एक डायरेक्टर जिसने फिल्म का पॉपुलर कॉन्सेप्ट देख एक ही फिल्म तीन बार बनाई!
बॉलीवुड में उपन्यास पर आधारित कई फिल्में बनी हैं मगर आज भी देवदास का किसी से कोई मुकाबला नहीं है और शायद यही वो कारण है जिसके चलते सुधीर मिश्रा की फिल्म दास देव हमारे सामने है.
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हाल फिलहाल में देव, पारो और चांदनी के त्रिकोणीय संबंधो को सिनेमाई पर्दे पर नई पीढ़ी के आम दर्शक देख रहे है. विख्यात निर्देशक सुधीर मिश्रा ने 21 वीं सदी में शरत चन्द्र उपाध्याय के उपन्यास के पात्र देवदास, पार्वती और चन्द्रमुखी राजनीति के रंग में रंगते हुए एक सूत्र में पिरो दर्शकों को लुभाने की नायाब कोशिश की है. फिल्म को लेकर मिला जुला असर देखने को मिल रहा है.कइयों ने इसे शरदचंद्र के 'देवदास' और शेक्यपियर के 'हैमलेट' का मिश्रण, तो किसी ने दास से देव बनने की कहानी तक ही बताया है.
मौजूदा समय में सुधीर मिश्रा द्वारा किये गए प्रयोग काबिले तारीफ हैं. फिल्म सफलता के शिखर की ओर बढ़ती भी दिख रही है. आज जिस समय में सुधीर ने इस प्रसिद्ध उपन्यास पर फिल्म का निर्माण किया है, उसके पात्रों के चयन में भी उसी तरह की तारतम्यता दिख रही है. गौरतलब है कि इस उपन्यास पर बनी पहली फिल्म मूक थी जिसे निर्देशक नरेश मित्र ने बनाया था. वहीं सवाक युग में देवदास की शुरुआत करने वाले पहले निर्देशक पीसी बरुआ थे. बरुआ के ही पदचिन्हों पर चलते हुए बाद के वर्षों में भारत में कई अन्य फ़िल्मकारों ने एक समान थीम वाली फिल्मों का निर्माण किया है.
देव दास का शुमार बॉलीवुड की उन फिल्मों में है जिसे निर्देशक ने हर बार अपने तरीके से पेश किया
ऐसे में यहां देखना होगा कि सुधीर मिश्रा की प्रेरणा का स्रोत क्या था? जाहीर है शरत चन्द्र उपाध्याय के उपन्यास 'देवदास' पर भारत की तमाम भाषाओं में सिनेमा बन चुका है. 1917 में लिखे गए इस रोमांटिक उपन्यास पर अब तक कई प्रयोग हो चुके हैं. लेकिन हमें इसी सब के बीच देवदास के सिनेमाई रूपान्तरण के शुरुआती इतिहास को नहीं भूलना चाहिए. क्योकि उस वक्त भी ऐसे ही तत्कालीन प्रयोग असमिया निर्देशक प्रथमेश चन्द्र बरुआ ने भी किए थे. जो खुद एक फ़िल्मकार होने के साथ साथ अच्छे सिनेमेटोग्राफर भी थे.
कहना गलत न होगा कि असम के जमींदार परिवार में जन्में प्रथमेश अपने समय के बेहतरीन प्रायोगिक फ़िल्मकारों में से एक माने जाते थे. जिस फ्लैश बैक जैसी तकनीकि को उन्होने पहली बार भारतीय सिनेमा की दुनिया में इस्तेमाल किया वह आज भी मील का पत्थर है. उन्होंने ही पहली बार अपनी फिल्म रूपलेखा में फ्लैशबैक का इस्तेमाल किया था. ये पीसी बरुआ का फिल्मों के प्रति लगाव ही था जो उन्हें फिल्म विधा सीखने लंदन तक ले गयी. वहीं से सीख कर आने के बाद उन्होंने सवाक युग में बनी पहली फिल्म देवदास का निर्माण किया. देवदास उपन्यास पर बनी पहली तीन सवाक फिल्म को निर्देशित करने वाले फ़िल्मकार पी सी बरुआ को भूल पाना आसान नहीं है.
1935-36, और 37 में क्रमशः हिन्दी, बंगाली और असमिया भाषा में उन्होंने देवदास के साथ प्रयोग किए और सफल भी हुए. बाद के दिनों में फिर बिमल रॉय ने भी इसी उपन्यास पर आधारित देवदास बनाई थी. न्यू थिएटर्स के बैनर तले बनी पीसी बरुआ की देवदास के अनमोल किस्से इतिहास में दर्ज हैं. हिन्दी भाषा में बनी फिल्म में उन्होने के एल सहगल को देवदास कि भूमिका दी तो बंगाली में खुद हही देव का अहम किरदार निभाया था. असमिया में बनी देवदास में उन्होंने पहली असमिया फिल्म जोयमती के अभिनेता फनी शर्मा से अभिनय कराया था. सीधे शब्दों में कहा जाए कि अगर शरतचन्द्र का उपन्यास जितना उपयोगी और प्रभावी है इसके फिल्मी रूपान्तरण में पीसी बरुआ उनके समकक्षीय ही रहेंगे.
पीसी बरुआ ही वो निर्देशक थे जिन्होंने पहली बार देवदास को पर्दे पर पेश किया
फिल्म निर्माण के दौरान के ही मशहूर किस्से पर गौर करें तो पाते है कि जिस दौर में पीसी बरुआ यह फिल्म बना रहे थे उन्हीं दिनों फिल्म के निर्माता वीरेंद्र सरकार से उनकी अनबन हो गयी थी. मामला उनके द्वारा शूट किए गए दृश्यों को देख कइयों ने सरकार को बरुआ के खिलाफ भड़का देने से शुरू हुआ, लेकिन निर्माता वीरेंद्र ने अपनी सूझबूझ से उन्ही खराब दृश्यों के साथ फिल्म को प्रदर्शित करने का फैसला लिया जिनकों दृश्यों को खुद बरुआ भी दोबारा शूट करना चाहते थे.
अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर काम कर रहे पीसी बरुआ की एक ओर जहां आलोचना भी हो रही थी वहीं दूसरी ओर उन्हे निर्माता को लेकर डर था कि अगर फिल्म असफल रही तो वें उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दर्शकों की पहली प्रतिक्रिया जानने के लिए खुद भेष बदल कर सिनेमा घर गए, जानकार बताते है कि वह इतना डरे हुए थे कि उन्होंने अपने साथ पिस्तौल भी रखी हुई थी. उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि फिल्म असफल रही तो वे खुद को गोली मार आत्महत्या कर लेंगे.
नई दास देव में पुरानी देवदास की बारीकियों का ख्याल रखा गया है
ऐसी किसी अनहोनी से इतर पीसी बरुआ की देवदास सभी मानदंडों पर खरी उतरी और सिने कैनवास पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गयी. लगातार तीन वर्षों में तीन भाषाओं में फिल्म बना उन्होंने शरत चन्द्र के उपन्यास को तो वैश्विक किया ही वहीं साहित्य से सिने रूपांतरण के क्षेत्र में जिन प्रयोगों की नींव डाली वह आज भी प्रासंगिक है. यही वह फिल्म थी जिसकी सफलता के कारण न्यू थियेटर अपनी एक पहचान बना सका. बाद के वर्षों में खुद प्रथमेश ने अपना खुद का एमपी प्रॉडक्शन हाउस खोला और उस बैनर तले सुबह शाम, शेष उत्तर, जवाब जैसी अन्य हिन्दी बंगला और अन्य भाषाओं में फ़िल्में निर्मित कीं. जो उन्हें सिनेमा के इतिहास में अमरत्व प्रदान करती हैं.
हमारा यह जानना भी जरूरी है कि शरतचन्द्र के इसी उपन्यास पर भारत के कई फिल्मकारों ने प्रयोग किए हैं जिनमें बिमल रॉय से लेकर, संजय लीला भंसाली,अनुराग कश्यप, शक्ति सामंता, दासारी नारायण राव, दिलीप रॉय, विजय निर्मला, किरण कान्त वर्मा आदि हैं जिन्होंने बंगाली, तमिल, मलयालम, हिन्दी, भोजपुरी आदि भाषा में इस फिल्म के साथ समयानुकूल प्रयोग किए हैं. इसे साहित्य और सिनेमा के प्रयोगों की पाठशाला कहा जाए तो गलत नहीं होगा.
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