विराट कोहली सिर आंखों पर तो मिताली राज क्यों नहीं?
महिला खिलाड़ियों से भेदभाव खत्म करना है तो खेलों में पुरुष प्रधान सोच बदलनी होगी. क्योंकि हालही में जो हुआ वो बहुत दुखद है.
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1983 वर्ल्ड कप में जिम्बाब्वे के ख़िलाफ़ कपिल देव की 175 रन की ताबड़तोड़ पारी को कभी नहीं भूला जा सकता. कपिल देव की उसी पारी को भारतीय क्रिकेट के लिए टर्निंग प्वाइंट माना जा सकता है. इस मैच को टीवी पर नहीं देखा जा सका था. दरअसल, इस मैच की मैदान पर रिकॉर्डिग हुई ही नहीं थी. उस दिन बीबीसी में हड़ताल की वजह से किसी कैमरामैन ने मैच को कवर नहीं किया. तब सभी भारतीयों ने रेडियो कमेंट्री के जरिए ही उस मैच के रोमांच का मजा लिया था. टीवी पर उस मैच को ना देख पाने की कसक आज तक कचोटती है. जैसा गुस्सा उस दिन आया, वैसा ही आज 8 जुलाई को आया. इंग्लैंड के लीसेस्टर शहर में महिला ओडीआई वर्ल्ड कप में भारत और साउथ अफ्रीका के बीच मैच खेला गया. लेकिन इस मैच का लाइव प्रसारण किसी टीवी चैनल पर नहीं हुआ. इस मैच में विशेष तौर पर भारत की कप्तान मिताली राज पर पूरी दुनिया की नजरें थीं. मिताली राज इस मैच में 41 रन बना लेंती तो दुनिया में वनडे मैचों में 6000 रन पूरे करने वाली दुनिया की पहली महिला क्रिकेटर बन जातीं. अफसोस मिताली इस मैच में ये उपलब्धि हासिल नहीं कर सकीं और बिना खाता खोले ही पवेलियन लौट आईं.
मिताली जल्दी ही ये उपलब्धि हासिल करेंगी, इसमें कोई शक नहीं. शायद अगले मैच में ही. भारत और साउथ अफ्रीका के बीच लीसेस्टर में शनिवार को खेला गया मैच आखिर टीवी स्पोर्ट्स चैनल पर क्यों नहीं दिखाया गया? कोई 1983 की तरह बीबीसी जैसी हड़ताल भी नहीं थी. फिर क्या वजह ये मैच नहीं दिखाने की. इसके पीछे की वजह है पुरुष प्रधान मानसिकता, जो प्रसारकों से लेकर मार्केटिंग मैनेजर्स तक, सभी जगह हावी है. ये मैच इसलिए नहीं दिखाया गया क्योंकि इंग्लैंड और साउथ अफ्रीका की पुरुष टीमों के बीच लॉर्ड्स पर टेस्ट मैच खेला जा रहा था, जिसे दिखाना पुरुष प्रधान सोच वालों के लिए ज़्यादा ज़रूरी था.
अब यहां दिमाग में एक कल्पना कीजिए. मान लीजिए पुरुषों का वर्ल्ड कप हो रहा है. वहीं साथ ही किन्हीं दो देशों में महिला टीमों के बीच टेस्ट मैच हो रहा है. तो क्या कोई ऐसी ज़ुर्रत करेगा कि पुरुषों के वर्ल्ड कप मैच को ना दिखाकर महिलाओं के टेस्ट मैच को दिखाए. हर्गिज ऐसा नहीं होगा. क्योंकि दुनिया पुरुष प्रधान सोच और बाज़ारवाद से चलती है. महिलाओं के मैच को टीवी पर दिखाना टीआरपी के नजरिए से फिलहाल बिकाऊ सौदा नहीं है, इसलिए उसे नहीं दिखाने का फैसला किया गया.
हम अपने देश पर ही आते हैं. दिल पर हाथ रख कर बताइए कि जैसे हम क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, विराट कोहली आदि को सिर आंखों पर बिठाते हैं, वैसे हमने क्या कभी मिताली राज या बोलिंग लीजेंड झूलन गोस्वामी को मान दिया है. एक ही खेल है. खेल के प्रशासक-बोर्ड भी वही हैं, फिर ये भेदभाव क्यों? स्टार पुरुष क्रिकेटर्स पर पैसों की बरसात तो महिला स्टार क्रिकेटर्स पर क्यों नहीं.
यहां अगर कहा जाए कि रातों रात भेदभाव खत्म हो जाएगा और महिलाओं से खेलों में बराबरी का व्यवहार होने लगेगा तो ये सिर्फ कोरी कल्पना ही होगी. फिर ये भेदभाव कैसे खत्म होगा. ये तभी होगा जब हम सबसे पहले मानसिकता बदलेंगे. अधिक से अधिक बेटियां खेल में करियर बनाने के लिए आगे आएं. कोई मिताली-झूलन जी-तोड़ मेहनत कर नाम कमाएं तो उन्हें भी बीसीसीआई, सरकार और प्रायोजकों की तरफ़ से वैसा ही प्रोत्साहन मिले जैसा कि पुरुष स्टार क्रिकेटर्स को मिलता है. ऐसा माहौल बनेगा तो अधिक लड़कियां खेलों की ओर प्रेरित होंगी. क्रिकेट ही क्यों, हर खेल में ही क्यों नहीं. यहां ‘दंगल’ फिल्म का डॉयलॉग याद आता है, मेडल छोरा लाए या छोरी, मेडल तो मेडल ही होता है, उससे मान तो तिरंगे का ही बढ़ता है. अब ‘दंगल’ में कोई तो बात होगी जो चीन जैसे खेल प्रधान देश में भी उसका जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है.
भारत में सानिया मिर्जा (टेनिस), साइना नेहवाल, पीवी सिंधू (बैडमिंटन) जैसी कुछ खिलाड़ी अपनी मेहनत से ऊंचे मकाम पर पहुंची लेकिन जहां महिलाओं की टीम स्पर्धाओं का उल्लेख होता है तो उन्हें कवरेज के लिहाज से बोरिंग ही माना जाता है. इसी कवरेज में सबसे ज्यादा भेदभाव होता है. रिसर्च बताती हैं कि स्पोर्ट्स मीडिया आउटलेट्स महिलाओं के गेम की कवरेज को हल्के में लेते हैं. सुस्त कैमरावर्क, कम एक्शन रीप्ले और सब स्टैंडर्ड कमेंट्री, जबकि आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में विजिबिलिटी ही मायने रखती है.
महिला खेलों को देखने के लिए जितने दर्शक बढ़ेंगे, उतना ही उनसे भेदभाव खत्म होगा. मार्केट फोर्सेज भी मजबूर होंगी. महिला खेलों के लिए अधिक स्पॉन्सर्स आगे आएंगे. उन्हें मेहनताने के तौर पर अच्छी रकम मिलेगी. ब्रैंड इमेजिंग वाली कंपनियां महिला खिलाड़ियों को भी तवज्जो देने लगेंगी. अभी ये तर्क दिया जाता है कि महिला खेल स्पर्धाओं को अधिक दर्शक नहीं मिलते, इसलिए उन्हें टीवी और मार्केट में ज्यादा भाव नहीं दिया जाता. लड़कियां स्पोर्ट्स को करियर बनाने के लिए ज्यादा आगे आएं. वहीं स्पॉन्सरशिप्स, कवरेज, खेल संगठनों और आयोजकों में भी पूर्व खिलाड़ी रह चुकी महिलाओं और कुशल महिला प्रशासकों को अधिक जगह मिलेगी तो उनकी सुनी भी जाएगी. अभी तो उनकी भागीदारी ना के बराबर तक सीमित रखी गई है. इस दिशा में खेल मंत्रालय समेत राज्य सरकारों को भी ध्यान देना होगा. योग्य
महिला खिलाड़ियों को छात्रवृत्ति, सरकारी नौकरी देकर पुरुस्कृत किया जाना चाहिए. उन्हें ये चिंता नहीं होनी चाहिए कि स्पोर्ट्स को करियर बनाने से सम्मान के साथ जिंदगी जी पाएंगी या नहीं. यहां हम सब को, खास तौर पर पुरुषों को, महिलाओं को लेकर सोच बदलनी पड़ेगी. अभी पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान और सीमर वकार यूनुस ने ट्वीट में कहा है कि महिलाओं के वनडे मैचों के लिए ओवर्स की संख्या 50 से घटा कर 30 कर देनी चाहिए. ये खेल को अधिक मनोरजंक और प्रतिस्पर्धात्मक बनाएगा.
कम ओवर होंगे तो तेज पेस होगी, मतलब ज्यादा दर्शक आएगे. यूनुस के मुताबिक 50 ओवर महिलाओँ के लिए बहुत ज्यादा होते हैं यानि इतने ओवर्स खेलने के लिए जितना स्टैमिना होना चाहिए उतना महिलाओं के पास नहीं होता. वकार यूनुस ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए ये तर्क भी दिया है कि टेनिस में भी तो पुरुषों के लिए मैच में 5 सेट और महिलाओं के लिए सिर्फ 3 सेट ही रखे जाते हैं. यूनुस ये लिखना भी नहीं भूले कि उनके बयान को महिलाओं को लेकर भेदभाव से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए और ना ही उनके मन में कोई दुर्भावना है. इस सोच के पीछे वकार के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन इसका सटीक जवाब ऑस्ट्रेलिया की क्रिकेटर एलिसा हीली ने दिया. हीली ने कहा कि महिलाओँ के 50 ओवर के मैच में 530 जितने रन बनना क्या मनोरंजक नहीं है. एक ही मैच में दो खिलाड़ियों ने शानदार प्रदर्शन किया. हीली महिला वर्ल्ड कप में हुए ऑस्ट्रेलिया-श्रीलंका मैच का हवाला दे रही थीं. इस मैच में श्रीलंका की चमारी अट्टापट्टू ने 178 रन की पारी खेली. इसका जवाब ऑस्ट्रेलियाई कप्तान मेग लेनिंग ने 152 रन नाबाद की पारी से अपनी टीम को जिता कर दिया.
आपने सब बातें पढ़ लीं लेकिन अभी सबसे अहम आना बाकी हैं. वो है एक पत्रकार के सवाल में भारतीय महिला टीम की कप्तान मिताली राज का जवाब. दरअसल, इस वर्ल्ड कप के लिए भारत से इंग्लैंड रवानगी से पहले बेंगलुरू में मिताली राज से किसी पत्रकार ने ये सवाल पूछ लिया था कि उनका सबसे पसंदीदा पुरुष क्रिकेटर कौन है? इस सवाल का जवाब देने में मिताली ने एक मिनट की भी देर नहीं लगाई. मिताली ने पलटकर कहा कि यही सवाल पुरुष क्रिकेटर्स से क्यों नहीं पूछा जाता कि उनकी पसंदीदा महिला क्रिकेटर कौन सी है? मिताली के मुताबिक उनसे ये सवाल अक्सर किया जाता है. क्यों उनका पसंदीदा क्रिकेटर पुरुष ही होना चाहिए, महिला क्रिकेटर क्यों नहीं...
मिताली ने सुलझा हुआ जवाब दिया कि पुरुष क्रिकेटर्स को लेकर कोई दुर्भावना नहीं है. बल्कि पुरुष क्रिकेटर्स ने कुछ मानदंड तय कर रखे हैं जहां तक महिला क्रिकेटर्स को पहुंचना है. हम महिलाएं इसलिए पुरुषों का क्रिकेट देखती हैं कि हमारा स्तर भी उन तक पहुंच जाएं. मिताली ने ये बात मानी कि महिला क्रिकेटर्स को लेकर अब स्थिति में कुछ बदलाव आना शुरू हुआ है. इसके लिए बीसीसीआई की कोशिशों की उन्होंने तारीफ भी की. मिताली ने कहा कि पहले महिला क्रिकेट मैचों का टीवी पर प्रसारण नहीं होता था इसलिए उनके बारे में कोई ज्यादा जानता नहीं था. लेकिन बोर्ड ने पिछली दो सीरीज का टीवी प्रसारण किया है. इसके अलावा सोशल मीडिया के आने से भी महिला खिलाड़ियों के हक में आवाज उठने लगी है....
मिताली की आखिरी बात अहम है. सोशल मीडिया पर तो महिला खिलाड़ियों के हक़ में पुरजोर आवाज़ उठा ही जा सकती है. ऐसा होगा तो खेल के कर्णधारों पर दबाव बढ़ेगा. महिला खिलाड़ियों को अधिक से अधिक मौके, मान-सम्मान मिले, यही सब की कोशिश होनी चाहिए. यहां सवाल पुरुष खिलाड़ियों को कम कर आंकने का नहीं बराबरी का है.
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