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Updated: 04 अक्टूबर, 2015 06:58 PM
अभिषेक पाण्डेय
अभिषेक पाण्डेय
  @Abhishek.Journo
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टेस्ट इतिहास में सबसे ज्यादा विकेट लेने वालों में पहले दो नंबर पर काबिज शेन वॉर्न और मुथैया मुरलीधरन को क्रिकेट इतिहास के सर्वकालिक महान गेंदबाजों में गिना जाता है लेकिन अफसोस कि इन दोनों को ही कभी उनके देश की टीमों ने कप्तानी के लायक नहीं समझा.

भारत के महान स्पिनर रहे अनिल कुंबले ने कहा है कि गेंदबाजों के साथ भेदभाव होता है और शायद इसीलिए उन्हें बल्लेबाजों की अपेक्षा कप्तान बनने का अवसर कम दिया जाता है. आखिर क्या वजह है कि टीम की जीत में बल्लेबाजों के बराबर ही योगदान देने वाले गेंदबाजों को नेतृत्व करने का मौका नहीं मिलता है.

जीत में बराबर का योगदान, फिर भेदभाव क्यों: कुंबले की बात को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है और इसमें दम नजर आता है. इसकी वजह उनका वह तर्क है, जिसके मुताबिक क्रिकेट के इतिहास में भारत से 4 और ऑस्ट्रेलिया तथा इंग्लैंड से सिर्फ 2-2 कप्तान ही ऐसे हुए हैं, जोकि विशुद्ध गेंदबाज रहे हैं. ये आंकड़ें दिखाते हैं कि न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया में गेंदबाजों को नेतृत्व देने में हिचक साफ नजर आती है. शायद उन्हें विचारक नहीं माना जाता है. तो क्या गेंदबाजों के पास दिमाग नहीं होता है? कुंबले इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि यह गेंदबाज ही होता है, जो 20 विकेट चटकाने की योजना बनाता है और इसके लिए रणनीति तैयार करता है कि किस बल्लेबाज को कहां गेंद डालनी है और किसकी क्या कमजोरी है. तो सवाल उठता है कि जो गेंदबाज विपक्षी टीम के 20 विकेट चटकाने की योजना बनाने और उसे अमली जामा पहनाने का काम कर सकता है, क्या वह टीम का कप्तान बनकर उसे अपनी सोच से आगे नहीं ले जा सकता है. जाहिर सी बात है कि यहां कमी गेंदबाजों में नहीं बल्कि गेंदबाजों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाने वाले उन लोगों की है, जिन्हें लगता है कि एक गेंदबाज टीम का नेतृत्व नहीं कर सकता.

कुंबले के साथ भी वही हुआः कुंबले ने खुद 14 टेस्ट मैचों और 1 वनडे में टीम इंडिया की कप्तानी की. लेकिन उनके कद को देखते हुए इतने कम मैचों में उन्हें मिली कप्तानी का मौका दिखाता है कि गेंदबाजों को लेकर वाकई चयनकर्ताओं का नजरिया पक्षपातपूर्ण रहता है. कुंबले के नाम टेस्ट मैचों में भारत के लिए सबसे ज्यादा विकेट (619) लेने का रिकॉर्ड दर्ज है, अपने शानदार प्रदर्शन से कई बार उन्होंने भारत को यादगार जीत दिलाई है लेकिन इसके बावजूद उन्हें कप्तान बनने का मौका करियर के आखिरी दिनों में तब मिला, जब चयनकर्ताओं के पास सीमित विकल्प बचे थे. शायद यही कारण है कि शेन वॉर्न को 708 टेस्ट विकेट लेने के बावजूद महज 11 वनडे मैचों में ही ऑस्ट्रेलिया की कप्तानी का मौका मिला जबकि मुरलीधरन तो 800 टेस्ट विकेट लेकर भी कभी श्रीलंका के कप्तान नहीं बन पाए. स्पष्ट है कि इन दोनों ने अपने दौर में किसी भी मायने में टीम की जीत में बल्लेबाजों से कम योगदान नहीं दिया लेकिन इसके बावजूद इन्हें कप्तानी के लायक नहीं समझा गया. सिर्फ वॉर्न और मुरलीधरन ही क्यों, क्रिकेट का इतिहास तो ऐसे महान गेंदबाजों के नामों से भरा पड़ा है, जिन्हें उनकी शानदार सफलता और उत्कृष्ठ प्रतिभा के बावजूद भी टीम की कप्तानी करने का मौका नहीं मिला. फिर चाहे वह सर रिचर्ड हैडली हों या वेस्ट इंडीज के कर्टली एम्ब्रोस और मैल्कम मार्शल या भारत के जवागल श्रीनाथ हों या ऑस्ट्रेलिया के ग्लैन मैक्ग्रा और साउथ अफ्रीका के एलन डोनाल्ड.

बल्लेबाजों के दबदबे वाले खेल में गेदबाजों की पूछ नहीं: क्रिकेट को अक्सर बल्लेबाजों का खेल कहा जाता है. हाल के कुछ वर्षों में नियमों में बदलाव भी इसी ओर इशारा करते हैं कि इसकी संचालन संस्था को लगता है कि बिना बल्लेबाजों की मदद के ये खेल आगे नहीं बढ़ पाएगा. शायद बल्लेबाजों के इसी दबदबे के कारण ही कप्तानी के मामले में भी उन्हें गेंदबाजों से ज्यादा तवज्जो दी जाती है, फिर भले ही टीम की सफलता में दोनों का योगदान बराबर ही क्यों न हो. शायद यही वजह है कि भारतीय टीम में सचिन द्वारा कप्तानी छोड़ने पर युवा सौरव गांगुली को तो कप्तानी सौंपी जाती है लेकिन उनसे कहीं सीनियर कुंबले और श्रीनाथ के नाम पर विचार तक नहीं किया जाता. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में स्टीव वॉ के बाद पोंटिंग को कप्तान बनाते समय मैक्ग्रा और शेन वॉर्न को कप्तान बनाने के बारे में नहीं सोचा जाता है.

क्रिकेट को निश्चित तौर पर बल्लेबाज आकर्षक बनाते हैं और लोग चौके-छक्के देखने आते हैं लेकिन शेन वॉर्न, मुरलीधरन और कुंबले की घूमती गेंदों का जादू और डेनिस लिली, शोएब अख्तर और ब्रेट ली जैसे गेंदबाजों की आग उगलती गेंदबाजी देखने वालों की संख्या भी कम कतई नहीं है. कोई भी टीम बिना गेंदबाजों के नहीं जीत सकती है, फिर चाहे उसके पास 11 बेहतरीन बल्लेबाज क्यों न हों. इसलिए अगर टीम की जीत के लिए दोनों की जरूरत है तो सम्मान भी दोनों को बराबर ही मिलना चाहिए.

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लेखक

अभिषेक पाण्डेय अभिषेक पाण्डेय @abhishek.journo

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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