अपने लीजेंड्स का सम्मान करना कब सीखेगा देश?
अपनी बेखौफ और धमाकेदार बल्लेबाजी से भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले वीरेंद्र सहवाग को ढंग की विदाई तक नहीं मिल पाई, अपने लीजेंड्स के साथ इतना खराब व्यवहार इसी देश में हो सकता है.
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वर्ष 2001 में न्यूजीलैंड के खिलाफ एक बल्लेबाज ने वनडे में जब सबसे तेज सेंचुरी जड़ने का रिकॉर्ड बनाया तो उसकी विस्फोटक बल्लेबाजी देखकर दुनिया हतप्रभ रह गई. महज 69 गेंदों में 19 चौकों से सजी इस बल्लेबाज की धमाकेदार सेंचुरी को जिस एक बात ने विशेष बना दिया था वह थी सचिन तेंडुलकर जैसी खेलने की शैली. यकीन मानिए इस बल्लेबाज की बैटिंग स्टाइल सचिन से इतनी ज्यादा मिलती थी कि लोगों ने उन्हें नाम दे दिया ‘नजफगढ़ का तेंडुलकर.’ अगले डेढ़ दशक में अपनी बेखौफ और धमाकेदार बल्लेबाजी से उन्होंने इस उपनाम को सही साबित किया. लेकिन अफसोस कि उन्हें सचिन जैसी विदाई नहीं मिल पाई.
अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि इस बल्लेबाज का नाम वीरेंद्र सहवाग है. वही सहवाग जिन्होंने मरते हुए टेस्ट क्रिकेट को अपनी शानदार बैटिंग से जवां बना दिया. यह बात समझ के बाहर है कि इतने बेहतरीन खिलाड़ी को क्यों भारतीय क्रिकेट बोर्ड सम्मान के साथ विदा नहीं कर पाया. आखिर क्यों देश का गौरव बढ़ाने वाले खिलाड़ियों को नही मिल पाती यादगार विदाई?
कहीं बेहतर विदाई के हकदार थे सहवागः
जिस बल्लेबाज ने इंटरनैशन क्रिकेट में 38 शतक और 17 हजार रन बनाएं हों, जो टेस्ट क्रिकेट में तिहरा शतक बनाने वाला एकमात्र भारतीय बल्लेबाज हो, जिसके नाम टेस्ट क्रिकेट में सबसे तेज तिहरे शतक का कारनामा दर्ज हो. एक ऐसा रिकॉर्ड, जो ब्रैडमैन और लारा जैसे महान बल्लेबाज नहीं बना पाए. अगर उस बल्लेबाज को खामोशी के साथ क्रिकेट से संन्यास ले लेना पड़े तो ये बात अखरती है. कितना दुखद है यह सुनना कि सहवाग कह रहे हैं कि विदाई मैच न खेल पाने का मलाल उन्हें ताउम्र रहेगा. जिस क्रिकेटर का लोहा पूरा दुनिया मानती आई, जो भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े सितारों में से एक रहा हो उसे भारतीय क्रिकेट बोर्ड सम्मानपूर्वक विदा तक नहीं कर पाया. लेकिन जिस क्रिकेट बोर्ड की ऊर्जा आईपीएल जैसे तमाशा क्रिकेट और उसके भ्रष्टाचार को छुपाने और धनी से और धनी बनते चले जाने में खपती हो उससे आप इससे ज्यादा उम्मीद भी क्या कर सकते हैं. सहवाग ही क्यों, उससे पहले राहुल द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे महान खिलाड़ियों को भी ऐसे ही चुपचाप चले जाना पड़ा था. विदाई मैच तो छोड़िए बीसीसीआई के पास उनके सम्मानपूर्वक विदाई की योजना तक नहीं थी. काश कि बीसीसीआई इस मामले में ऑस्ट्रेलिया से कुछ सीख पाता, जो अपने स्टार खिलाड़ियों का सम्मान करने के मामले में एक मिसाल है. स्टीव वॉ से लेकर पोंटिंग और वॉर्न तक की विदाई इसका शानदार उदाहरण है.
अपने लीजेंड्स का सम्मान करना नहीं जानता देश?
वीरेंद्र सहवाग ऐसे पहले खिलाड़ी नहीं है जिनके साथ ऐसा सलूक किया गया हो. भारतीय खेलों का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है. न सिर्फ क्रिकेट बल्कि हर खेल के दिग्गज खिलाड़ियों के साथ हमारे यहां ऐसा ही सलूक होता आया है. कुछ साल पहले आई एक रिपोर्ट में भारत के लिए ओलिंपिक में पहला व्यक्तिगत मेडल जीतने वाले पहलवाल केडी जाधव के परिवार के गरीबी से जूझने का जिक्र था. अब आप खुद ही अंदाजा लगाइए कि अपने चैंपियनों के साथ इस देश की सरकारें कैसा सलूक करती हैं. यहीं क्यों हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद के साथ क्या किया गया? होना तो यह चाहिए था कि उन्हें युवाओं का आर्दश बनाकर हॉकी के खेल का विकास किया जाता लेकिन ध्यानचंद को उनके जन्मदिन पर याद भर कर लेने की रस्मअदायगी के अलावा कुछ नहीं किया जाता. देश के लिए तीन ओलिंपिक गोल्ड मेडल जीतने वाले ध्यानचंद को भारत रत्न के लायक ही नहीं समझा गया. अपने लीजेंड्स के साथ इतना खराब व्यवहार इसी देश में हो सकता है. इस देश को अपने लीजेंड्स को भुला देने की पुरानी बीमारी है.
सरकारें, मीडिया, हम और आप हर कोई जिम्मेदारः
भारतीय हॉकी टीम ने ओलिंपिक में 8 गोल्ड मेडल जीते लेकिन शायद ही इन टीमों का हिस्सा रहे किसी खिलाड़ी के बारे में आज की पीढ़ी जानती हो. इसके लिए कौन जिम्मेदार हैं, सरकारें, नेता, खेल प्रशासन, भ्रष्ट अधिकारी या फिर मीडिया. जी नहीं, ये सब ही नहीं इसके लिए हम, आप और पूरा समाज ही जिम्मेदार है. क्या देश का सम्मान बढ़ाने वाली शख्सियतों की धरोहर को संजोना और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना देश और उसके नागरिकों की जिम्मेदारी नहीं है. या हम बस दूसरों पर दोष डालकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे. देश के इसी रवैये से निराश होकर 1948 की ओलिंपिक गोल्ड मेडल विजेता हॉकी टीम के सदस्य रहे लेस्ली क्लॉडियस ने अपनी मृत्यु से पहले कोलकाता में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था, जिन खिलाड़ियों ने देश का गौरव बढ़ाया क्यों उन्हें देश बुढ़ापे में घर के कोने में पड़े पुराने फर्नीचर की तरह गरीबी और मुफलिसी में जीने के लिए अकेला छोड़ देता है? यह दर्द क्लॉडियस का ही नहीं, उन जैसे कई खिलाड़ियों का है, जिन्हें उनके ही अपने देश ने भुला दिया.
सहवाग की घटना ने इस बात को फिर साबित किया है कि खेल और खिलाड़ियों के प्रति इस देश का रवैया क्या है. देश की इसी आदत ने उसे कभी खेल की महाशक्ति नहीं बनने दिया और अगर यह रवैया नहीं सुधरा तो चीन को टक्कर देने और ओलिंपिक में जीतने का सपना देखना तो छोड़ ही दीजिए.
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