चे ग्वेरा जैसा क्यों है 'टाइगर जिंदा है' का बगदादी
अभी हाल ही में सलमान की चर्चित फिल्म टाइगर जिंदा है का ट्रेलर रिलीज हुआ है जिसको देखकर लग रहा है कि इसमें निर्माता और निर्देशक ने जाने या अनजाने में एक बहुत बड़ी गलती को अंजाम दे दिया.
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टाइगर जिंदा है सलमान खान की मोस्ट अवेटेड फिल्म है. मंगलवार सुबह साढ़े 11 बजे फिल्म का ट्रेलर जैसे ही रिलीज हुआ, वायरल हो गया. रिलीज होने के महज एक घंटे बाद 5-6 लाख से ज्यादा लोगों ने इसे देखा. आखिर ट्रेलर है भी इतना ही जबरदस्त. और लोग ट्रेलर देखकर ही सलमान की फिल्म का अंदाजा लगा लेते हैं कि ये हिट होगी या नहीं.
ट्रेलर में ये बात साफ कर दी गई है सलमान कैटरीना की ये फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है. फिल्म में बाकायदा ईराक का बैकग्राउंड लिया गया है. खतरनाक आतंकवादी संगठन आईएसआईएस और उसके सरगना बगदादी को इंगित किया गया है. पूरी फिल्म 25 भारतीय नर्सों को बचाने की कहानी के इर्द गिर्द बुनी गई है. फिल्म में बस बगदादी के आतंकी संगठन का नाम बदलकर उसे ISIS से 'ISC' बना दिया है और उसके सरगना बगदादी का नाम पुकारा गया है अबू उस्मान.
फिल्म का ट्रेलर ये बताने के लिए काफी है कि निर्देशक से बड़ी चूक हुई है
सच्ची घटना से प्रभावित कहते हुए भी फिल्म के डायरेक्टर प्रोड्यूसर ने एक गलती कर दी है. गलती ये कि पूरा जमाना जानता है कि बगदादी से लेकर उसकी पूरी आतंकी ब्रिगेड काला रंग इस्तेमाल करती है. बगदादी खुद काले कपड़े पहनता है. उसके संगठन के लोग काले कपड़े पहनते हैं. उसके संगठन का झंडा काला है लेकिन ट्रेलर में आप इसका ठीक उलट देखेंगे. फिल्म में लाल रंग का प्रयोग हुआ है.
ट्रेलर में आतंकी संगठन का सरगना अबू उस्मान काली टोपी पहने हुए है, लेकिन उसके एक पोस्टर में बैकग्राउंड लाल दिखाया गया है. यही नहीं उसका लुक भी जाने माने कम्युनिस्ट नेता चे ग्वेरा से मिलता जुलता दिखाई दे रहा है. उसके संगठन के झंडे लाल हैं. बस रियल बगदादी से समानता दिखती है तो यही कि जैसे, बगदादी के कारिंदे लोगों को नारंगी चोला पहनाकर मारते हैं वैसे ही सलमान की फिल्म में लाल झंडे वाले आतंकी मासूमों को नारंगी कपड़ा पहनाकर ही मारते हैं. सवाल ये कि ये गलती से हआ है या जानबूझकर, लेकिन ये बड़ी गलती तो है.
आखिर फिल्मों में ऐसा क्यों होने लगा है? रंगों के जरिए भावनाएं भड़काने का खेल फिल्में क्यों करने लगीं? क्या ये आम आदमी की मानसिकता को प्रभावित करने का घिनौना खेल नहीं है. कई फिल्मों में आजकल ऐसा हो रहा है. जो रंग प्रतीक बन चुके हैं उनका इस्तेमाल राजनीतिक सुविधा के अनुसार किया जा रहा है. अब हरा रंग अगर लोग मुस्लिमों से जोड़ते हैं, पाकिस्तान से जोड़ते हैं. तो क्यों जरुरी है फिल्मों में किसी मुस्लिम समूह को दिखाने के लिए हरे रंग के झंडे का इस्तेमाल हो?
सिर्फ इसलिए ही ना कि लोग उसे पाकिस्तान का झंडा समझेंगे और नफरत से भर जाएंगे. तो मनोरंजन का साधन कहलाने वाला सिनेमा ये क्या कर रहा है ? क्या जरुरी है किसी फिल्म में अचानक आ जाने वाले भगवा झंडे की. क्या डायरेक्टर प्रोड्यूसर नहीं जानते हैं कि कुछ खास रंग आम आदमी उसी रुप में समझता है जिस रुप में वो असल जिंदगी में हैं. तो क्यों भड़काई जाती हैं रंगों के जरिए भावनाएं?
सवाल ये भी है कि ये सब कहीं सिनेमा और राजनीति के गठजोड़ का परिचायक तो नहीं? अगर ऐसा है तो ये इस माध्यम की मौत की निशानी है. क्योंकि सिनेमा की कोशिश होनी चाहिए कि वो निष्पक्ष रहे, आम लोगों के साथ रहे, उनके हित में रहे, वो लोगों का माध्यम है. लोगों के लिए है और समाज में रहने वाले लोगों ने ही बनाया है.हित साधना सिनेमा का काम नहीं होना चाहिए.
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