे चौथे नंबर पर आते हैं तो कौन उन्हें याद रखता है. कुछ महीनों में लोग भूल जाते हैं. याद रखें जाते हैं सिर्फ वे एथलीट्स जो मेडल लाते हैं. उस टीम को याद रखा जाता है जो मेडल जीतती है. बाकी उनकी मेहनत, उनकी कोशिश सब किनारे चला जाता है क्योंकि हारे हुए खिलाड़ी को लोग जान नहीं पाते.

आज अगर इंडिया की हॉकी टीम हार जाती तो आज क्या होता...क्या लोग हारे हुए खिलाड़ियों के बारे में बात करते. क्या लोग उन्हें पहचान पाते. हॉकी टीम को कौन स्पासंर करता है ये भी लोगों ने तब जाना है जब टोक्यो ओलंपिक में खिलाड़ी कमाल करने लगे. तब लोगों ने जानना चाहा कि इसके पीछे किसका हाथ है. तब उन्हें पता चला कि अच्छा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ही हैं असली नायक. कितने लोग हैं जो ओलंपिक के अलावा साल भर हॉकी मैच देखते हैं. कितने लोग हैं जो इस टोक्यो ओलंपिक में हारे खिलाड़ियों के बारे में जानते हैं और पहचानते हैं.

कुछ लोग ऐसे हैं जो यह कह रहे हैं कि कांस्य पदक जीत लिया लेकिन पनौती तो गोल्ड मेडल पर लगी है. अरे क्या हुआ जो गोल्ड नहीं आया, क्या हमारी खिलाड़ियों की मेहनत नहीं दिखी. 41 साल बाद ये जो किर्तीमान हुआ है क्या वो कम है. चार दशकों का सूखा खत्म करने का श्रेय इन्हीं खिलाड़ियों को जाता है. जिस देश ने हॉकी में 41 साल से कुछ ना जीता हो, क्वालीफाई में ना पहुंचे हों आज वे ओलंपिक मेडल लेकर आए हैं. पूरी दुनियां में उनकी चर्चा हो रही है. कांस्य हमारी आखिरी उम्मीद थी, अगर हम ये हार जाते तो दुनिया हॉकी के लिए भारत को याद नहीं करती.

हमारे खिलाड़ियों ने अपनी जगह बनाई है. दूसरे देश क्या, हम ही याद नहीं रखते. चौथे नंबर पर आने वाले को कौन याद रखता है और फिर उन खिलाड़ियों के साथ तब किस तरह का व्यवहार होता... कुछ लोगों का कहना है कि ओलंपिक में हारे खिलाड़ियों के साथ तो लोग सहानुभूति दिखा रहे हैं लेकिन क्रिकेट टीम हारती है तो उन्हें कोसा जाता है. अरे देश हमारा है, खिलाड़ी हमारे हैं...कृपया करके कम से कम खेल के नाम पर इन्हें तो मत ही बांटिए.

ऐसे लोगों से बस यही कहना है कि क्रिकेट से तुलना तो मत ही कीजिए. जिस देश में खेल का मतलब सिर्फ क्रिकेट होता है उस देश में आज हॉकी की कितनी चर्चा हो रही है, यह देखिए और भारतीय हॉकी टीम को बधाई दीजिए. आपको भी पता है कि इन खिलाड़ियों को कितनी सुविधा दी जाती है. हॉकी टीम को तो तीन साल पहले स्पॉन्सर तक नहीं मिल रहे थे और आप क्रिकेट से तुलना करते हैं.

यह सोचिए कि भारतीय हॉकी टीम इस काबिल तो बनी कि इसे क्रिकेट की तरह देखा जा रहा है. सहानुभूति उनको ही दी जाती है जो कठिनाइयों में परिश्रम करते हैं अपना सौ प्रतिशत देते हैं, बेहतर प्रदर्शन करते हैं फिर भी हारने के बाद टूट जाते हैं...हमारी सहानुभूति उस हर खिलाड़ी के उदास चेहरे के लिए जो जीतकर भी हार जाता है.

वैसे भी खिलाड़ी कोई भी हो खेलता तो देश के लिए है. आज सब भूलकर ऐतिहासिक दिन का जश्न मनाइए, नहीं मना सकते तो खुश हो जाएं और खुश नहीं हो सकते तो कम से कम नफरत तो मत ही फैलाइए…उन चेहरों को याद कीजिए जो जीत के बाद चमक उठे हैं, शुक्र मनाइए कि वे चौथे नंबर पर नहीं आए वरना हारे हुए को कौन पूछता है?

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लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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