हमें इनोवेशन दिखाई क्यों नहीं देते?
भारत में पिछले सप्ताह लगभग हर समाचार पत्र में न्यूयार्क में रहने वाले भारतीय मूल के एक स्कूली छात्र शुभम बनर्जी की खबर छपी. जिसने एक कम लागत वाला ब्रेल प्रिंटर विकसित किया है.
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भारत में पिछले सप्ताह लगभग हर समाचार पत्र में न्यूयार्क में रहने वाले भारतीय मूल के एक स्कूली छात्र शुभम बनर्जी की खबर छपी. जिसने एक कम लागत वाला ब्रेल प्रिंटर विकसित किया है और अब वह इस तकनीक का व्यवसायीकरण करने के लिए माइक्रोसॉफ्ट के साथ काम कर रहा है.
एक दिलचस्प "फील गुड" कराने वाली नई कहानी. जिसमें सारा मसाला है- एक रोचक अविष्कार, माइक्रोसॉफ्ट और भारत से संबंध. मैंने भी बहुत अच्छा महसूस किया था, लेकिन कहानी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया. कुछ महीने पहले ही मैंने एक ऐसा ही अविष्कार देखा था- एक कम लागत वाला ब्रेल प्रिंटर. राष्ट्रपति भवन में आयोजित अविष्कार मेले में दो भारतीय लड़कों ने इसे बनाया था.
नेशनल इनोवेशन फॉउंडेशन (एनआईएफ) की वेबसाइट से साभार. |
कम कीमत वाला यह ब्रेल प्रिंटर जालंधर के संतोख सिंह और खुशवंत राय ने बनाया था. पर भारतीय मीडिया ने शायद ही इसके बारे में कहीं कुछ लिखा हो, इसी वजह से वे गुमनाम हैं. जबकि इनके अविष्कार को भारत के राष्ट्रपति भवन में ऐसे ही प्रदर्शित किया गया था जैसे शुभम के अविष्कार का व्हाइट हाउस विज्ञान मेले में प्रदर्शन. शुभम ने माइक्रोसॉफ्ट का ध्यान आकर्षित किया और अब वह अपना उद्यम फ्लोट कर सकता है जबकि संतोख और खुशवंत अपने अविष्कार की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
नेशनल इनोवेशन फॉउंडेशन (एनआईएफ) से जुड़े नीतिन मौर्या कहते हैं कि "दोनों ब्रेल प्रिंटर पूरी तरह से अलग हैं, लेकिन भारतीय प्रिंटर लागत में काफी कम होने जा रहा है." मार्च 2015 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित अविष्कार मेले में जालंधर से प्रिंटर मंगाने और प्रदर्शित करने का काम इसी नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने किया था.
जालंधर के लड़कों का ब्रेल प्रिंटर पारंपरिक डॉट मैट्रिक्स प्रिंटर में एक प्रकार का संशोधन है. प्रिंटर रोलर के आकार में फेरबदल और इसके इंक रिबन को हटाकर इसकी पिनों को बड़ा किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप पिन सीधे कागज पर शब्दों को उकेर देती है. यह आइडिया संतोख और खुशवंत को एक ब्लाइंड स्कूल का दौरा करने के बाद आया. वे अपने एक स्कूल प्रोजेक्ट के लिए वहां गए थे. उन्होंने वहां देखा कि सारा प्रिंटिंग का काम मैन्युअल तरीके से किया जा रहा था. वहां के शिक्षकों ने उनसे पूछा कि क्या वे किसी भी तरह से बलाइंड स्कूल की मदद कर सकते हैं. इस जोड़ी ने जल्द ही बाजार में जाकर पाया कि सभी ब्रेल प्रिंटर बहुत महंगे थे, इसलिए उन्होंने एक कम लागत का ब्रेल प्रिंटर विकसित करने का फैसला किया. जब वे स्कूल में थे तभी उन्होंने अपनी खोज पर काम शुरू कर दिया था और अब वे इंजीनियरिंग कर रहे हैं.
संतोख और खुशवंत जैसे नए खोजकर्ताओं का भाग्य भारत में अनिश्चित बना हुआ है. भारत के खोजकर्ताओं का हब बनने की बातों के बावजूद, पारिस्थितिकी तंत्र से जुडे नए विचारों को उत्पादों और सेवाओं के लिए पूरी तरह से विकसित किया जाना बाकी है. खोजकर्ताओं को अभी भी संदेह की नजर से देखा जाता है. भारतीय कंपनियां उनके अविष्कारों को गंभीरता से नहीं लेती. इस मामले में बड़े सहयोग की उम्मीद से देखा जाता है.
कुछ साल पहले टाटा में एक इंजीनियर ने ग्रामीण क्षेत्रों में दूरसंचार सेवा पहुँचाने के लिए स्थलीय टावरों के बजाय ऊंचाई पर गुब्बारे के उपयोग का प्रस्ताव दिया था. उस इंजीनियर ने गुब्बारे की सुविधा वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) में इसका डैमो भी किया था. किसी को भी ये लग सकता है कि कंपनी को इसे आगे बढ़ाना चाहिए था, लेकिन यह आइडिया इंस्टीट्यूट से बाहर नहीं आ पाया. 2014 में यही गुब्बारे वाला आइडिया सुर्खियों में आया, जब गूगल ने प्रोजेक्ट लून शुरू किया. गूगल भारत में इस परियोजना को लागू करने के लिए भारत सरकार के साथ बात कर रहा है.
एक ऐसा अविष्कार जिसका श्रेय एक भारतीय कंपनी ले सकती थी, अब उसी आइडिया पर मदद पाने के लिए हम गूगल की तरफ देख रहे हैं. हैरान मत होना अगर माइक्रोसॉफ्ट जल्द ही भारत में शुभम के ब्रेल प्रिंटर की मार्केटिंग शुरू करता है, जबकि जालंधर के संतोख और खुशवंत निराश हैं. भारत को अब अविष्कारों को लेकर न केवल जागृत होने की जरूरत है, बल्कि उन्हें बाजार में ले जाना भी सीखना होगा.
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