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Updated: 12 जनवरी, 2018 02:41 PM
सिद्धार्थ हुसैन
सिद्धार्थ हुसैन
  @siddharth.hussain
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बड़ी स्टार कास्ट के तहत फिल्म देखने वालों से अनुरोध है, ये सोच कर मन मत बनाइएगा फिल्म "मुक्काबाज़" के लिये. हाँ, ये जरूर है कि इस फिल्म के बाद "मुक्काबाज़" के मुख्य कलाकार स्टार जरूर बन जायेंगे. फिल्म देखने की अहम वजह है अनुराग कश्यप का निर्देशन, अनुराग का नाम उन चंद निर्देशकों की फ़ेहरिस्त में ज़रूर आता है जो स्टार से ज्यादा एक्टर को तव्ज्जो देते हैं और अपनी कहानी के जरिए बेबाकी से कुछ कहने की कोशिश भी करते हैं.

"मुक्काबाज़" की सबसे बड़ी ख़ूबी है कि ये स्पोर्ट्स फिल्म नहीं है, ये सही है कि कहानी एक बॉक्सर की है, इसलिए बॉक्सिंग तो फिल्म में दिखायेंगे ही, लेकिन बाक्सिंग सिर्फ एक माध्यम है कुछ कहने के लिए. अहम मुद्दा है जातिवाद जिसकी वजह से एक खिलाड़ी को कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पढ़ता है और हमारे देश में ना जाने कितना टैलेंट सिर्फ इसलिए दब के रह जाता है क्योंकि जातिवाद नाम का दानव उसे दबा देता है.

मुक्काबाज़, फिल्म रिव्यू

तो बात कहानी की...

श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) का बस एक ही सपना है. बॉक्सिंग की दुनिया में नाम कमाना और उसके लिए वो जी तोड़ मेहनत करता है, लेकिन परेशानियां तब पैदा होती हैं जब फ़ेडरेशन के रसूखदार और शहर के बाहुबली भगवानदास मिश्रा की चमचागीरी करने से वो एतराज़ जताता है और उनकी भतीजी से प्यार करने लगता है. भगवानदास मिश्रा जानते हैं कि श्रवण बेहद अच्छा बॉक्सर है लेकिन फिर भी वो प्रण लेते हैं कि वो उसके करियर को खत्म कर देंगे और उसके बाद एक बॉक्सर किस तरह से राजनीति का शिकार होता है और आखिरकार वो उन परेशानियों से बाहर निकल पाता है या नहीं ये कहानी है..

स्क्रीनप्ले...

फिल्म की कहानी दिलचस्प है और स्क्रीनप्ले ख़ासकर इंटरवल तक बाँध के रखता है. बॉक्सर बनने की तैयारी हो या जातिवाद का मुद्दा, सभी बातों को बहुत इमानदारी से दिखाया गया है. कुछ सीन्स तो बहुत यादगार हैं, जैसे एक छोटी जाती वाले कोच के घर में मास भिजवाना और फिर उस पर विवाद कि वो गाय का मास था. इमानदार आदमी को कैसे धार्मिक मसलों में फँसा देना, या भारत में स्पोर्ट्स के ज़रिये क्यों टैलेंट नहीं आगे बढ़ रहा, ऐसी कई बातें हैं जो हमारे ज़हन में आती हैं. जिन्हें निर्देशक ने कहानी के माध्यम से कहा है. सेकेंड हाफ थोड़ा सुस्त पड़ता है. ज्यादा गाने फिल्म की लय को तोड़ते हैं और श्रावण बॉक्सिंग के साथ रेलवे की नौकरी जब करता है वहाँ भी उसे जातिवाद का सामना करना पडता है. वो ट्रैक थोड़ा छोटा हो सकता था. फिल्म 15 मिनट कम होती तो और बेहतर होता, कुलमिलाकर "मुक्काबाज़ " एक बेहद अच्छी फिल्म है.

अभिनय के डिपार्टमेंट में सबसे पहले बात विनीत कुमार सिंह की जिन्होनें सिर्फ मुख्य किरदार निभाया नहीं है बल्कि फिल्म के एक लेखक वो भी हैं. विनीत की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि लगता ही नहीं की वो अभिनय कर रहे हैं. वो ये महसूस कराने में कामयाब होते हैं कि वो एक बॉक्सर हैं. किसी भी नए कलाकार के लिए विनीत एक सबक़ हैं कि एक रोल को निभाने के लिये एक्टर की अपरोच क्या होनी चाहिए. इर्फान, नवाज, राजकुमार यादव के बाद अब विनीत कुमार सिंह का भी नाम अच्छे एक्टर्स की लिस्ट में शुमार हो चुका है.

"मुक्काबाज़" की हीरोइन जोया हुसैन ने भी बहुत इमानदारी से अपने किरदार को निभाया है और वो भी आनेवाले वक्त में अच्छा काम करते दिख सकती हैं. विनीत के कोच के रोल में रवि क़िसन भी बहुत प्रभावशाली हैं, विनीत के पिता रोल में राजेश तैलंग ने भी बेहद शानदार अभिनय किया है. इंस्पेक्टर के किरदार में अभय जोशी भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं. अब बात फिल्म के मुख्य खलनायक की यानि जिमी शेरगिल की. जिमी सालों से फिल्म इंडस्ट्री में हैं लेकिन भगवानदास मिश्रा के किरदार से उनके करियर को अलग पहचान मिलेगी, एक वक्त के बाद जिमी से फिल्म में नफ़रत होने लगती है और ये प्रमाण है एक बेहतरीन कलाकार होने का. फिल्म के संवाद दमदार हैं "मुक्बाज" में तीन सिनेमेटोग्राफ़र्स हैं, जयेश नायर, शंकर रमन, राजीव राय, तीनों की ख़ूबी ये है कि वो एक ही लय पर हैं और बेहद इमानदारी से उन्होंने कहानी को दिखाया है.

निर्देशक अनुराग कश्यप एंटरटेनमेंट के साथ एक ज़रूरी बात कहने में कामयाब होते हैं...

"मुक्काबाज़" देखिए वक्त और पैसा दोनों वसूल हैं.

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लेखक

सिद्धार्थ हुसैन सिद्धार्थ हुसैन @siddharth.hussain

लेखक आजतक में इंटरटेनमेंट एडिटर हैं

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