लैंडर विक्रम 2.1 किमी नहीं, 400 मीटर की ऊंचाई तक संपर्क में था!
Chandrayaan 2 के लैंडर विक्रम (Lander Vikram) के ग्राफ को देखने से पता चलता है कि लैंडर 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई के बाद भी ISRO के संपर्क में था. हालांकि, चांद की सतह से करीब 400 मीटर की ऊंचाई पर इसरो का संपर्क लैंडर से टूट गया.
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Chandrayaan 2 के लैंडर विक्रम (Lander Vikram) से अभी तक ISRO संपर्क स्थापित नहीं कर सका है. संपर्क टूटने के अगले ही दिन ऑर्बिटर ने लैंडर की थर्मल इमेज भेजकर ये तो बता दिया था कि लैंडर कहां है, लेकिन इसरो अभी तक लैंडर से कम्युनिकेशन नहीं कर सका है. कोई कम्युनिकेशन नहीं होने की वजह से ही ये भी नहीं पता चल पा रहा है कि आखिर अंत के पलों में लैंडर के साथ क्या हुआ था. आपको बता दें कि 7 सितंबर को लैंडर जब चांद की सतह पर लैंड कर रहा था, उसी दौरान इसरो का उससे संपर्क टूट गया था. इस संपर्क टूटने को लेकर भी एक कंफ्यूजन का फैला हुआ है. पहले कहा जा रहा था कि संपर्क करीब 2.1 किलोमीटर ऊपर टूटा, लेकिन अगर लैंडर की लैंडिंग का ग्राफ देखें, तो एक अलग ही तस्वीर नजर आती है, जो ये साफ करती है कि लैंडर से इसरो का संपर्क 400 मीटर ऊपर टूटा, ना कि 2.1 किलोमीटर ऊपर.
इसरो लगातार लैंडर विक्रम से संपर्क करने की कोशिश कर रहा है और 21 सितंबर तक प्रयास जारी रहेगा.
दरअसल, यहां सारा कंफ्यूजन इसरो के ट्वीट को इंटरप्रेट करने के तरीके से हुआ. इसरो ने अपने ट्वीट में ये कहीं नहीं लिखा था कि चांद की सतह से 2.1 किलोमीटर पर इसको का लैंडर के साथ संपर्क टूट गया. हां, उस ट्वीट का ऐसा मतलब निकाल लिया जाना कोई बड़ी बात नहीं है. इसरो ने ट्वीट किया था- 'ये मिशन कंट्रोल सेंटर है. विक्रम लैंडर 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई तक योजना के हिसाब से गया. इसके बाद लैंडर के साथ कम्युनिकेशन टूट गया. आंकड़ों का विश्लेषण किया जा रहा है.'
This is Mission Control Centre. #VikramLander descent was as planned and normal performance was observed up to an altitude of 2.1 km. Subsequently, communication from Lander to the ground stations was lost. Data is being analyzed.#ISRO
— ISRO (@isro) September 6, 2019
अब अगर एक नजर लैंडर के ग्राफ पर डालें तो पता चलेगा कि लैंडर 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई के बाद भी इसरो के संपर्क में था, क्योंकि उसके बाद भी इसरो को ये पता था कि लैंडर कहां और कैसे जा रहा है. हालांकि, चांद की सतह से करीब 400 मीटर की ऊंचाई पर इसरो का संपर्क लैंडर से टूट गया.
चांद की सतह से करीब 400 मीटर की ऊंचाई पर इसरो का संपर्क लैंडर से टूटा था, ना कि 2.1 किलोमीटर पर.
तस्वीर में तीन लाइनें हैं. बीच वाली लाइन लैंडर का रास्ता दिखा रही है. लाल लाइन वो है, जिससे होते हुए विक्रम को चांद की सतह पर लैंड करना था और हरी लाइन वो लाइन है, जिस रास्ते से वास्तव में लैंडर गुजरा. ग्राफ में साफ देखा जा सकता है कि 5 और 3 किलोमीटर की ऊंचाई पर भी लैंडर के रास्ते में कुछ दिक्कत आई थी, लेकिन 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई पर लैंडर पूरी तरह से अपने रास्ते से भटक गया. बल्कि ये कहना गलत नहीं होगा कि वहां से लैंडर ने योजना के मुताबिक चलने के बजाय गिरना शुरू कर दिया. 400 मीटर तक तो इसरो देखता भी रहा कि वह कैसे गिर रहा है, लेकिन उसके बाद इसरो का उससे संपर्क पूरी तरह टूट गया. यहां हो सकता है कि 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई पर इसरो का लैंडर के साथ कम्युनिकेशन टूट गया हो. यानी लैंडर की तरफ से इसरो के रेस्पॉन्स मिलता रहा हो, लेकिन 2.1 किलोमीटर के बाद कनेक्शन सिर्फ एकतरफा रह गया हो. जैसे कि जीपीएस से सिर्फ ये पता चलता है कि कोई चीज किधर जा रही है, उससे बात नहीं कर सकते.
संपर्क स्थापित होने की संभावना है भी या नहीं?
चांद की सतह पर अगर एक बार बार लैंडर ठीक से लैंड हो जाता, तो शायद वहां के वातावरण के बारे में कुछ पता चल सकता. सतह से जुड़ी जानकारी नहीं होने की वजह से ये नहीं बताया जा सकता है कि संपर्क दोबारा होगा या नहीं. वैसे इसरो अपनी पूरी कोशिश कर रहा है कि कैसे भी कर के संपर्क स्थापित हो जाए. वैसे भी अब 14 में से 5 दिन निकल चुके हैं. यानी सिर्फ 9 दिन अंदर ही संपर्क स्थापित हुआ तो हुआ, वरना लैंडर से शायद कभी संपर्क स्थापित ना हो सके.
14 दिन ही क्यों, उसके बाद क्यों नहीं?
दरअसल, यहां 14 दिन धरती के हिसाब से बताए जा रहे हैं, ना कि चांद के. चांद पर एक लूनर डे 14 दिन का होता है. आपको बता दें कि चांद धरती का इकलौता प्राकृतिक उपग्रह है. ये धरती का एक चक्कर लगाने में 27.3 दिन लेता है और इतने ही दिन में ये अपनी धुरी के चारों ओर भी एक चक्कर पूरा करता है. यानी चांद के किसी भी हिस्से पर 14 दिन सूरज की रोशनी रहती है, जबकि बाकी के 14 दिन वहां अंधेरा रहता है. इसी 14 दिन के हिसाब से लैंडर को तैयार किया गया था. यहां ये जानना अहम है कि लैंडर सोलर पावर से चलता है, इसलिए बिना सूरज की रोशनी के वह नहीं चल पाएगा. ऐसे में 14 दिन तक अगर उससे संपर्क नहीं हो सका, तो मुमकिन है कि उससे दोबारा कभी संपर्क ना हो पाए. खैर, चमत्कार होते रहे हैं और फिर हो सकते हैं.
पहले भी हो चुका है चमत्कार!
इसरो 7 सितंबर से ही लैंडर से संपर्क करने की कोशिश कर रहा है और ये 14 दिन यानी 21 सितंबर तक जारी रहेगा. भले ही हर गुजरते दिन के साथ-साथ लोगों की उम्मीदें टूटती सी जा रही हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि घंटों, महीनें, बल्कि सालों बाद भी मिशन कंट्रोल का कम्युनिकेशन दोबारा जुड़ा है. ध्रुव स्पेस के फाउंडर संजय निकांति कहते हैं- इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है कि स्पेस मिशन में बाधाएं आई हों. सभी स्पेस मिशन में ऐसा वक्त आता है जब कम्युनिकेशन बाधित होता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण तो यूरोपियन स्पेस एजेंसी का रोसेटा/फिलाई मिशन (Rosetta/Philae mission) है.
रोसेटा मार्च 2014 में लॉन्च हुआ था, जिसका मकसद एक धूमकेतू पर 10 साल बाद पहुंचना था और उसकी सतह का अध्ययन करना था. वह 2014 में धूमकेतू पर पहुंचा और एक स्पेसक्राफ्ट (the Philae Lander) को उसकी सतह पर भेजा. 12 नवंबर 2014 को सतह पर स्थिर होने से पहले स्पेसक्राफ्ट ने एक ऊबड़-खाबड़ लैंडिंग की थी. उस समय फिलाई को इतनी एनर्जी चाहिए थी कि वह खुद को स्टार्ट कर सके और एक दिन उसने खुद को स्विच ऑन किया, जिसेक बाद रोसेटा ऑर्बिटर से उसका संपर्क जुड़ गया. फिलाई को रेस्पॉन्ड करने में करीब 7 महीने का वक्त लगा और 13 जून 2015 को उसने ऑर्बिटर से कम्युनिकेशन किया.
चंद्रयान-2 और रोसेटा में कई बातें एक जैसी हैं. रोसेटा ने चंद्रयान 2 मुकाबले करीब 1000 गुना अधिक ट्रैवल किया था. यानी धरती से चांद की दूरी करीब 4 लाख किलोमीटर है, तो रोसेटा ने 4000 लाख किलोमीटर की दूरी तय की. उसमें भी लैंडर ने लैंड किया था. हां ये बात सही है कि वहां पर लैंड नहीं किया, जहां की योजना बनाई गई थी. कुछ वैसा ही तो लैंडर विक्रम के साथ भी हुआ है. अब अगर रोसेटा का उदाहरण ही ले लें तो अगर लैंडर विक्रम के साथ कोई टूट-फूट नहीं हुई होगी, तो हो सकता है कि उससे संपर्क दोबारा स्थापित हो सके.
क्यों टूटता है ऑर्बिटर-लैंडर का कनेक्शन?
चंद्रयान-2 जैसे मिशन में कम्युनिकेशन सिस्टम एंटीना, ट्रांसमीटर्स और रिसीवर यूनिट्स से मिलकर बना होता है. सफल कम्युनिकेशन के लिए ये जरूरी है कि ये सारी चीजें सही रहें, खासकर क्रैश या हार्ड लैंडिंग में, जो लैंडर विक्रम के साथ हुई है. निकांति कहते हैं कि सैटेलाइट/रोवर/लैंडर के साथ कम्युनिकेश कई बातों पर निर्भर कर सकता है. स्टोरेज और पावर जनरेशन भी इसमें अहम रोल अदा करते हैं और प्लेनेट की सतह भी दिक्कत पैदा कर सकती है. धूल-मिट्टी की वजह से भी सोलर पैनल से पावर बनना मुश्किल हो सकता है. वहीं दूसरी ओर, बहुत ही खराब तापमान की वजह से भी पावर सिस्टम की परफॉर्मेंस पर असर पड़ता है.
अब इसरो चंद्रयान-2 के लैंडर के साथ बेंगलुरु के बयालालू में स्थित स्पेस सेंटर से संपर्क करने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए एंटेना का इस्तेमाल किया जाता है. आपको बता दें कि भारत के पास तीन एंटेना हैं- 11 मीटर, 18 मीटर और 32 मीटर का. 18 मीटर वाला एंटीना 2008 में चंद्रयान-1 के लिए बनाया गया था. ऑर्बिटर तो सीधे इसरो और नासा के डीएसएन एंटीना से सीधे कम्युनिकेट कर सकता है. 22 जुलाई से ही ऑर्बिटर दोनों ही नेटवर्क पर डेटा भेज रहा है. लैंडर को भी सीधे धरती से कम्युनिकेट करने के लिए बनाया गया था. हालांकि, लैंडर जरूरत पड़ने पर ऑर्बिटर से भी संपर्क कर सकता था और ऑर्बिटर डेटा को धरती तक भेजता. बता दें कि धरती और चांद के बीच की करीब 4 लाख किलोमीटर की दूरी तय करने में सिग्नल को 1.2 से 1.6 सेकेंड का एक तरफ से समय लगता है. इसरो की कोशिश जारी है और ये देखना दिलचस्प होगा कि वह कब तक लैंडर से संपर्क कर पाता है, या कर पाता है भी कि नहीं.
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