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Updated: 02 जनवरी, 2018 11:42 AM
मनीष जैसल
मनीष जैसल
  @jaisal123
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एकदम नई खबर यह है कि ऑक्सफ़ोर्ड प्रकाशन ने 70 के करीब नए हिन्दी अंग्रेजी शब्दों को अपने शब्दकोश में शामिल किया है, जिनमें फिल्म फुकरे से प्रचिलित हुआ शब्द जुगाड़ भी है. पिछले वर्षों में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द इस्तेमाल करने पर भी जोर दिया. अब आम जन मानस में इस शब्द को प्रयोग में लाया भी जा रहा है. विकलांग शब्द सुनते ही आपके अंतरमन में पहली छवि क्या बनती है? मेरे मन में तो फिल्म उपकार में विकलांग की भूमिका में मलंग चाचा (प्राण) और मन्ना डे का गाया 'कसमें-वादे, प्यार-वफा सब बातें हैं, बातों का क्या' दिखाई और सुनाई पड़ता है.

देश में विकलांगों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है, न ही उनकी प्रतिभा पर संदेह किया जा सकता है. दोनों ही अपने नए कीर्तिमान गढ़ रहें हैं. सामान्य व्यक्तियों की तरह उनके जीवन यापन और मूलभूत आवश्यकताओं संबंधी नीतियाँ बनती रहें, तो उनमें और हिम्मत और कुछ करने की ललक बढ़ेगी. संजय गुप्ता की फिल्म काबिल का ही उदाहरण लें तो विकलांगों के प्रति समाज की स्थिति भी सामने आती है. वाकई आँखों से न देखने वालों के लिए ये दुनिया किसी खतरनाक सपने से कम नहीं है. फिल्म में वो दोनों आपस में जीना चाहते हैं, अपने आप मे खुश रहना चाहते हैं, लेकिन दरिंदा समाज उन्हे भी वस्तु की तरह इस्तेमाल करता है.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष     असल जीवन की तरह सिनेमा में भी विकलांगों की स्थिति बहुत खराब है

फिल्म में बेहतरीन आवाज निकाल कार्टून कार्यक्रमों से पैसा कमाने वाला रोहन (रितिक रोशन), अपने जैसी आँखों से न देख पाने पाने वाली सुप्रिया (यामी गौतम) से शादी करता है और एक खूबसूरत दुनिया बसाने के लिए दोनों प्रयासरत होते हैं. बस फिर उसके बाद शुरू होती है काबिल की असली कहानी, जो समाज से पूरी तरह जुड़ती नजर आती है. जब रोहन काम से ऑफिस जाता हैं तो कुछ दरिंदे सुप्रिया का रेप करते हैं. दोबारा फिर करते हैं. पुलिस को खबर की जाती है. जब पुलिस और कानून आंख वालों की नहीं सुनता तो अंधों की कितना सुनेगा? यह हमें सोचने की जरूरत नहीं है. रोहन (रितिक रोशन) कहता हैं हमारी दुनिया से ज्यादा अंधेरा तो आपके लॉ एंड ऑर्डर में है.

महिला विकलांगों की हिन्दी सिनेमा में स्थिति पर खोज करते हुए, ये निकल कर सामने आया कि सिनेमा में उनकी हालत भी कुछ खास अच्छी नहीं है. जी हां बिल्कुल सही सुना आपने. सच है महिलाएं इस समाज की उपेक्षित घटक है, और तो और अगर उसी घटक में विकलांगता को शामिल कर दिया जाये तो वह और भी ज्यादा उपेक्षा का शिकार होने लगती हैं. महिला, गरीबी, विकलांगता जब तीनों का मेल हो जाए तो समाज में उनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है.

यहां यह देख लेना होगा कि सामान्य महिला तथा विकलांग महिलाओं के जीवन में आने वाली समस्याएं लगभग एक जैसी ही हैं, Mary Chinery Hessey अपनी किताब विमेन एंड डिसएबिलिटी में Equality Of Opportunity और समाज में उनके साथ हो रहे ट्रीटमेंट / व्यवहार का एक बड़ा पक्ष सामने रखते हुए कहती हैं कि 'एक फिजिकल या मेंटल विकलांग महिला इस समाज में दोहरी मार झेल रही है.' महिलाएं पुरुषों के लिए एक उपभोग की वस्तु है यह जग जाहीर है. लेकिन इसी समाज में विकलांग महिला की स्थिति और भी क्रूरता भरी और दयनीय है.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष  विल्कंगों को दिखाकर सिनेमा ने बताया कि हमारा समाज उन्हें किस तरह देखता है

ऐसी महिलाएं नॉन सेक्सुअल, शादी के लिए अनुपयुक्त मानी जाती हैं. खासकर भारत जैसे देश जहां अरेंज शादियां ज्यादा होती है वहां एक हैंडीकैप महिला शादी के लिए डिसक्वालिफाइड है (हमारे आस पास कई उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे). न जाने कौन सा रब / ईश्वर /अल्लाह /जीसस ऊपर से इनकी जोड़िया बनाना भूल जाता है जिसके चलते उसे शादी के लिए कंप्रोमाइज करना पड़ता है. मजबूरी में अपने से बड़ी उम्र के अधेड़ के साथ, विधुर तक के साथ शादी करनी पड़ती है. दहेज के लिए सामान्य महिला से ज्यादा प्रताड़ना के कई किस्से अखबारों में छप चुके हैं.

घर और ससुराल के परिवार में उसे और भी ज्यादा उपेक्षित क्यो होना पड़ रहा है? हमारा ही मूंछे तान मर्द बनने वाला समाज मानता आया है कि दिव्यांग महिलाएं मजबूत बच्चे को जन्म तथा उसकी देखभाल नहीं कर सकती हैं. वह एक आदर्श मां भी नहीं बन सकती हैं. वह कहीं नौकरी भी नहीं कर सकती हैं. अच्छी पत्नी तो कभी बनी ही नहीं सकती हैं. मीडिया और अन्य उद्योगों में ऐसी महिलाओं की संख्या उंगलियां पर भी गिनी जाने योग्य है. भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में विकलांग महिलाएं पीड़िता के तौर पर ही देखी गयी हैं.

भारत के संदर्भ में इन महिलाओं के साथ इस तरह की हीन-भावना के पीछे कौन से सामाजिक, सांस्कृतिक और एतिहासिक फैक्टर जिम्मेदार हो सकते हैं? कोई शोध हुआ हो तो भी ढूंढने के प्रयास हमें करने चाहिए. दिव्यांग पुरुषों की भांति इन्हें भी सामाजिक दर्पण पर दैत्य दानव या कहें नकारात्मक छवि के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता रहा है. भारतीय पौराणिक कथाओं में भी विकलांगों का चित्रण निर्दयी और कई जगहों पर तो दैत्यों, खलनायकों के रूप में हुआ है. एक आँख वाली कैकेई की दासी मंथरा इसका सटीक उदाहरण है. वहीं कृष्ण लीला में कूबड़ा का चरित्र इसे और विस्तार देता है.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष     केवल सिनेमा में ही नहीं बल्कि धर्म में भी ऐसे पात्र भरे पड़े हैं जो विकलांगता दर्शाते हैं

दूसरी तरफ पुरुष विकलांगों के प्रति सकारात्मक रवैया क्यो? दिव्यांग धृतराष्ट्र और मामा शकुनी आज भी पौराणिक कहानियों के महिला विकलांग पात्रों से उच्च माने जाते हैं. सम्मान पाते हैं. ऐसे में स्त्री पुरुष भेदभाव की एक भयावह स्थिति यहां भी स्पष्ट होती है. भारत जैसे अर्धशिक्षित देश में विजुअल माध्यम का लोकप्रिय होना कोई बड़ी बात नहीं है. यही इस माध्यम का सबसे बड़ा गुण भी है. सिनेमा और टेलीविजन जैसे माध्यमों ने जिस प्रकार इस समाज में अपनी पैठ बनाई हुई है वह भी गौरतलब है. लेकिन दिव्यांग के प्रति (ख़ासकर महिलाओं के प्रति) फिल्मों में उदासीन और अलोकप्रिय चित्रण ही क्यों पेश किया है?

वॉलीवुडिया अभिनेता-अभिनेत्री जिस प्रकार आम जनमानस में अपनी पैठ बना ले जाते है उससे यह कह ना गलत नहीं होगा कि अगर दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील रहा होता सिनेमा तो आज स्थिति और भी बेहतर होती. शुरुआत से ही भारतीय सिनेमा हॉलीवुड से प्रभावित रहा है. एमहर्स्ट मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्टिन एफ नॉर्डन और मेडलीन काहिल ने अपनी किताब Violence, Women, and Disability in Tod Browning's Freaks and The Devil Doll में माना कि हॉलीवुड ने विकलांगों के समाज की परेशानियों को उम्दा तरीके से उकेरा है. लेकिन वहीं भारत में महिला और पुरुष विकलांगों के चित्रण में अंतर सुस्पष्ट रूप से क्यों देखने को मिलते है? बॉलीवुड फिल्मों में पुरुष विकलांग प्रबल दिखाया जाता है, वहीं दिव्यांग महिला और भी ज्यादा दुखियारी.

आम तौर पर विकलांग पुरुष के साथ सामान्य महिला आसानी से रहते हुए दिखाई देती है लेकिन विकलांग महिला के साथ सामान्य पुरुष उसकी विकलांगता को आधार बनाते हुए उसे नकारता हुआ देखा जा सकता है. एक विकलांग महिला दुर्बलता के साथ मां, बहन और और कभी कभार नायिका की भूमिका में देखी जा सकती है. फिल्म कोशिश और खामोशी में चित्रित देख और न सुन पाने वाले विकलांग चरित्र द्वारा कर इसकी पुष्टि की जा सकती है.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष    हम ऐसी कई फ़िल्में देख चुके हैं जिनमें पात्रों ने विकलांगता के दंश को जिया है

1961 में नवकेतन के बैनर तले बनी फिल्म हम दोनों का जिक्र यहां करना जरूरी है जिसमें देव आनंद डबल रोल में हैं. युद्ध से छतिग्रस्त हुआ देव का किरदार यहां विकलांगों की सामाजिक स्थिति को स्पष्ट कर देता है. देव अपनी पत्नी से खुद की इस विकलांगता की हालत से तंग आकर जीवन खत्म करने की बात करता है. अपनी आधी अधूरी जिंदगी जीने से अच्छा वो मर जाने की बात को फिल्म में स्वीकार कर रहा है.

एक और फिल्म आरजू जो 60 के दशक में आई उसका जिक्र यहां जरूरी मालूम देता है जिसमें अभिनेता राजेन्द्र कुमार गोपाल के किरदार में हैं. और उनके परोक्ष अभिनेत्री साधना आशा के किरदार में हैं. आशा ने गोपाल से शादी से पूर्व 'एक अपाहिज की ज़िंदगी जीने से तो मौत अच्छी है' बोला था. एक दुर्घटना के आबाद गोपाल के दोनों पैर कट जाते है और उसे आशा का यह संवाद याद आता है. वह आशा को नजरअंदाज करने लगता है. हालांकि आशा गोपाल को उसी तरह चाहती है. एक सामान्य महिला का विकलांग पुरुष के साथ संघर्ष को फिल्म में दिखाया जाता है.

एंग्री यंग मैन के समय में भी अगर हम देखे तो इन महिलाओं के लीड रोल में होने के बावजूद उनकी दुर्बलता को आसानी से समझा जा सकता है. रवि टंडन की 1974 में बनी फिल्म मजबूर में अमिताब की व्हील चेयर की स्थिति में उनकी बहन का किरदार कर रही फरीदा जमाल, मनमोहन देसाई की 1970 में आई फिल्म सच्चा झूठा में ओर्थपेडीक विकलांग की भूमिका में नाज इसके उदाहरण माने जा सकते हैं. दोनों ही फिल्मों में इन महिलाओं के संघर्ष से ज्यादा इनकी विकलांगता को पेश किया गया है. और इनके पुरुष किरदारों पर आश्रित रहते हुए पेश किया गया.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष     इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि लोग आज भी विकलांगों को अपशकुन मानते हैं

इसी दशक की चार और फिल्मों को यहां उदाहरण स्वरूप देखा जाए तो स्थिति और भी स्पष्ट हो सकती है. 1977 में बनी गुलजार की फिल्म किनारा में हेमा मालिनी द्वारा निभाया गया अंधी नृत्यांगना का किरदार, 1972 में आई शक्ति सामंता की फिल्म अनुराग में मौसमी चटर्जी द्वारा निभाया गया अंधी अनाथ लड़की का किरदार, गुलजार की एक और फिल्म कोशिश 1972 में जया भादुरी और संजीव द्वारा निभाया गया मूक बधिर का किरदार और मदन बावेजा की 1974 की फिल्म इम्तिहान में चल फिर सकने में अक्षम के किरदार में तनुजा को याद किया जाना जरूरी है. किनारा और अनुराग दोनों ही फिल्मों की नायिकाएं मुख्य भूमिका में है ,सुंदर, रमणीय और काला के प्रति समर्पित भी है.

दोनों ही फिल्मों के नायक क्रमश जितेंद्र और विनोद मेहरा उन्हे बहुत प्यार करते हैं. हेमा मालिनी को एक दुर्घटना के परिणामस्वरूप दृश्य हीं दिखाया गया है, जिसका आंशिक रूप से पुरुष नायक ही जिम्मेदार है. और फिल्म में हर समय इसके लिए उसको जिम्मेदार भी माना जाता है. जबकि फिल्म अनुराग में मौसमी चटर्जी का अंधापन अंत में ठीक हो जाता है. फिल्म इम्तिहान एक नया दृष्टिकोण पेश करते हुए दिखती है जिसमें तनुजा का पति उसके लिए उसकी विकलांगता से जुड़ी चीजें खरीदता है. और उसे खूब प्यार भी करता है.

1980 के दशक में अगर बात करें तो दो बड़ी फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है. जिसमें एक व्यावसायिक और दूसरी समानान्तर सिनेमा की फिल्म है. टी रामा राव की नाचे मयूरी 1986 और साई परांजपए की 1980 में  बनी स्पर्श ... नाचे मयूरि भारत नाट्यम की नृत्यांगना सुधा चंद्रन की वास्तविक संघर्षों पर आधारित है जिन्होने अपना एक पैर दुर्घटना में खो दिया था. और आर्टिफिसियल पैरों के सहारे वह अपने पैशन को पूरा करती हैं.

फिल्म आगे बढ़ती है और उसका प्रेमी शेखर सुधा का विकलांगता का बोझ न सह पाने की वजह से छोड़ देता है. वहीं फिल्म स्पर्श में नसीरुद्दीन शाह एक अंधे अध्यापक की भूमिका में हैं जो प्रचंड स्वतंत्रता का हिमायती, अत्यधिक शिक्षित है. एक सामान्य महिला शबाना आजमी उससे प्यार करती हैं. दोनों ही फिल्मों में हमें स्त्री पुरुष विकलांग चरित्रों पर गौर करने पर पता चलेगा की विकलांग स्त्री को सामान्य पुरुष छोड़ सकता है लेकिन विकलांग पुरुष को सामान्य महिला,पतिव्रता और सामाजिक बंधन में बंध कर सहन करती है.

विकलांग, समाज, सिनेमा, स्त्री, पुरुष     देश की सरकार को इस बात का ध्यान देना चाहिए कि उसके पास विकलांगों के लिए परियोजनाएं हों

फिल्म गुजारिश का रितिक रोशन, एश्वर्या राय को मंजूर है लेकिन 80 के दशक की फिल्म बरसात की एक रात में अंधी महिला के किरदार में राखी स्वतंत्र नहीं हैं. वह आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र हमें नहीं दिखती हैं. फिल्म में पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार में अमिताभ राखी से शादी का प्रस्ताव भी रखते है लेकिन वह सामाजिक बंधनों और अपने साथ हुई रेप की घटनाओं और अपनी विकलांगता के कारण प्रस्ताव को मना कर देती है और एक पारंपरिक पत्नी का किरदार उसके जीवन में आकर न निभा पाने की बात भी स्वीकार्य करती है.

अब यहीं देख लीजिये 90 के दशक में ऐसी कई फिल्में बनी जिनमें सामान्य महिलाओ ने विकलांग पुरुषों का अपना प्यार, अपना पति स्वीकार किया है. फिल्म साजन में पोलियो ग्रस्त किरदार में संजय दत्त को माधुरी प्यार करती है, स्पाइनल के शिकार ऋषि कपूर को फिल्म चाँदनी में श्री देवी प्यार करती है, फिल्म दुश्मन में अंधे के किरदार में एक बार फिर संजय दत्त को अभिनेत्री द्वारा स्वीकारा जाता है और फिल्म हम आपके है कौन में बाएं हाथ से बेकार मोहनीश बहल के साथ बाकायदा पत्नी का दर्जा देतीं हुई दिखती हैं तब्बू.  

विकलांगता विषय पर काबिल से पहले 1996 में बनी खामोशी जिसमें नाना पाटेकर और सीमा विश्वास अंधे जोड़े के रूप में हैं.  दोनों अपनी मूक और शांत दुनिया में खुश है लेकिन दुनिया की नजर में वह मिसफिट दिखते हैं. फिल्म मन का आमिर खान, मनीषा कोइराला से उसके अपाहिज होने के बाद भी उससे प्यार करता है. 80 में बनी बरसात की एक रात की तर्ज पर यहाँ भी वही विकलांगता के बाद स्वीकार्यता का मामला आता है लेकिन आमिर इस मन में अपने मन की सुनते हैं. इसके बावजूद फिल्म में पुरुष रूढ़िवादी तत्वों की प्रधानता देखी जा सकती है.  

हम सीधे तौर पर कह सकते है की लगभग हर दशक के सिनेमा में विकलांगों / दिव्यांगो का चित्रण सिनेमा में होता आया है. लेकिन उनके प्रश्नों,उनकी समस्याओं और उनके हौसलों को सिनेमा ने बढ़ाने के बजाय उन्हे विक्टिम / दोष पूर्ण तरीके से ही रखे हैं. इसके अलावा अलावा स्त्री पुरुष पात्रों में जो भेदभाव की बहुलता देखी गयी है वह पुरुषवादी समाज की पोल खोलने में और मदद करता है. क्या दलित सिनेमा, स्त्री सिनेमा, मुस्लिम विषयों से जुड़ा सिनमा की तर्ज पर अब विकलांगों को अपने सकारात्मक चरित्रों को पर्दे पर उकेरने के लिए इस ओर प्रयास करने पड़ेंगे? तभी उनका सकात्मक चित्रण संभव है?

नहीं तो पुरुष विकलांग पात्र खलनायक की भूमिका में जाते जाएंगे और महिला विकलांग पात्र पति व्रता न बन पाने के गम में और भी रोना रोती रहेंगी. कब उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, के साथ उनकी मूलभूत समस्याओ को उठाने वाला सिनेमा बिना स्त्री पुरुष का भेदभाव किए आएगा? हमें भी उसी दिन का इंतजार है... मन्ना डे अभी भी गाते जा रहे हैं 'कसमें वादे प्यार वफा सब बातें है बातों का क्या ... बातों से काम नहीं चलेगा. संवेदनशीलता की ओर हमें बढ़ना ही होगा.

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लेखक

मनीष जैसल मनीष जैसल @jaisal123

लेखक सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी कर रहे हैं, और समसामयिक मुद्दों के अलावा सिनेमा पर लिखते हैं.

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