ओलंपिक में एक-दो मेडल से कब तक संतोष करता रहेगा भारत?
हमारे देश में ज्यादातर खेलों का कोई खास वजूद नहीं है. यहां तक कि जिम्नास्ट दीपा कर्माकर को लोगों को यह विश्वास दिलाना पड़ा है कि वह कोई सर्कस नहीं करती हैं. इसके अलावा देश के कई टैलेंटेड एथलीटों को मामूली नौकरी करके पेट भरना पड़ता है.
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आखिर हमें रियो ओलंपिक में मेडल मिल ही गया. देश खूशी में डूब गया है क्योंकि हमारे लिए पोडियम तक पहुंचना हमेशा ही दूर की कौड़ी रहा है. इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि मॉडर्न ओलंपपिक की शुरुआत 1896 में हुई और तब से अब तक हम 28 मेडल ही जीत पाए हैं. यह और बात है कि इतने इतने मेडल तो अमेरिकी स्विमर माइकल फेल्प्स अकेले ही जीत चुके हैं.
खैर, भारत और फेल्प्स की इस तुलना को यहीं रहने देते हैं. क्योंकि इस बात को आगे बढ़ाना तो और शर्मिंदगी ही देगा. आखिर हम खाली हाथ तो नहीं आ रहे हैं न. देश खुशी से पागल हो गया है और इस मौके को पूरा एंजॉय करना चाहिए. यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. है कि नहीं? हम इस खुशी के हकदार हैं. और हमें साक्षी मलिक का शुक्रिया भी अदा करना चाहिए. 58 किलो वर्ग कुश्ती में कांस्य पदक जीतने वाली इस 'हरियाणा की शेरनी' ने हमें 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक वाली शर्मिंदगी से बचा लिया. जहां से हम बिना मेडल के वापस आए थे. शटलर पीवी सिंधू का मेडल अब हमारे लिए बोनस है.
सरकार या खेल प्रशासकों को श्रेय नहीं मिलना चाहिए
ओलंपिक मेडल जीतने वालों को अवार्ड और इंसेंटिव देने की होड़ मच गई है. हरियाणा सरकार, खेल मंत्रालय, भारतीय रेलवे और भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन (IOA) कुल मिलाकर करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए के पुरस्काार साक्षी को देने जा रहे हैं. साक्षी अपनी उपलब्धि के लिए इन सबसे कहीं ज्यारदा की हकदार है. जितने अवार्ड, तारीफें और शोहरत उन्हें दी जाए, कम हैं. लेकिन इस सबके बीच हमारे देश के खेल प्रशासकों और सरकारों को किस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए? उनके किस योगदान को याद करना चाहिए?
हरियाणा में लड़कियों की स्थिति क्या है..बताने की जरुरत है? |
साक्षी हरियाणा से आती हैं. एक ऐसा राज्य जो कुख्याात है उस मानसिकता के लिए जो बेटों को बेटियों से ज्यादा तरजीह देती है. 2011 की जनगणना के आंकड़े इस बात का सबूत देते हैं (1000 लड़कों पर सिर्फ 879 लड़कियां). हालात इतने बिगड़ गए हैं कि हरियाणा में लड़कों की शादी के लिए दूसरे राज्यों ही नहीं, दूसरे देशों से दुल्हनें लानी पड़ रही हैं. वह भी 'खरीदकर'.
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बैडमिंटन में भारत को पहला ओलंपिक मेडल दिलाने वाली साइना नेहवाल भी हरियाणा की ही रहने वाली हैं. और कुछ साल पहले उन्होंने यहां के पितृ सत्तात्मक समाज के भयावह चेहरे को एक रहस्योद्घाटन के साथ सामने लाया था. उन्होंने खुलासा किया था कि जब वे पैदा हुईं तो उनकी दादी ने उनका चेहरा देखने से इनकार कर दिया था.
सिर्फ बेटों की चाह रखने वाले इस समाज से निपटने के लिए सरकार ने क्या किया? खैर, भारत को रियो में शर्मिंदा होने से महिला एथलीट ही बचा रही हैं. साक्षी, सिंधू, दीपा, ललिता बाबर, अदिती अशोक- भारत 'महिला शक्ति' के दम पर ही ओलंपिक में दौड़ पा रहा है.
पार्टियों पर करदाता के पैसे की बर्बादी
हरियाणा के खेल मंत्री अनिल विज रियो गए हुए हैं. 'हरियाणा के खिलाडि़यों' का हौंसला बढ़ाने के लिए. लेकिन, वहां जाकर वे रियो घूमने में व्यस्त हो गए. जबकि उन्हें तो उन इवेंट का हिस्सा होना था, जहां उनके राज्य के खिलाड़ी देश के लिए अपना पसीना बहा रहे हैं. इस व्यर्थ के सैरसपाटे पर टैक्स पेयर का एक करोड़ रुपया खर्च हुआ है. और यह वाकई बहुत गंभीर है.
...और विजय गोयल की हरकतें
हम विजय गोयल को कैसे भूल सकते हैं? हमारे सम्मानीय खेल मंत्री. उन्हें रियो भेजा गया था कि वे खिलाडि़यों का हौंसला बढ़ा सकें, उन्हें विश्वास दिला सकें कि सरकार हर कदम पर उनके साथ है. लेकिन वहां जाकर उन्होंने अपनी हरकतों से देश को शर्मसार कर दिया. दिल्ली में शाही आवभगत के आदी विजय गोयल को लगा कि रियो में भी वे उसी अंदाज में रह लेंगे. लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी.
ओलंपिक प्रशासन को गोयल की 'बादशाहत' से कोई लेना-देना नहीं था. गोयल अपने साथ अपने साथियों को भी वहां ले जाना चाहते थे, जहां उनको इजाजत नहीं थी. ऐसा करने पर उन्हें चेतावनी दी गई कि उनकी ओलंपिक की सदस्यतता खत्म कर दी जाएगी. गोयल पर अधिकारियों ने बदतमीजी और झगड़ा करने का आरोप भी लगाया. गोयल ने यह सब तब किया, जब हम निराशा में डूबे हुए थे. खिलाडि़यों की नाकामयाबी पर उदास थे. और लग रहा था कि 2016 के ओलंपिक में हमें कोई पदक नहीं मिलेगा. अचानक गोयल ने प्रकट होकर हमारा मूड बदला और अपने कॉमिक एक्शन से हमें मुस्कुराने का मौका दिया.
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गोयल ने अपनी हरकतों से हमारी रुचि ओलंपिक में बनाए रखी. हां, यह बहस का विषय हो सकता है कि वे खिलाडि़यों का मनोबल बढ़ाने में कितना कामयाब हुए? भारत के खेल मंत्री के पद पर गोयल से बेहतर भी कोई और हो सकता था (हकीकत तो यह है कि केंद्र ने गोयल का चुनाव कर इस पद की गरिमा के साथ धोखा किया है). खेलों के बारे में उनका ज्ञान न के बराबर है, लेकिन उन्होंने कोशिश जरूर की है, अपने अनूठे अंदाज में, उदासी दूर करके. हां, ये और बात है कि इससे देश को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. और अब हमारे पास दो मेडल विजेता हैं. दोनों लड़कियां. तो हमें मुश्किल दौर में गोयल के योगदान को नहीं भूलना चाहिए.
यदि हमारे खेलों के ऐसे कर्णधार हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ओलंपिक में भारत का स्तर लगातार गिरता क्यों जा रहा है. हमारे देश के खेल प्रशासक तैयार ही बैठे रहते हैं कि कैसे किसी खिलाड़ी को सफलता मिले और वे उसका श्रेय ले लें. लेकिन एथलीट की तैयारी के लिए कदम उठाने पर हमेशा पीछे रहते हैं.
कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं, कोई प्रोत्सामहन नहीं
हमारे देश में ज्यादातर खेलों का कोई खास वजूद नहीं है. यहां तक कि जिम्नास्ट दीपा कर्माकर को लोगों को यह विश्वास दिलाना पड़ा है कि वह कोई सर्कस नहीं करती हैं. इसके अलावा देश के कई टैलेंटेड एथलीटों को मामूली नौकरी करके पेट भरना पड़ता है. भारत में यदि आप क्रिकेट नहीं खेलते हैं तो अपने भविष्य के लिए आप स्वयं जिम्मेदार हैं. खेलों के लिए स्तरहीन इन्फ्रास्ट्रक्चर या पैसे की कमी और बेहद औसत ट्रेनिंग भी एक अलग मसला है.
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एथलीटों के लिए डाइट प्लान का आधार वैज्ञानिक नहीं है. नतीजा खिलाडि़यों की मांसपेशियों का अच्छे से विकास न हो पाने और स्टेमिना की कमी के रूप में सामने आता है. खिलाडि़यों की खराब प्रदर्शन के पीछे है गरीबी और क्वालिटी फूड की कमी.
शारीरिक कौशल का अभाव
जून 1998 में इंडिया टुडे में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें ब्राजील के फुटबॉलर रोनाल्डो और भारत के उस समय के सबसे बड़े खिलाड़ी आईएम विजयन की क्षमताओं की तुलना की गई थी. फर्क बहुत बड़ा था. फुटबॉल क्लब एफसी कोच्चि के टेक्निकल डायरेक्टकर, जिसके लिए विजयन खेलते थे, का मानना था कि यदि विजयन एक बॉल को किक लगाते तो वह 60 मील प्रति घंटे की रफ्तार से जाती और रोनाल्डो की किक 90 मील प्रति घंटे की रफ्तार से. इस लेख में कई टॉप भारतीय खिलाडि़यों और इंटरनेशनल खिलाडि़यों की तुलना की गई थी. साबित यही हुआ कि भारत अंतराष्ट्रीय खेल मंच पर कितना पिछड़ा हुआ था.
उन खेलों पर ध्यान दीजिए जिनमें हम जीत सकते हैं
भारत कुश्ती और बैडमिंटन में कमोबेश अच्छा प्रदर्शन करता है. शूटिंग में भी हमने पिछले कुछ ओलंपिक में पदक जीते हैं. हॉकी में भी शायद चीजें ठीक की जा सकती हैं. यदि आप अमेरिका को देखेंगे, जो ओलंपिक में ढेर सारे पदक जीतता है तो पाएंगे कि उनमें ज्याादातर स्विमिंग और एथलेटिक्स में होते हैं. इसी तरह जमैका का ट्रेक एंड फील्ड इवेंट में एकाधिकार है. हमें अपने प्रयास बेहतर करने से पहले उन खेलों को चुनना पड़ेगा जिनमें हम अच्छा कर सकते हैं.
स्पोर्ट्स कल्चर कहां है?
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि क्रिकेट न खेलने वाला खिलाड़ी आसान जिंदगी जी पाएगा. इसीलिए ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चों को खेल में करियर नहीं बनाने देते. बच्चें के भीतर शुरुआत से ही डाल दिया जाता है कि मैदान में रहेगा तो जिंदगी में कहीं का नहीं रहेगा. और उसका भविष्य पढ़ाई में ही है. यदि आश्चर्य होता है कि एक अरब से ज्यातदा की आबादी वाला देश एक मैडल के लिए क्यों संघर्ष करता है? तो इस बात का सीधा जवाब स्पोर्ट्स कल्चर की कमी और उदासीनता है. यही भारतीय खेलों का सबसे बड़ा अभिशाप है.
'महिला शक्ति' के दम पर ओलंपिक में दौड़ता भारत.. |
इसलिए दीपा, साक्षी और सिंधू की उपलब्धि पूरी तरह से उनकी अपनी है. हमारी स्पोर्ट्स अथॉरिटी का उसमें कोई योगदान नहीं है. लेकिन साक्षी और सिंधू के मेडल भी हमारी उन चिंताओं से ध्यान नहीं हटा सकते कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी एक कांस्य पदक के लिए हमें इतना संघर्ष क्यों करना पड़ता है. जबकि त्रिपुरा (जहां की दीपा कर्माकर रहने वाली हैं) के आकार का कोसोवो स्वर्ण पदक जीत लेता है.
सिंधू ओलंपिक में फाइनल मुकाबला हार गईं और उन्हें रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा है. यानी कि भारत रियो में रेफ्यूजी खिलाडि़यों की टीम के बराबर भी नहीं पहुंच पाया है. जिन्होंने इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी के बैनर तले एक स्वर्ण और एक कांस्यं पदक जीत लिया है. अब क्या भारत में खेलों के बारे में और भी कुछ कहने की जरूरत है?
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