जिम्बाब्वे दौरा धोनी की मजबूरी है या जरूरत?
क्या कारण है कि इस बार जिम्बाब्वे दौरे की कमान धोनी को सौंपी गई है. जिम्बाब्वे दौरा धोनी की मजबूरी है या उनकी जरूरत? वे 11 साल बाद जिम्बाब्वे में खेलेंगे. तब का दौर और फिर आज...क्या बदला है इन वर्षों में?
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इस बात से तो सब वाकिफ हैं कि वर्ल्ड क्रिकेट में टीम इंडिया के सामने जिम्बाब्वे कहीं नहीं ठहरता. घरेलू राजनीति और विवादों के कारण रसातल में जा पहुंचा जिम्बाब्वे का क्रिकेट फिलहाल दोबारा अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश भर कर रहा है. लेकिन इन सबके बावजूद टीम इंडिया का ये दौरा खास हो गया है, कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के कारण. दरअसल, पिछले छह वर्षों में टीम इंडिया का यह चौथा जिम्बॉब्वे दौरा है. लेकिन दिलचस्प बात ये कि धोनी 2005 के बाद पहली बार जिम्बाब्वे में खेलेंगे. वैसे ये बात अगर रोचक है, तो साथ-साथ कई सवाल भी खड़े करती है.
आखिर क्या कारण है कि इस बार जिम्बाब्वे दौरे की कमान धोनी को सौंपी गई है. जिम्बाब्वे दौरा धोनी की मजबूरी है या उनकी जरूरत? एक दलील दी जा रही है कि संभवत: अगले एक साल में टीम इंडिया को ज्यादातर टेस्ट मैच ही खलने हैं. ऐसे में धोनी को क्रिकेट से दूर रहना होगा. इसलिए, इस बार उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई. बाकी सभी सीनियर्स खिलाड़ी जिसमें विराट कोहली से लेकर अंजिक्य रहाणे तक शामिल हैं, को आराम दिया गया.
जिम्बाब्वे दौरे से क्या साबित करना चाहते हैं धोनी? |
रहाणे ने पिछले साल जिम्बाब्वे दौरे में टीम इंडिया की कमान संभाली थी. क्या इस बार भी ऐसा कुछ नहीं हो सकता था? क्या सुरेश रैना को मौका दिया जा सकता था? वैसे भी इस आईपीएल में बतौर कप्तान वह बेहद सफल रहे थे.
सवाल उस टीम पर भी है जो इस दौरे के लिए चुनी गई. 16 सदस्यों की इस टीम में धोनी के बाद दूसरे सबसे अनुभवी खिलाड़ी अंबाती रायडू हैं जिन्होंने 31 वनडे खेले हैं. छह खिलाड़ी तो ऐसे हैं जिन्होंने एक भी वनडे मैच नहीं खेला है. धोनी के पास 275 मैचों का अनुभव है, लेकिन बाकी के 15 खिलाड़ियों के वनडे मैचों की गिनती कीजिए तो वो केवल 83 पर आकर रूक जाती है.
जाहिर है, एक अंतर साफ-साफ देखा जा सकता है. जिम्बाब्वे जरूर एक कमजोर टीम मानी जाती है, लेकिन ये भी तो ध्यान रखना होगा कि ये इंटरनेशनल क्रिकेट है. क्या चुनी गई टीम उस स्तर पर जाकर प्रदर्शन कर सकेगी?
टीम सेलेक्शन के बाद संदीप पाटिल ने मीडिया को बताया था कि धोनी स्वयं इस दौरे के लिए खासे उत्साहित थे और युवा खिलाड़ियों का नेतृत्व करना चाहते थे. इसलिए उन्हें मौका दिया गया. फिर भी, ये सवाल तो है कि 11 साल बाद धोनी अगर जिम्बाब्वे जाने के लिए तैयार हुए, तो ये मजबूरी है या इच्छा. क्योंकि पिछले एक दशक में बहुत कुछ बदला है. टीम इंडिया में भी और एक समय युवा खिलाड़ियों की पैरवी करने वाले धोनी के खेल में भी.
11 साल का फासला और धोनी का सफर-
आज के दौर की बात करने से पहले जरूरी है कि 2005 के उस दौरे को याद किया जाए और ये भी कि इन वर्षों में टीम इंडिया कितनी बदल गई. धोनी कितने बदल गए, उनका अंदाज कितना बदल गया. धोनी तब इंटरनेशनल क्रिकेट में नया चेहरा थे. बेखौफ खेलते थे. दुनिया ने 11 साल पहले के माही के उस रूप को खूब देखा है जब वो लंबे लहराते बालों के साथ मैदान में कदम रखते थे.
लंबे बालों और लंबे छक्के लगाने वाले 'वो' धोनी |
लंबे-लंबे छक्के और तेजतर्रार शॉट बल्ले ऐसे निकलते थे मानो रनों की बरसात हो रही हो. वो दौर था जब गेंद पर पूरे ताकत के साथ प्रहार करने के धोनी के उस अंदाज पर दुनिया फिदा हुई थी.
तब जिम्बाब्वे के अपने पहले दौरे पर धोनी ने मेजबान टीम के खिलाफ दो मैचों में लगातार दो शानदार पारियां खेली. पहला, 29 अगस्त 2005-धोनी ने सिर्फ 46 गेंदों में 56 रन बनाए. और फिर 4 सितंबर 2005- 63 गेंदों में 67 रनों की नाबाद पारी. दोनों ही मैच मैच में धोनी इकलौते भारतीय खिलाड़ी थे जिनकी औसत के साथ स्ट्राइक रेट भी 100 से ज्यादा थी. उस दौरे के बाद भारतीय क्रिकेट में धोनी का कद समय के साथ बढ़ता चला गया. वक्त ने ऐसी करवट बदली कि कप्तानी की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई. सीनियर खिलाड़ियों में शुमार हुए और फिर जिम्बाब्वे जाने की जरूरत भी नहीं रही.
मगर अब ना तो वौ दौर रहा और ना ही वो धोनी. 11 साल बाद अगर धोनी जिम्बाब्वे पहुंचे हैं तो उसके पीछे उनकी इच्छा कम और मजबूरियां ज्यादा रही है. वैसे तो कुल 6 मैचों की सीरीज है मगर ये 6 मैच धोनी की करियर के लिए नए मील का पत्थर बन सकते है. अगर वो कप्तानी के साथ साथ बल्लेबाजी का भी जमकर मजा लें तो सिर्फ टीम को ही नहीं बल्कि इससे धोनी को भी खूब फायदा होगा. हालात की मांग ही है कि एक बार फिर धोनी उसी अंदाज में खेलें. फिर से 2005 की तरह ही बल्ले से धाक दिखाएं. अगर ऐसा हुआ तो उनपर उठ रहे तमाम सवाल भी खत्म होंगे और शायद धोनी भी अपने हिसाब से अपने भविष्य का फैसला कर पाएंगे.
और आखिर में, अगर 2005 के उस दौरे को याद कीजिए तो ये वही दौरा था जब पहली बार सौरव गांगुली और ग्रेग चैपल के बीच मतभेद की खबरें सामने आई थी. ईमेल लीक से लेकर ड्रेसिंग रूम की राजनीति तक सबकुछ छप रहा था. कहा तो ये भी जाता है कि टीम के कप्तान गांगुली ही बीच में दौरा छोड़ स्वदेश वापसी के मूड में थे. इस मतभेद का ही नतीजा रहा है कि गांगुली को कप्तानी से हाथ धोना पड़ा.
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