कॉल ड्रॉप: दर्द का हर्जाना कैसे मिलेगा...
देश में इस समय 2 लाख से ज्यादा मोबाइल टॉवर की तुरंत जरूरत है. सरकार की गलत स्पेक्ट्रम नीतियों के कारण बार-बार कॉल ड्रॉप. उपभोक्ता परेशान. क्या इस पीड़ा के लिए कोई मुआवजा मिलेगा?
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निजी टेलीकॉम कंपनियों को कॉल ड्रॉप के एवज में जुर्माना स्वरूप ग्राहकों का बैलेंस भरने का सुझाव हास्यास्पद है, क्योंकि इसके सौ-फीसदी अमल की सरकार के पास कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है.
दर्द का कोई मुआवजा नहीं होता. हालांकि भारत के कंपनीराज में हर तरह के दर्द का मुआवजा ‘खैरात’ के रूप में मिल जाता है, क्योंकि चुनी हुई सरकार के हाथ कंपनियों ने बांध रखे हैं. बीते दिनों केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ने एक अजीबो-गरीब बयान दिया. उन्होंने कहा कि सरकार मोबाइल ऑपरेटरों को इस बात के लिए राजी करने में जुटी है कि वे कॉल ड्रॉप होने पर ग्राहक को मुआवजा दें. ये वही दूरसंचार मंत्री हैं, जिन्होंने कुछ अरसा पहले ही कॉल ड्रॉप की बढ़ती संख्या पर नाराजगी जताते हुए ऑपरेटरों को अपना नेटवर्क दुरुस्त करने की हिदायत दी थी. उनकी इस गर्मजोशी का कारण यह था कि देश में ‘माननीय’ सांसदों ने दूरसंचार मंत्रालय से शिकायत की थी.
पहले तेजी और फिर नरमी दिखाने वाला दूरसंचार मंत्री का बयान इसलिए हास्यास्पद है, क्योंकि देश के 93 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं में से हर सातवें उपभोक्ता को मुआवजे के रूप में कॉल दरों की वापसी नामुमकिन सा काम है. इस प्रक्रिया से जुड़े कई उलझे हुए सवाल हैं. सबसे बड़ा तो यही कि निगरानी कौन करेगा कि ग्राहक को सही मुआवजा मिला या नहीं? दूरसंचार मंत्रालय का दावा है कि उसके पास एक ऐसा ‘जादुई उपकरण’ लग गया है, जो हर कॉल पर नजर रखेगा. अगर कोई ऐसा उपकरण है तो सरकार खुद हर पांचवें कॉल के ड्रॉप होने पर ऑपरेटरों के खिलाफ जुर्माने की कार्रवाई क्यों नहीं करती? महाराष्ट्र और गोवा सर्किल में मोबाइल फोन सेवाओं की गुणवत्ता को लेकर दूरसंचार नियामक प्राधिकरण की हालिया ऑडिट रिपोर्ट कहती है कि दोनों राज्यों में कॉल ड्रॉप मानक स्तर, यानी 2 फीसदी से कहीं ज्यादा हैं. इसके जवाब में टेलीकॉम ऑपरेटरों ने पुराना रटा-रटाया जवाब दिया कि देश में जरूरत के मुताबिक मोबाइल टॉवर नहीं हैं. इस पर सरकार ने घुड़की दी कि यह बहाना पुराना हो चुका है.
दरअसल पूरे फ़साद में कोई यह नहीं पूछ रहा है कि मोबाइल पर बात करते हुए अचानक संपर्क कट क्यों जाता है? अब तक दूर-दराज के गांवों में पेश आने वाली यह समस्या अचानक मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों तक को अपनी लपेट में कैसे लेने लगी है ? देश में इस समय 4.25 लाख से ज्यादा मोबाइल टॉवर हैं. लेकिन तेजी से बढ़ती मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या और मौजूदा टॉवरों पर दबाव को कम करने के लिए देश को दो लाख ज्यादा मोबाइल टॉवर की तुरंत जरूरत है. लेकिन 2014 में टेलीकॉम कंपनियां देशभर में 7000 नए टॉवर ही लगा पाईं. बाजार के जानकार इसके पीछे सख्त नियमों और शहरी निकायों के द्वारा अनुमति के नाम पर बेजा मोलभाव को प्रमुख कारण मानते हैं. हालांकि इन सबके बीच जो अहम बात छूट रही है, वह मौजूदा मोबाइल टॉवरों पर बेइंतेहा दबाव और सरकार की गलत स्पेक्ट्रम प्रबंधन नीतियों में छिपी है. अगर सरकार सार्वजनिक भवनों और सरकारी जमीन पर मोबाइल टॉवर खड़ा करने की इजाजत दे तो टेलीकॉम कंपनियों की पहली दिक्कत आसानी से दूर हो सकती है. केरल सरकार ने यही किया है. इससे वहां मोबाइल और वायरलैस इंटरनेट सेवाओं की पहुंच और गहरी हुई है.
लेकिन इस पूरी कश्मकश में एक अहम बात जो छूट रही है, वह यह कि दूरसंचार कंपनियां फिलहाल 12 से 15 मेगाहर्त्ज का स्पेक्ट्रम ही इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि उपभोक्ताओं की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए यह 40-45 मेगाहर्त्ज के बीच होना चाहिए. सेल्यूलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) की स्पेक्ट्रम सीमा बढ़ाने की मांग को सरकार की ओर से लगातार खारिज किया जाता रहा है. अब सिस्को विजुअल नेटवर्किंग इंडेक्स के ताजा अनुमानों में कहा गया है कि भारत में इंटरनेट ट्रैफिक 2005 के मुकाबले 2019 तक 180 गुना तक बढ़ने की संभावना है. भारत में कुल 27 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से 24 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन से जुड़े हैं. इंटरनेट ट्रैफिक बढ़ने का सबसे ज्यादा असर मोबाइल ट्रैफिक पर पड़ने वाला है. वैसे भी 3जी सेवाओं के देशव्यापी विस्तार ने डाटा का दबाव 114 फीसदी तक बढ़ाया है. इस सेवा के उपभोक्ता 2जी के मुकाबले तीन गुना ज्यादा डाटा इस्तेमाल करते हैं. नोकिया नेटवर्क एमबिट इंडेक्स सर्वे के मुताबिक 2जी इंटरनेट डाटा में भी 41 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. 2013 के मुकाबले 2014 में इंटरनेट डाटा की कुल खपत लगभग दोगुनी यानी 89 पीटाबाइट तक पहुंच चुकी है. जाहिर है इस दबाव से निपटने के लिए अतिरिक्त स्पेक्ट्रम की जरूरत होगी. आने वाले महीनों में 900 मेगाहर्त्ज बैंड में 186 मेगाहर्त्ज के स्पेक्ट्रम की नीलामी से मसले का कुछ हल निकलने की उम्मीद है. अभी तो सरकार का पूरा जोर मोबाइल कंपनियों पर इस बात के लिए दबाव बनाने में है कि वे किसी तरह कॉल ड्रॉप जैसी समस्या से मुक्ति पाने का उपाय ढूंढ़ें.
कॉल ड्रॉप के मामले में ट्राई अपनी ही गइडलाइन का पालन करवाने में नाकाम रहा है. दूरसंचार विभाग के टर्म सेल, जिस पर सेवाओं की गुणवत्ता पर नजर रखने की जिम्मेदारी है, केवल मेबाइल टॉवरों से होने वाले विकिरण को कुछ हद तक नाप पा रहा है. बाकी सेवाओं की गुणवत्ता के लिए ट्राई टेलीकॉम ऑपरेटरों की रिपोर्ट का मोहताज है, जो यह मानने को अभी भी तैयार नहीं हैं कि पर्याप्त ढांचागत इंतजामों में उनकी ओर से लापरवाही हुई है. इसके विपरीत हो यह रहा है कि व्यस्ततम समय में मोबाइल से किया गया कॉल लंबी वेटिंग के बाद औंधे मुंह गिरता है, जो कि मानक के अनुसार नहीं होना चाहिए. न केवल दूरसंचार मंत्रालय, बल्कि ट्राई के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि क्या टेलीकॉम कंपनियों के मोबाइल टॉवर मानकों पर खरे उतरते हैं? यह भी कि वे अपनी पूर्ण क्षमता के अनुसार काम कर भी रहे हैं? इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि सरकार ने नीतियां बनाकर उसके अमल का जिम्मा निजी ऑपरेटरों पर तो छोड़ दिया, लेकिन निगरानी और जांच की कोई स्वतंत्र, निष्पक्ष इकाई नहीं बनाई. इसके बावजूद, सरकार मोबाइल ऑपरेटरों की खराब गुणवत्ता वाली सेवाओं से पीड़ित उपयोगकर्ताओं के दर्द को समझे बिना उनका मुआवजा तय कर रही है.
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