Google assistant का इंसान की तरह बात करना चहकने की नहीं, चिंता की खबर है
2017 में गूगल ने जोर दिया कि वो सिर्फ एक सर्च इंजन ही नहीं बने रहना चाहते. अभी भी ये एक कंपनी थी जो दुनिया के डेटा को सूचीबद्ध करने में दिलचस्पी रखती है. लेकिन अब एआई का उपयोग करके यह सब कुछ करना चाहती है.
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आखिर कितना आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) हमारे लिए सही रहेगा? किसी को भी इसका उत्तर नहीं पता है, कम से कम उन सभी गूगल इंजीनियरों को जो इस नई एआई क्रांति की मशाल लेकर चल रहे हैं. मंगलवार को आई/ओ 2018 सम्मेलन में, गूगल ने डुप्लेक्स का डेमो दिखाया. ये नए तरह का एआई है जो लोगों के बदले लोगों से उनके ही तरीके से बात करेगा.
ये साबित करने के लिए कि डुप्लेक्स वास्तव में किसी इंसान की नकल कर सकता है, गूगल ने एक कॉल की रिकॉर्डिंग चलाई जिसे एआई और एक व्यक्ति के साथ रिकॉर्ड किया था. कॉल में डुप्लेक्स एक सैलून में रिजर्वेशन कराता है. ठीक उसी हंसी ठहाके के साथ जैसे हम इंसान किसी से बात करते समय करते हैं. साथ ही चुप्पियों को भरने के लिए वो "मम्म्म" भी करता है. आईओ में भाग लेने वाले सैकड़ों इंजीनियरों और डेवलपर्स ने डुप्लेक्स द्वारा सैलून के असिस्टेंट को बेवकूफ बना देने पर जी भरकर ठहाके लगाए और तालियां बजाई.
लेकिन आईओ के बाहर डुप्लेक्स का स्वागत उसी गर्मजोशी से नहीं हुआ. और ये सही भी था.
हमारे फोन के जरिए डुप्लेक्स जब हमारे बीच रहने लगेगा तो सबसे ज्यादा चिंता की बात जो होगी वो है इंसानों की नकल करना. जिस तरह गूगल ने डुप्लेक्स का प्रदर्शन किया, उससे स्पष्ट था कि इसे मनुष्यों की कॉपी के साथ बनाया गया है.
स्पष्ट रूप से इसका लक्ष्य अपनी बातचीत में मानव-जैसा बनाना अधिक है. लेकिन यह बातचीत के नियम भी बदल रहा है. लोग, इंसानों से बात करने की उम्मीद करते हैं, न कि रोबॉट से. बातचीत का मतलब सिर्फ बोले गए शब्दों का आदान-प्रदान नहीं है. वो उससे भी कहीं अधिक है. अभी जब लोग रोबॉट से बात करते हैं तो उन्हें पता चल जाता है कि वो रोबोट से बात कर रहे हैं क्योंकि रोबॉट बातचीत में खराब होते हैं. डुप्लेक्स इसको बदल रहा है. कम से कम गूगल के डेमो के दौरान तो यह उतना ही अच्छा था बल्कि कुछ मामलों में इंसानों से भी बेहतर था.
आखिर कितनी टेक्नोलॉजी को सही माना जाए?
शोर शराबा और विरोध बढ़ने के बाद गूगल ने शुक्रवार को स्पष्ट किया. कंपनी अब कहती है कि एक बार जब वो डुप्लेक्स को तैनात कर देंगे, तो यह रोबॉट ये सुनिश्चित करेगा कि उपयोगकर्ताओं को बता दिया जाए कि वो किसी इंसान से नहीं रोबॉट से बात कर रहे हैं. यह पहचान किस रूप में आएगी अभी तक स्पष्ट नहीं है. गूगल प्रवक्ता ने सीएनईटी से कहा, "हम गूगल डुप्लेक्स के बारे में हो रही चर्चा को समझते हैं और उसे महत्व देते हैं. हमने शुरुआत से ही कहा है, कि हमारी टेक्नोलॉजी में पारदर्शिता महत्वपूर्ण है."
"हम इस सुविधा को अंतर्निहित प्रकटीकरण के साथ डिजाइन कर रहे हैं, और हम सुनिश्चित करेंगे कि सिस्टम को उचित रूप से पहचाना जा सके. हमने आई/ओ में जो दिखाया वह एक प्रारंभिक टेक्नोलॉजी का डेमो था, और हम प्रतिक्रिया को शामिल करने की उम्मीद करते हैं."
ये तो ठीक है. लेकिन डुप्लेक्स का मामला शायद ही अलग है. वास्तव में, यह सिलिकॉन घाटी में विशाल प्रौद्योगिकी कंपनियों के भीतर क्या होता है इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. वे इन मशीन लर्निंग और कृत्रिम बुद्धि से संचालित स्मार्ट सिस्टम को बना रहे हैं क्योंकि वो बना सकते हैं.
इस साल मैं गूगल आई/ओ में नहीं था, लेकिन पिछले साल मैं वहां मौजूद था. 2017 में, गूगल ने जोर दिया कि वो सिर्फ एक सर्च इंजन ही नहीं बने रहना चाहते. अभी भी ये एक कंपनी थी जो दुनिया के डेटा को सूचीबद्ध करने में दिलचस्पी रखती है. लेकिन अब एआई का उपयोग करके यह सब कुछ करना चाहती है. ये हर तरफ स्मार्ट मशीन चाहते हैं जो गूगल के कोड से जुड़ा हुआ हो. सैन फ्रांसिस्को से दिल्ली के 16 घंटे की फ्लाइट के लिए मैंने फ्लाइट में पढ़ने के लिए युवल नोआह हरारी की Homo Deus: A Brief History of Tomorrow किताब खरीदी.
ये किताब मनुष्यों के भविष्य के बारे में है और इसके कुछ हिस्से एआई के बारे में भी बताते हैं. सिलिकॉन वैली जहां तकनीक और डेटा का जिक्र होता है उसे हरारी ने "भविष्य का धर्म" कहा है. इस किताब को पढ़ना आकर्षक होने के साथ साथ डरावना भी था. आई/ओ के संदर्भ को देखते हुए मैंने एओ और टेक्नोलॉजी और मनुष्यों के जिस रिश्ते के बारे में किताब में चर्चा थी उसके बारे में कुछ प्रश्न पूछने शुरु कर दिए.
न केवल सिलिकॉन वैली के इंजीनियरों को उनके द्वारा बनाई जाने वाली प्रौद्योगिकियों के जटिल प्रभावों में रुचि नहीं थी. वो प्रभाव जो मनुष्यों और मानव समाजों के बीच के बैलेंस को बिगाड़ता है. बल्कि वे अपने काम के प्रभाव के बारे में भी और अधिक समग्र रूप से सोचने का प्रयास नहीं कर रहे हैं. इसके बजाए, जैसा कि हमने हाल ही में गूगल आई/ओ और फेसबुक F8 की घोषणाओं में देखा है कि सिलिकॉन वैली के इंजीनियरों को केवल चीजों के निर्माण की परवाह होती है.
एक समय था जब सिलिकॉन वैली से बाहर आने वाली किसी भी नई स्मार्ट सर्विस के उल्लेख पर दुनिया में हल्ला मच जाता था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह बदल गया है. हमें ये समझना बहुत जरुरी है कि सिर्फ कुछ बनाना है इसलिए कुछ बनाना हमेशा दुनिया को बेहतर जगह नहीं बना सकता है.
यह दुनिया को भी तोड़ सकता है. जैसा कि श्रीलंका, म्यांमार, फिलीपींस में कुछ लोग देख रहे हैं, जहां फेसबुक समाज के भीतर संघर्ष और घृणा फैलाने का प्राथमिक साधन बन गया है. फिर षड्यंत्र और चरमपंथ वाले वीडियो हैं जो यूट्यूब पर आसानी से मिल जाते हैं, या फिर फेक न्यूज की समस्या, या फिर एआई-सहायक उपकरण के माध्यम से वीडियो को तोड़ मरोड़ देना.
जबकि सिलिकॉन वैली में स्थित गूगल, फेसबुक और इन जैसी अनगिनत कंपनियों ने प्रौद्योगिकी और उसके खतरों के बारे में स्वीकार किया है वहीं डेवलपर्स के कांफ्रेंस में इससे निपटने के कोई आसार नहीं दिखे. फेसबुक की डेटिंग सर्विस, डुप्लेक्स, फेसबुक और गूगल द्वारा बनाई गई चेहरे और फोटो की पहचान की तकनीक... वे सभी एक संकेत हैं कि अभी भी, सिलिकॉन वैली बनाने के मोड में है.
और ये हमारे लिए चिंता की बात है.
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