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Updated: 17 अक्टूबर, 2022 02:14 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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अनाप शनाप का टैक्स भरते-भरते हजार साल की गुलामी ने भारतीय समाज में पुरुषों का कपड़ा उतार दिया. और बिना कपड़ों के रहना, कब उनकी आदतों में शुमार हो गया- आज तक लोग समझ ही नहीं पाए हैं. त्योहार रस्मी होते गए और उल्लास पीढ़ी दर पीढ़ी, दम तोड़कर सन्नाटे की चादर ओढ़ते गए. संपन्न लोग एक धोती और एक पिछौरी (ओढ़ने वाला चादर) में जीवन गुजारते दिखने लगे. उससे नीचे के लोग एक धोती को दो टुकड़ों में करके और जो अत्यंत निर्धन थे (अभी भी हैं), एक-एक मीटर के दो गमछो से धोती और पिछौरी का काम निकालने में माहिर बन गए. धोती के नीचे निक्कर, लंगोट या अंडरवियर की हैसियत इसमें से सबसे संपन्न यानी पहली कैटेगरी को ही मिला. बाद बाकी जो ऊपर के लोग थे उनका कहना ही क्या? किसी के पास एकाध कुर्ता हुआ तो उसके सहारे पूरा गांव रिश्तेदारी, शादी विवाह और शहर-बाजार कर लेता था. यह गर्मियों की ड्रेस थी. औरतों का भी लगभग यही हाल था. हद से हद तीन धोतियां, जिसमें एक धराऊ (कुछ ख़ास मौकों पर पहनने के लिए).

संपन्न महिलाओं को धोती के साथ ब्लाउज, पेटीकोट मिल जाया करते थे. निर्धन पेटीकोट और ब्लाउज की हैसियत तक पहुंच ही नहीं पाते थे. बच्चे टाट जैसे कपड़ों के स्कूल ड्रेस पा गए और एकाध धराऊ कपड़ा मिल गया तो धन्य. जूता चप्पल तो कभी जरूरी चीज था ही नहीं. पुरुषों के चेहरे पर कभी स्वाभाविक त्योहारी उल्लास दिखा नहीं. हालांकि उन्होंने इसे अपनी पत्नियों और बच्चों के चेहरे पर देखने की भरसक कोशिशें की और उसके लिए रातदिन खपा दिया. वारिसदारों, जमींदारों और सामंतों को छोड़ दिया जाए तो- यह हर जाति बिरादरी की हकीकत थी. और यह सब बस कुछ साल पहले के आम दृश्य हैं, पुराणयुगीन नहीं. मैं 39 साल का हूं. मुझे लेकर तमाम ऐतिहासिक दुराग्रहों के बावजूद यहां आप भरोसा कर सकते हैं. मैं भी इनके साए में बड़ा हुआ हूं. तो जाहिर है ये हालात अंग्रेजों से भारत के आजाद होने के बहुत बाद का है. लोकतांत्रिक सरकारों के दौर का. ब्रिटिश इंडिया से पहले क्या सूरत-ए-हाल रहे होंगे- कल्पना करना मुश्किल नहीं.

वर्षों की गुलामी स्वाभाविक आदत कैसे बन जाती है?

...तो तमाम पोतों ने जब अपने दादा को पहले पहल निक्कर, अंडरवियर, जूते, चप्पल, कुर्ता, जैकेट पहनाने की कोशिश की, वे असहज हो गएं. उन्हें तो पहनने की आदत ही नहीं थी. अटपटा लगता था. यह अटपटापन एक तरह से उनका फैशन बन चुका था. अभी भी त्योहारों पर पीढ़ीगत अवसाद उनके चेहरों पर नजर आ ही जाता है. बड़े-बड़े होटलों मॉलों में घुसते ही वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं- बावजूद कि वहां उन्हें लेकर गए उनके बेटों और पोतों की जेबें नोटों से भरी रहती हैं. वे इतना असामान्य हो चुके थे कि सामान्य हो ही नहीं पाए आजन्म. यह सबकुछ वैसे ही है- जैसे जीवन के कई साल जेलों में लंबी यातनाओं के साथ लोगों ने तारतम्य बना लिया था. जब छोड़ा गया, सामान्य जिंदगी में सहज ही नहीं हो पाए. बंद अंधेरे कमरों और बेड़ियों के साथ सोने की आदत से परेशान होकर वापस जेल लौट आए. जेलों में ही रहने की गुजारिश करने लगे. याद नहीं कर पा रहा, लेकिन शायद बहुत साल पहले यह किस्सा फ्रांसीसी क्रांति पढ़ते हुए नज़रों के सामने होकर गुजरा. लेकिन तय नहीं हूं. "गुलाम- मामूली शब्द नहीं है यह."

जिस अटपटेपन का जिक्र कर रहा हूं उसकी सामाजिक-राजनीतिक वजहें रही हैं. और असंख्य मानव व्यवहार की ऐसी असंख्य चीजें हजार साल की दासता में हमारी रगों में अब खून बनकर दौड़ रही हैं. हम आप चाहकर भी उसे अस्वाभाविक नहीं मान पाते, और उसी को सच माने बैठे हैं. हम जाने अंजाने उसी में शामिल हैं. अच्छी बात है कि भारत अपनी सामाजिक प्रक्रिया में उसे तोड़ने की जद्दोजहद कर रहा है. और जब वह डीजे बजाकर कावड़ निकालता है, महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज की जयंती पर लड़कियां फेटेदार रंग बिरंगी धोती और आंखों पर चश्मा पहनकर नगाड़े बजाती हैं, अंबेडकर जयंती पर कांजीवरम साड़ी पहनकर महिलाएं सड़कों पर नाचती हैं- उससे सुंदर दृश्य कुछ हो ही नहीं सकता. लेख में आप आगे बढ़ें- उससे पहले मुगलों के रेवेन्यू सिस्टम और नाना प्रकार के टैक्स में मिली कमाई का खर्च किस पर, कहां और कैसे होता था यहां क्लिक कर समझ सकते हैं. सबसे ऊपर बादशाह, फिर उनके रिश्तेदारों, दरबारियों और निचली इकाई के अफसरों, मदरसों के मौलवियों तक उन्हीं के ऐतिहासिक संदर्भों में.

karwachauthकरवा चौथ की दो तस्वीरें और आलोचना. कपिल शर्मा

हजारों साल के अवसाद एक दो पीढ़ी की संपन्नता के साथ ख़त्म नहीं होंगे

अब आप कहेंगे कि पहनने-ओढ़ने की आदतों और त्योहारों पर अवसादग्रस्त चेहरों पर बंदा प्रवचन क्यों दे रहा है? प्रवचन देने की वजह असल में करवाचौथ है. एक फोटो वायरल है. फोटो नितांत निजी किस्म की है. उसमें नाबालिग बच्चे भी हैं. बिना संबंधित परिवार की अनुमति के किसी व्यक्ति का साझा करना किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता. बावजूद कि संबंधित व्यक्ति या उसके परिवार ने उसे सोशल मीडिया पर ही क्यों ना डाला हो. समझदार, बुद्धिजीवी लोगों ने फोटो साझा क्यों किया, मकसद क्या था? फोटो में करवाचौथ का व्रत तोड़ने वाली सजीधजी महिला पति के पैर छू रही है. महिला और उसके बच्चों के चेहरे पर खुशी दिख रही है. बच्चों के सामने झिझक रहे पति की मुस्कान बता रही कि वह भी खुश है. लेकिन पति रोजाना के कपड़ों- हाफ पैंट और टी शर्ट में नजर आ रहा है. हालांकि वह बहुत ही शालीन और धीर गंभीर तरीके से खड़े हैं. कुछ लोगों के लिए संबंधित पुरुष की यही छवि आलोचना का विषय है- कि साब भाभी जी इतना तैयार हैं- कम से कम आप भी त्योहार पर ठीक से कुछ पहन ओढ़ लेते. मुल्लों के परिधान से इतनी एलर्जी क्यों? जो समाज ईसाईयों के परिधान को पहनकर सत्य नारायण की कथा सुन सकता है, अपने जीवन के सबसे बड़े संस्कार विवाह के मंडप में बैठ सकता है- उसे मुल्लों के कपड़ों से एलर्जी क्यों होगी भला?

शायद लोगों ने 'मुल्ला' शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया कि वे कहना चाहते हैं कि कुर्ता-पजामा मुसलमानों की ड्रेस है. दूसरी ओर करवाचौथ को लेकर सोशल मीडिया पर लाखों तस्वीरें नए-नए जोड़ों की मिल जाएंगी, जिसमें पति-पत्नी लकदक सजे-धजे नजर आ रहे हैं. सजे-धजे परिवार असल में वे हैं जिनके परिवार में संपन्नता तीसरी-चौथी-पांचवीं या इसके आगे की पीढ़ियों में पहुंच चुकी है. उनके चेहरे पर हर त्योहार का जश्न नजर आता है. वे ऐतिहासिक अवसाद से लगभग मुक्त हो चुके हैं. मैं नहीं जानता, लेकिन जिस परिवार के बहाने असल में करवाचौथ की 'इंटेंशनली' आलोचना हो रही है वह निश्चित ही दूसरी पीढ़ी में संपन्न हुआ लगता है. आलोचना करने वाले सेकुलर, और मिलीजुली सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाले बुद्धिजीवी हैं. ऐसी तमाम पोस्टों पर प्रतिक्रियाएं भी दिलचस्प हैं. इमोजीज के साथ एक धार्मिक वर्ग की सोद्देश्य प्रतिक्रियाएं बता रही कि करवाचौथ मना रहे लोगों का अतीत सेक्सुअली कितना 'मजबूर' और 'भ्रष्ट' था. इमोजीज लगा देने भर से शब्दों के अर्थ बदल नहीं जाते. वह एक तरह से अपमानित ही कर रहे हैं. और मजेदार यह भी कम नहीं कि दूसरा वर्ग प्रतिक्रियाओं के मकसद को समझे बिना कॉमप्लीमेंट मान रहा है.

गैरमुस्लिमों के त्योहारी दुख को दिखाने वाली कहानियां क्यों नहीं लिखी गई?

फोटो के साथ ऐसी प्रतिक्रिया लिखने वाले औसत बुद्धि के लोगों को लेकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं. डॉ. राही मासूम रजा और सआदत हसन मंटो जैसे 'महाज्ञानी' भी जब यह फर्क करना भूल सकते हैं तो भला 'शब्दों की जलेबी' को ज्ञान समझ बैठे दो कौड़ी के चिट्ठीपुत्र मूर्खों से क्या ही उम्मीद की जाए. आप चाहें तो मेरे हवाले से सवाल करने वालों को चुनौती दे सकते हैं- फारसी, उर्दू और हिंदी में गैरमुस्लिमों के त्योहार, उनकी परंपराओं को केंद्र में रखकर उनकी विपन्नता का चित्रण करने वाली कोई एक कहानी खोजकर दिखा दें. एक अदद कहानी. 100 करोड़ की आबादी वाले देश में क्या ऐसी एक भी कहानी नहीं मिली? मुंशी प्रेमचंद जरूर अपनी कहानियों में भारतीय समाज के विपन्नता का मार्मिक चित्रांकन करते दिखते हैं- मगर हिंदुओं के लिए एक 'ईदगाह' जैसी कहानी की कल्पना तक नहीं कर पाए. भारतीय ग्रामीण समाज की विपन्नता को लेकर उनकी कहानियों में किसान और उसके पेशे की मुश्किलें नजर आती हैं. जाहिर सी बात है कि मुश्किलों में घिसट रहा तबका त्योहारी जश्न तक पहुंचे भी तो कैसे?

जनाब सआसदत हसन मंटो साब ने इस्लामी त्योहार के जरिए एक मुस्लिम महिला की विपन्नता का मार्मिक चित्रण 'काली सलवार' में बखूबी किया. इस पर एक बढ़िया फिल्म भी बनी है आप चाहे तो देख सकते हैं. और रजा साब ने नीम का पेड़ में एक रईस मुस्लिम परिवार की विपन्नता कितनी ख़ूबसूरत राजनीतिक समझ के साथ दिखाई. ना तो प्रेमचंद का दोष है ना ही मंटो का और ना ही रजा साब का. ब्रिटिश इंडिया से पहले हिंदुओं का त्योहारी जश्न उत्तर में लगभग ख़त्म ही हो चुका था. यह तो पुनर्जागरण के बहुत बाद शुरू हुए दुर्गापूजा, गणेशोत्सव, रामलीलाओं जैसी चीजों की वजह से जोर पकड़ने लगा. प्रकाश पर्व की वजह से शुरू हुआ. ना त्योहार थे, ना उनके जश्न ना उनके उल्लास. फिर भला कोई साहित्यकार उनके आसपास ईदगाह और काली सलवार जैसी कहानियां कहां खोजता. ध्यान आकर्षित करने वाली कोई चीज ही नहीं थी.

एजेंडाग्रस्त चीजों का पुनर्पाठ जरूरी, वर्ना शरद पवार भ्रम में ही रहेंगे  

यही वजह रही कि हिंदुओं के त्योहार और उसमें उनकी विपन्नता को लेकर कोई ईदगाह कोई काली सलवार नहीं लिखी गई. और रजा साब की कहानी में शुद्ध रक्त का जमींदार मुसलमान वक्त के साथ विपन्न हो जाता है तो उसकी सबसे विपन्न पीढ़ी में क्रांतिकारी पैदा हो जाता है. जबकि पहली ही पीढ़ी का बंधुआ दलित बुधराम का संपन्न सक्षम वारिस सुखराम- भ्रष्टाचारी साबित हो जाता है. पुराने जमींदार साब का बेटा क्रांतिकारी बनता ही है सुखराम के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर. रजा साब के नीम का पेड़ को पढ़िए (सीरियल भी है), एक गरीब जमींदार की पीड़ा से रो देंगे आप. सिर्फ एक पीढ़ी की विपन्नता ने रजा और मंटो को लिखने पर विवश कर दिया और सिर्फ एक पीढ़ी की विवशता से द्रवित होकर मुंशी प्रेमचंद ने भी ईदगाह लिख मारी.

मुझे नहीं मालूम साहित्य के आलोचकों (वामपंथी) की नजर पड़ी या नहीं? अम्बेडकरवादियों को जरूर ध्यान देना चाहिए इसपर. दलितों में कोट पहनने का क्या सामाजिक संदेश है? यह जानने की कोशिश हुई कभी हिंदी की मुख्यधारा में. तमाम दलित भारी गर्मी में भी सूट बूट पहने नजर आते हैं. साइकिल चला रहे हैं, पसीना निकला जा रहा है. मगर कोट पहने हैं. सस्ता ही सही. उनके इस व्यवहार का तो जातिगत आधारों पर मजाक तो खूब उड़ाया गया लेकिन कभी इसके पीछे की वजहों को समझने की कोशिश हुई? तमाम एजेंडाग्रस्त साहित्य का फिर से पुनर्पाठ जरूरी है. इसलिए कि अभी शरद पवार ने भी सवाल उठाया है कि भारतीय मुसलमान कवि, लेखकों, फिल्म मेकर्स का बड़ा योगदान रहा है. बावजूद कि जब 1931 में जनगणना के आंकड़े देखते हैं तो यूपी, ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और जम्मू कश्मीर तक 7 प्रतिशत से भी कम साक्षरता दर चीजों को बेपर्दा कर देती है. उस साक्षरता की दर की धार्मिक और जातीय विश्लेषण आज की तारीख में बहुत जरूरी सवाल है क्योंकि तमाम चीजें उसे नजरअंदाज कर भारत को विभाजित करने के लिए थोप दी जाती हैं. खैर.

बात पीड़ाओं के लेखन की हो रही थी. धार्मिक लेखन पर नजर डाले तो काल विभाजन और पीड़ा दोनों देखा जा सकता है. सोचिए कि कम से कम पांच हजार साल पहले जो समाज वेदों में दूध, घी, दही, शहद, मलमल के वस्त्र, नाना प्रकार के अनाजों, पकवानों और व्यंजनों (खीर, वडा, दही चावल, पूरिया दुनिया के सबसे प्राचीन व्यंजन हैं), महंगे धातुओं को यज्ञ की अनिवार्य आहुति बता रहा है उसी समाज की बहुत बाद की कथाओं में अभाव नजर आता है. सत्य नारायण की कथा जैसे तमाम साहित्य में दर्ज मिलता है कि अगर पूजन के लिए कुछ भी नहीं है तो देवता को दाल-गुण, आटे की पंजीरी, तुलसी दल, कोई मौसमी फल, मलमल के वस्त्र की जगह धागे और माला फूल आदि से पूजा कर सकते हैं. क्या लगता है- लालची पुरोहितों ने यह बदलाव क्यों किया होगा? निश्चित ही राजनीतिक आर्थिक वजहों से समाजों पर जो बोझ पड़ा था, हमारी आदिम पौराणिक परंपराओं पर उसके असर को रोकने के लिए. इसलिए कि मिस्र, यूनान आदि की तरह हमारी परंपराएं भी संग्रहालयों की वस्तु ना बन जाए. और करवाचौथ से दिक्कत क्यों है? हमारी आदिम पौराणिक परंपराओं और संस्कृति को संग्रहालयों की वस्तु बनाने के लिए. दुर्भाग्य से वह बनता तो नहीं दिख रहा है.

विष्पला की भूमि पर एजेंडाग्रस्त स्त्रीवाद की जरूरत नहीं  

...और अब तक तो दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक इतने त्योहार (जिनमें ना जाने कितनी स्थानीय परंपराएं हैं) मनाए जा रहे कि हम कल्पना तक नहीं कर सकते. अभी कन्नड़ फिल्म कंतारा से भी एक आंचलिक पौराणिक परंपरा का पता चल रहा है. साल बीतने के साथ स्थानीय परंपराओं का दायरा पैन इंडिया होता जा रहा है. बावजूद नई पीढ़ियों को छोड़ दें तो झिझक पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है. असल में करवाचौथ को लेकर वायरल फोटो में लोगों की आलोचना का मकसद ड्रेस था ही नहीं. मसला वही था. एक धर्म विशेष की परंपराओं का विरोध करना. स्त्रीवादी, स्त्री अधिकार की आड़ लेकर विरोध कर रहे हैं. कपिल शर्मा शो में महिलाओं के व्रत को मजाक का विषय मानकर एक तरह से उसकी निंदा कर रहे हैं. नास्तिक- पाखंड बता रहे हैं. अलग-अलग रास्तों के बावजूद सबका लक्ष्य एक ही है. यह तो पति-पत्नी के प्रेम और उनका एक-दूसरे के प्रति समर्पण का त्यौहार है. इसमें पति पत्नी और उनके परिवार के अलावा किसी तीसरे के दखल की इजाजत किसने दी? करवाचौथ से किसी भी तरह किसी भी तीसरे का नफा नुकसान क्या है? बावजूद इसकी आलोचना कर सकते हैं कि प्रेम और समर्पण के त्यौहार में सारी जिम्मेदारी अकेले महिलाओं के कंधे पर क्यों डाली गई?

मगर यह आलोचना करने का भी अधिकार किसको मिलना चाहिए और आखिर आलोचना की जरूरत भी क्या है, जबकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं जिससे किसी पंथ, किसी व्यक्ति, किसी स्थान, किसी भाषा, किसी जाति या अन्य चीजों के लिए दुर्भावना हो. समाज को खतरा हो, देश को खतरा हो. क़ानून प्रभावित हो रहा है. जनाब स्कर्ट पहनने वाली, लाखों का पैकेज लेने वाली कामकाजी व्याहताएं भी करवाचौथ का व्रत रख रही हैं. तमाम धार्मिक महिलाएं नहीं भी रख रही हैं. और तब आलोचना करने की क्या जरूरत है जब बड़ी मात्रा में पुरुष खुद ब खुद पत्नियों के प्रेम और करुणा में दिनभर वैसे ही व्रत उपवास करने लगे हैं. युवा जोड़ों में यह प्रवृत्ति बहुत लोकप्रिय हो रही है. वे पत्नी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करने में अपने पिताओं की तरह सार्वजनिक रूप से सकुचाते नहीं दिखते. जैसे वायरल फोटो में आदमी खड़ा है और बच्चों के सामने पत्नी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन भी नहीं कर पाता. वह लकदक कपड़े पहनकर पत्नी को मोह लेने का साहस चाहकर भी नहीं जुटा पाता. उसने पत्नी के लिए यह साहस सिर्फ विवाह के दिन दिखाया होगा. जिनके यहां संपन्नता की उम्र लंबी होती जा रही है वहां नए जोड़ों के साथ दिक्कत नहीं है. सरेआम हाथ में हाथ लिए पत्नी के साथ घूमते हैं, उसे दुलार करते हैं, चूमते हैं और कसकर गले लगाकर भरोसा जताते हैं.

भला आलोचना की क्या जरूरत है जब उनके दायरे में ही लोग महिलाओं के व्रत और तमाम चीजों से असहमति जताते हैं. नमाज मेरी पूजा पद्धति नहीं है, लेकिन मुझे यह सवाल उठाने का हक़ नहीं कि ये लोग दिनभर पांच बार उठक-बैठक करते रहते हैं. क्या है ये? ऐसी बहुत सी मजहबी चीजें हैं, बावजूद मुझे सवाल उठाने का हक़ नहीं है. मैं सवाल उठाऊंगा तो वह जान बूझकर हो सकता है. उनके बीच से ही सवाल किया जाए तो वह स्वाभाविक होगा. वह गलत है या सही- यह बाद की बात है. बावजूद मैं सिर्फ वहां नमाज पर सवाल उठा सकता हूं जिसकी वजह से मुझे बार-बार परेशानी हो. वाजिब परेशानी. और मुझे उठाते रहना चाहिए. जहां तक बात भारतीय धर्मों की है- यह उनकी सबसे बड़ी खूबसूरती है कि वे अपने दायरे में कभी बहस ख़त्म नहीं करते. हर दौर और हर समय करते ही रहते हैं और उसमें सुधार करते हुए वह संग्रहालय की वस्तु बनने से अब तक बच हुए हैं. दुनिया की सबसे प्राचीन संस्कृति भारत की जमीन और एशिया की जमीनों पर सांस लेती है, लेती रहेगी. अब पूछेंगे क्यों? जनाब दक्षिण के चर्चों में लूंगी पहनकर और सिर पर त्रिपुंड लगाकर जाने वालों की अच्छी खासी भीड़ दिखती है. इस्लामिक तकरीरे देखता हूं- मौलाना पवित्र कुरान के संदेश राम, कृष्ण और गौतम के उद्धरणों से समझाने की कोशिश करते हैं. इस्लाम में वर्जित कब्र यहीं भारत में पूजी जा रही है. भारत में ना कोई चीज पहली है और ना ही अंतिम. यह समाधान निकाल लेने वाला देश है. क्योंकि यह आपस के संवाद कभी ख़त्म ही नहीं करता.

लेकिन किसी मामले में किसी तीसरे को बिना मतलब के सिलेक्टिव आलोचना का अधिकार नहीं दिया जा सकता? वह भी उस स्थिति में जब गैरभारतीय धर्मों में तमाम मानवता विरोधी चीजें बदस्तूर जारी हैं. हां, हिंदुओं में भी स्त्रियां पीटी जा रही हैं अपने पतियों के हाथ, अभी भी. लेकिन यह तो बिल्कुल अलग सामजिक-आर्थिक-शैक्षिणक मसला है. विद्वानों का अलग-अलग चीजों को इंटेंशनली एक कर देना गंभीर बीमारी है. उन्हें करवाचौथ से दिक्कत नहीं बल्कि उस संस्कृति से दिक्कत है, उस बदलाव से दिक्कत है जो व्यापक होती जा रही है. बिना किसी सांस्थानिक प्रयास के. खुद ब खुद. यह बदलाव संपन्नता की देन है. यह सिर्फ और सिर्फ 15 साल का कमाल है. सरकारों का जितना श्रेय है उतना ही कॉरपोरेट का और इस देश के श्रम का.

यह तो अच्छी बात है कि करवाचौथ ने इतना विशाल रूप ले लिया है कि देश में कारोबार के जरिए व्यापक रोजगार देने में भी सक्षम हुआ. जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं बर्बाद नजर आती है- सिर्फ करवाचौथ पर देश में तीन हजार करोड़ से ज्यादा का आभूषण कारोबार हो जाता है. यह पिछले करवाचौथ से आठ सौ करोड़ ज्यादा है. यह एक बिजनेस का हाल है. ऐसा त्योहार जिसमें शायद अभी आधे भारत की भागीदारी पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं है. लोगों को तो खुश होना चाहिए. और वे स्त्रीवादी जो करवाचौथ का व्रत नहीं करने और पतियों को तलाक देने में महिला के मुक्ति का मार्ग तलाश रही हैं- उन्हें खुद की मुक्ति के बारे में चिंतन करना चाहिए. 'विष्पला' से लेकर कुमारी मायावती तक देश में महिलाओं की समृद्ध परंपरा है. विष्पला से पहले भी. ऋषिकाओं ने भी ऋगवेद की रिचाए लिखी हैं. हर दौर में हमारी महिलाएं वॉरियर और राज करती रही हैं. वह बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं थीं कभी. विष्पला उन्हीं महान वैदिक वॉरियर्स में से एक हैं. देवियों की तो बात ही छोड़ दीजिए. उनसे पहले और उनके बाद अबतक महिलाओं को खोज-खोजकर पढ़िए. स्त्रीवाद का पाठ भारत को पढ़ाने की जरूरत नहीं. पुरुष और स्त्री की एक-दूसरे के प्रति प्राकृतिक जरूरतें और जिम्मेदारियां हैं. जरूरी नहीं कि किसी का काम इलेक्ट्रिक वायब्रेटर और डमी गुड़िया से चल जाता है तो दूसरे भी उसी का अनुकरण करें.

और कपिल शर्मा को क्या ही कहें? जिन्होंने हद दर्जे तक जाकर व्रत रखने वाली करोड़ों महिलाओं की भावनाओं का स्पेशल शो के जरिए मजाक उड़ाया. कपिल को दिक्कत है तो अपने घर की परंपरा बंद क्यों नहीं करवा देते? उनकी पत्नी हर साल व्रत करती हैं. महिलाओं की इतनी चिंता है तो उन्हें रचनात्मकता के नाम पर और मुद्दों को भी कॉमिक अंदाज में जरूर पेश करना चाहिए. अगर वे सच में स्त्रियों के हिमायती हैं तो. बाकी करवाचौथ की व्यापकता किसी सिनेमा की वजह से नहीं है. सिनेमा से बहुत पहले इसे करने वाले करते रहे हैं. सिनेमा ने उसे प्रचारित नहीं भुनाने की कोशिश की है. दुखी होने वाले इस बात से जरूर परेशान हो सकते हैं कि भविष्य में इसका और ज्यादा विस्तार होगा. करवाचौथ रखने वाले पुरुषों की संख्या भी बढ़ती जाएगी. और एक दिन जरूर ऐसा आएगा जब स्त्री पुरुष सामान होंगे.

रईसी गंवाने की पीड़ा में जब रजा साब नीम का पेड़ में क्रांतिकारी पैदा कर सकते हैं तो संपन्न क्रांतिकारियों और स्त्रीवादियों को विपन्नों के त्योहार, उनकी परंपराएं और हर्षउल्लास मन को कभी नहीं भाएंगे.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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