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Updated: 01 मार्च, 2017 02:58 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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गर्भ में एक बच्चे के होने का सुख और एक बच्चे को खोने का दुख सिर्फ और सिर्फ एक मां ही अनुभव कर सकती है. बिल्कुल ऐसा ही एक सच ये भी है कि  विकलांग, मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों के जीवन के संघर्ष सिर्फ अक्षम बच्चों के माता-पिता ही समझ सकते हैं.

देश का सर्वोच्च न्यायालय जब कुछ ऐसे फैसले लेता है, तो दर्द और संघर्षों के बारे में बात करना जरूरी हो जाता है. 26 हफ्तों की गर्भवती महिला को जब ये पता चला कि उसके गर्भ में एक डाउन सिंड्रोम बच्चा है, तो उसने सुप्रीम कोर्ट से गर्भपात कराने की इजाजत मांगी. क्योंकि 20 हफ्ते होने के बाद गर्भपात कराना मान्य नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने महिला की याचिका नामंजूर कर दी.

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कोर्ट का रुख-

न्यायाधीश एस ए बोबडे और न्यायाधीश एल नागेश्वर राव की बैंच का कहना था कि 'हर कोई जानता है कि डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे निसंदेह रूप से कम बुद्धिमान होता है, लेकिन वे ठीक होते हैं.' कोर्ट का कहना है कि 'ये दुख की बात है कि बच्चे में मानसिक और शारीरिक चुनौतियां हो सकती हैं और ये मां के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है, लेकिन हम गर्भपात की अनुमति नहीं देते...हमारे हाथों में एक जिंदगी है.' हालांकि इस बेंच ने बाद में मौखिक रूप से ये भी कहा कि 'एक मां के लिए एक मानसिक रूप से अक्षम बच्चे को बड़ा करना बहुत दुख की बात है'.

कोर्ट का कहना है कि महिला के स्वास्थ्य की जांच के लिए गठित चिकित्सा बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गर्भावस्था जारी रखने में मां को कोई खतरा नहीं है. स्वाभाभिक सी बात है कि एक मां को गर्भावस्था जारी रखने में कोई परेशानी नहीं, लेकिन गर्भावस्था के बाद होने वाली परेशानी का क्या?

क्या तब सु्प्रीमकोर्ट उस बच्चे की जिंदगी कैसी है, ये देखने आएगा? मानसिक रूप से अक्षम उस बच्चे को सामान्य जिंदगी देने के लिए पल-पल संघर्ष कर रहे माता-पिता के संघर्ष और परेशानियां देखने क्या सुप्रीम कोर्ट आएगा? क्या सुप्रीम कोर्ट उस बच्चे के भविष्य में आने वाली परेशानियों के लिए व्यवस्था करेगा? नहीं.

क्या है डाउन सिंड्रोम-

जो लोग नहीं जानते कि डाउन सिंड्रोम बच्चे कैसे होते हैं, उन्हें बता दें कि डाउन सिंड्रोम एक ऐसा अनुवांशिक विकार है जो कि बौद्धिक और शारीरिक क्षमता प्रभावित करता है. डाउन सिंड्रोम लोगों में मानसिक विकास और शारीरिक विकास धीमी गति से होता है. ज्यादातर बच्चों में दिल की बीमारी होती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होती है.

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कोर्ट को सब पता है, कि बच्चे का आने वाला जीवन कैसा होगा, कोर्ट को दुख भी है कि मानसिक रूप से अक्षम बच्चे को बड़ा करना बहुत दुख की बात है, एक मां के लिए ये दुर्भाग्यपूर्ण भी है. फिरभी कोर्ट ने गर्भपात देने की इजाज़त नहीं दी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि उन्होंने एक बच्चे के जीवन को सर्वोपरी रखा, और उनका ये कहना बिल्कुल सही भी है कि हमारे हाथों में एक जिंदगी है, पर ये जिंदगी अपने साथ ढेर सारी चुनौतियों और संघर्ष साथ ला रही है. और संघर्ष भी सिर्फ बच्चे के नहीं, उसके परिवार के संघर्ष भी नजरंदाज नहीं किए जा सकते. मानसिक रूप से एक अक्षम बच्चे को पालना आसान नहीं होता. सामान्य बच्चे से कहीं ज्यादा केयर, कहीं ज्यादा समय और कहीं ज्यादा पैसा एक अक्षम बच्चे को सामान्य जिंदगी के करीब लान के लिए देना होता है. अगर माता-पिता बहुत अच्छे परिवेश से हैं, तो सब ठीक है लेकिन सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ये किसी भी तरह एक चैलेंज से कम नहीं.

लिहाजा ऐसे संवेदनशील मामलों में कोर्ट को ये फैसला उन मां-बाप पर ही छोड़ देना चाहिए कि वो ऐसे बच्चों को इस दुनिया में लाना चाहते हैं या नहीं. क्योंकि मां-बाप से बेहतर कोई नहीं जानता कि वो उस बच्चे के जीवन को एक सुखद कल दे पाएंगे या नहीं. गर्भपात की मांग कर रही इस महिला से दुखी और कौन होगा, पहले तो बच्चे के खो देने की बात से ही वो मां मर-मर कर जी रही होगी और उसपर उसे ये भी पता है कि होने वाला बच्चा एक अक्षम बच्चा होगा, जिसके साथ वो न्याय नहीं कर सकती. इसीलिए तो वो उसे दुनिया में लाना नहीं चाहती. पर सिर्फ एक जिंदगी के लिए उसके साथ जुड़ी बाकी जिंदगियों पर पड़ने वाले प्रभाव को तो अनदेखा नहीं किया जा सकता. हो सकता है लोग इस निर्णय से संतुष्ट हों, पर कहीं न कहीं इस निर्णय ने एक बहस को ही जन्म दिया है.

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पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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