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Updated: 19 सितम्बर, 2022 05:48 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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सीरिया आज की तारीख में एक बर्बाद मुल्क है. हालांकि उसकी विरासत अरब में किसी भी दूसरे मुल्क से कमतर नहीं बल्कि कई मायनों में श्रेष्ठ है. वहां की 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी फिलहाल मुस्लिम है. सीरिया और भारत में एक बड़ी समानता है. दोनों देशों ने इस्लाम की तलवार लेकर निकले तैमूर का जो दमन झेला है- वैसी मिसाल शायद ही दुनिया के इतिहास में खोजने पर कहीं और मिल जाए. दिल्ली हमलों के दौरान सिंध, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में तैमूर ने जिस तरह कत्लेआम और तबाही मचाई लगभग वैसी ही तबाही उसने सीरिया में भी मचाई थी. तैमूर के अत्याचारों को झेलने के मामले में भले सीरिया और भारत एक तराजू पर दिखते हैं बावजूद तैमूर और उसकी वंश परंपरा के शासकों का जितना सम्मान हिंदुस्तान में होता है-  मुस्लिम देश होने के बावजूद सीरिया तैमूर के नाम पर थूकना पसंद करता है. कभी इच्छा हो तो तैमूर को लेकर सीरिया के सबसे लिबरल इतिहासकारों के निष्कर्ष पर जरूर ध्यान दें.

करीब-करीब 600 साल बीतने के बावजूद तैमूर का दमन सीरिया में तरोताजा है. इस्लाम का ब्रदरहुड भी उसे कमजोर नहीं कर पाया. कोई भी व्यक्ति तैमूर नाम रखने की कल्पना तक नहीं करता. बावजूद कि किसी व्यक्ति के कुकर्मों का किसी भी नाम से कोई वास्ता नहीं होता. लेकिन भारत इस मामले में सीरिया से अलग दिखता है. यहां तैमूर, औरंगजेब और अकबर के नाम उनके कारनामों से प्रभावित होकर रखे जाते हैं. नामकरण छोडिए- उन्हें भारत के विध्वंसक, शोषक की बजाए निर्माता और नायक के रूप में महिमामंडित करने की होड़ नजर आती है. इतिहास का चाहे जो भी पन्ना पलटें- भारत का समूचा इतिहास चंगेज और तैमूर के आततायी वंशजों की महानता के बोझ तले दबा दिखता है. इधर, ज्ञानवापी की वजह से औरंगजेब के कुकर्म उसकी कच्ची कब्र से बार-बार बाहर निकलकर झांक रहे हैं और चिल्ला रहे हैं. लेकिन पर्दादारी जारी है. औरंगजेब की ऐतिहासिक क्रूरता पर अकबर की महानता का परदा डाला जा रहा है.

यह मुहिम सैकड़ों साल से जारी है. अकबर को भारत का निर्माता बताने की मुहिम ख़त्म ही नहीं हो पा रही. आज भी उसकी प्राणप्रतिष्ठा के लिए नाना प्रकार के 'सेकुलर' जतन होते रहते हैं. लोग भूल जाते हैं कि इतिहास असल में रबर की तरह है. इधर-उधर खींचने से कुछ देर के लिए उसकी आकृति जरूर बदल सकते हैं लेकिन खींचतान बंद होते ही वह फिर अपने स्वाभाविक रूप में आ ही जाता है. इतिहास को भी जब खींचतान से अलग उसके सहज रूप में देखते हैं तो वह वहीं दिखता है असल में जहां उसे होना चाहिए. इतिहास के किसी भी पन्ने में अकबर रत्तीभर भी महान नहीं दिखता बल्कि औरंगजेब तक सभी उसकी मुगलिया पटकथा पर ही काम करते नजर आते हैं. औरंगजेब ने सिर्फ डायरेक्ट एक्शन भर दिखाया था.

mughalअकबर

अकबर ने बनाई थी भारत में मिडिल इस्टर्न कॉलोनी

भारत के इतिहास को हिंदू-मुस्लिम चश्मे की बजाए जब भी ईमानदार होकर देखा जाए तो पता चलता है कि अंग्रेजों से कई सौ साल पहले 'महान अकबर' ने भारतीय उपमहाद्वीप में व्यवस्थित उपनिवेश की नींव डाली थी. यह 'मिडिल इस्टर्न ईरानी कॉलोनी' थी. इसके राजनीतिक, आर्थिक, भाषाई और सांस्कृतिक मकसद से थे और यह इस्लाम की सर्वोच्च व्यवस्था के मुताबिक़ ही थी. हालांकि इसमें इस्लाम का कितना दोष है मैं उस विषय में नहीं जाना चाहता. अकबर से पहले दिल्ली में सल्तनतों या बाबर और हुमायूं के रूप में उसके दादा और पिता को देखते हैं तो वे अकबर जैसी योजना के नहीं होने की वजह से जूझते नजर आते हैं. जीवन पर्यंत संघर्ष में ही रहें. लेकिन अकबर से लेकर औरंगजेब से पहले तक दिल्ली एक ढर्रे पर बहुत शांत और व्यवस्थित है. यह उसके बनाए उपनिवेश का ही चमत्कार था. और तब से आज तक भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम सियासत पर इन्हीं दो की संताने अपना उपनिवेश चला रही हैं. 

बाबर, भारत में दो विदेशी समूहों को लेकर दाखिल हुआ था. इसमें एक ईरानी था और दूसरे में मध्य एशियाई शामिल थे. दिल्ली में मुगलिया तख़्त की स्थापना के बाद बाबर ने सत्ता का बंटवारा इन्हीं दो विदेशी समूहों के बीच किया था. इसमें कोई राजपूत, मध्य जातियों के क्षत्रप, दूसरी जातियों और भारतीय मुस्लिम खोजे भी नहीं मिलेगा. हुमायूं ने भी लगभग इसी व्यवस्था पर आगे बढ़ने की कोशिश की. लेकिन उसके साथ दिक्कत यह हुई कि बाबर ने जिस कौशल और बारूद की वजह से दिल्ली हथियाया था भारत में दूसरी विदेशी इस्लामिक ताकतें उसी के सहारे चुनौती देने लगीं. सत्तालोलुप ताकतें भी मुगलों पर पलटवार के मूड में थीं. सत्ता की महत्वाकांक्षाओं ने हुमायूं के सामने चुनौती पेश की. ठीक वैसे ही जैसे आज की गठबंधन राजनीति के नतीजे दिख जाते हैं. तब भी दिखा. हमेशा दिखेगा. और उसके वही हानि लाभ दिखते हैं जो स्वाभाविक है.

शेरशाह ने तमाम मुस्लिम, अफगानी, राजपूत, और मध्य जातियों के क्षत्रपों की मदद से हुमायूं को भागने पर विवश कर दिया. मगर वह जब वापस लौटा तो और ज्यादा मात्रा में ईरानी और मध्य एशियाई लोगों को लेकर आया और सत्ता पर भी काबिज हुआ. अकबर जब बादशाह बना वह युवा था. मगर अनुभवी लोगों की निगरानी में था. उसने चीजों को पूरी तरह नियंत्रित और स्थायी बनाने की दिशा में व्यवस्थित शुरुआत की. एक टिकाऊ 'मध्य एशियाई और ईरानी उपनिवेश' बनाने के लिए अकबर की पहली जरूरत सामरिक ही थी. उसने दो काम चालाकी से किए.

aurangzebऔरंगजेब

एक- राजपूतों को अपने साथ जोड़ा. राजपूत अपने युद्ध कौशल के लिए मशहूर थे और भविष्य के लिहाज से हमेशा मजबूत चुनौती तो थे ही तब. सिर्फ महाराणा प्रताप को छोड़ दिया जाए तो अकबर ने बुद्धि और बल से राजपूतों को लगभग काबू कर लिया. राजपूत घराने में शादी तक के विवरण इतिहास में हैं. हालांकि तैमूर चंगेज से वंश परंपरा जोड़ने वाले मुग़ल इसका जिक्र नहीं करते. राजपूत भी.

दूसरा- मुसलमान बन चुके पहली दूसरी पीढ़ी के भारतवंशियों को भी अपने साथ जोड़ा. ऐसे भारतवंशी मुसलमान जो बाबर की तरफ से भारतीय क्षत्रपों के खिलाफ इस्लाम की सत्ता के लिए 'जेहादी यलगार' के बावजूद भारतीय राजाओं के साथ ही लड़कर मरें. अकबर के लिए यह गठबंधन सिर्फ तात्कालिक सामरिक चुनौतियों से जूझने भर के लिए थी, उन्हें सत्ता में बराबर भागीदार बनाने के लिए नहीं. आधुनिक भारतीय राजनीति में भी देखें तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं. खैर, इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अकबर के समय से औरंगजेब तक मुगलिया व्यवस्था में 70-30 का अनुपात होता था. यानी शासन में 70 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मुसलमानों का था और 30 प्रतिशत में भारतीय मुसलमान, राजपूत और मध्य जातियों के रजवाड़े ब्राह्मण क्षत्रप भी 30 के आधे में थे. अकबर को महान बताते हुए सहिष्णुता का उदाहरण देने वाले भूल जाते हैं कि उसके राज में तमाम बड़े ओहदों पर जो गैरमुस्लिम नजर आते थे उसमें से इक्का दुक्का को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई गैरमुस्लिम होकर मरा हो. लिबरल इतिहासकार तर्क को खारिज करना चाहें तो कह सकते हैं कि जातीय भेदभाव की वजह से और कर्मकांड पाखंड से तंग आकर गैरहिंदू दरबारियों ने स्वेच्छा से अपना धर्म छोड़ा था. और उन्होंने इस्लाम थोड़े पकड़ा, दीन ए इलाही की शरण में गए.

तीर्थयात्राओं पर अकबर ने टैक्स क्यों लगाया था

अकबर और उसके बाद के दौर का रेवेन्यू मॉडल के पीछे उसका असली रूप नजर आता है. टैक्स की स्थिति बहुत भयावह थी. रेवेन्यू का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि से आता था और लोगों को लगभग निचोड़ ही लिया जाता था. टैक्स कितने भयावह रहे होंगे इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि लोग खेती छोड़कर जंगलों में भाग जाते थे और उन्हें वापस लाकर जबरदस्ती खेती करवाई जाती थी. यहां तक कि गैर मुस्लिमों के लिए धार्मिक टैक्स तक थोप दिए गए थे. बाहरी व्यापार पर भी विदेशियों का नियंत्रण था. हर तरफ बिचवाली का बोलबाला था. सोचने वाली बात है कि धार्मिक मामलों में टैक्स वसूलने की तब जरूरत क्या थी? मुगलिया इतिहासकार कहते हैं कि यह टैक्स तीर्थयात्रियों की सुरक्षा और उन्हें सुविधा देने के लिए वसूला जाता था? बादशाहों के मकबरे भारत में जगह-जगह दिख जाएंगे, लेकिन कितने तीर्थ स्थलों पर मुगलों द्वारा निर्माण की गई सुविधाएं नजर आती हैं.

महान और सहिष्णु अकबर भी धार्मिक टैक्स लेता था जिसका हमारे सेकुलर इतिहास में विवरण नहीं मिलता. मुगलों के संदर्भ में भारतीय इतिहासकारों ने इसे खंगालना इसलिए उचित नहीं समझा कि अकबर की नंगई खुद ब खुद सामने आ जाती. जबकि लिबरल सर्टिफाइड प्रमाणिक तथ्य यह है कि उसके बहुत बाद शाहजहाँ के कोर्ट में हिंदू संत के पहुंचने और उससे प्रयागराज जैसे तीर्थस्थलों से धार्मिक टैक्स हटाने का अनुरोध किया जाता है. वह मान भी लेता है. अब इतिहासकारों को बताना चाहिए कि अगर अकबर गैर मुस्लिमों से टैक्स नहीं लेता था फिर शाहजहाँ को उसे हटाने की जरूरत भला क्यों पड़ी? कहीं ऐसा तो नहीं- धार्मिक टैक्स इस वजह से था कि लोग तीर्थस्थलों पर जाने के लिए सौ बार सोचें. और पहले ही गैरहिंदुओं से इतने टैक्स ले लिए जाए कि वह तीर्थस्थल तक आने के बारे में सोच ही ना पाए. मुझे नहीं पता, लेकिन किसी ईर्ष्यालु व्यवस्था को जर्जर करना होगा तो एक तानाशाह के रूप में तो शायद कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यही करेगा.

सिर्फ 1600 लोग मिलकर चलाते थे शाही लूटतंत्र

इससे भी ज्यादा मजेदार रेवेन्यू के खर्चों में है जो अकबर के उपनिवेशवादी लूट तंत्र को बेनकाब कर देती है. मुग़ल पीरियड में समूचा रेवेन्यू का बंदरबाट मात्र 1600 या उससे कुछ ज्यादा लोगों के बीच होता था. ये सभी या तो बादशाह के रिश्तेदार होते थे या वे विदेशी थे जो सल्तनत में बड़े ओहदों पर आसीन थे. इसमें तमाम लेखक, कवि, इतिहासकार और दार्शनिक थे. ऐसे लेखक जो सैनिक साजो सामान के साथ रहते थे. अबुल फजल भी इन्हीं में से था. इतिहासकार उसे एक ईमानदार विद्वान की तरह ट्रीट करते हैं. वह भी एक बड़ी सेना रखता था. तब सिर्फ इन्हीं 1600 लोगों पर कुल रेवेन्यू का पचास प्रतिशत खर्च हो जाता था. इनके अलावा अकबर के पास भी एक केंद्रीय सेना थी जिसके रखरखाव पर वह रेवेन्यू का और दस प्रतिशत हिस्सा खर्च करता था. यानी अकबर करीब 60 प्रतिशत रेवेन्यू सिर्फ मिलिट्री पर खर्च करता था. यह उस दौर की बात है जब भारत पर इतिहास में कोई बाहरी खतरा नजर नहीं आता. रेवेन्यू का बाकी खर्च अय्याशी के नाम और मकबरे आदि शाही निर्माण पर होती थी. इतना रेवेन्यू शायद विश्वयुद्ध अंग्रेजों ने भी ना खर्च किया हो. इतिहासकारों को बताना चाहिए कि अकबर के दौर में मिलिट्री पर इतना खर्च कहां और किस बात के लिए हो रहा था?

असल में अकबर एक ऐसे विजन पर काम कर रहा था जिसने आज तक भारत का पीछा नहीं छोड़ा है. उसे भारत की भाषा, उसके रिवाज उसके धर्म उसकी हर चीज से नफ़रत थी. यहां तक कि इस्लाम से घृणा की वजह से धर्म परिवर्तन से परहेज करने वालों को भी उसने 'इस्लामिक दीन-ए-इलाही' का ही विकल्प दिया. वह चाहता तो बुद्ध को भी बढ़ा सकता था. या एकेश्वरवादी वीर शैव सम्प्रदाय को भी. जहां जाति पाति छुआछूत कुछ भी नहीं. लेकिन उसका एकमात्र मकसद ही भारतीय धर्मों को कमजोर करना रहा होगा. इसीलिए उसे दीन ए इलाही की जरूरत पड़ी होगी. उसके लगभग सभी प्रभावशाली गैरमुस्लिम दरबारियों ने धर्मांतरण किया. ये बात दूसरी है कि उसके बाद उसके अपने परिवार में भी कोई दीन-ए-इलाही की विरासत पर आगे बढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेता. यह अकबर ही था जिसने भारतीय भाषाओं को ख़त्म करने के लिए ऊपर से नीचे तक पहली बार पर्सियन को अनिवार्य कर दिया. रातोंरात और यहां तक कि गांव के पटवारी के लिए भी. सनकभरे फैसले से लोगों को फारसी सीखने के लिए मजबूर होना पड़ा. अकबर ने क्या किया? उसने व्यापक रूप से मदरसा और उसके सिलेबस को दुरुस्त किया. ईरान से मौलवियों को फारसी सिखाने के लिए बुलवाया गया और शहर-शहर कस्बे-कस्बे मदरसा ना सिर्फ भाषा बल्कि इस्लामिक संस्कृति के प्रचार का हथियार बन गए. बावजूद अफगानिस्तान या दूसरे देशों की तरह यहां इस्लाम का बोलबाला क्यों नहीं हुआ- यह दुनिया के सबसे बड़े शोध का विषय होना चाहिए.

फारसी के लिए अकबर का शातिरपना यहां देखिए

असल में तमाम चीजें उपनिवेश के लिए उसकी सांस्कृतिक योजना की जरूरत थीं. हालांकि फारसी से संक्रमण में जो प्राकृतिक रूप से नई भाषा बनी वह हिंदवी थी. और उसमें भारतीय भाषाओं की स्वाभाविक भरमार रही होगी. हिंदवी के भारतीय स्वरुप को लेकर अकबर तिरस्कार से भर गया और उसने हिंदवी के देसी शब्दों को निकालकर उसकी जगह फारसी और अरबी के शब्द रखवाएं. बावजूद हिंदवी ख़त्म नहीं हुई बल्कि एक और भाषा बन गई- उर्दू. हालांकि मुग़ल उर्दू के साथ आगे बढ़े लेकिन हिंदवी के देसी मिजाज की वजह से उससे हमेशा घृणा ही की. अगर अकबर सहिष्णु था तो भारत जैसे देश में एक अपरिचित भाषा के प्रोत्साहन की भला क्या जरूरत थी? वह चाहता तो किसी भी स्थानीय भाषा के साथ आगे बढ़ सकता था. इतिहासकार इस विषय पर भी बचकर ही निकल जाते हैं. गायकों संगीतकारों को छोड़ दिया जाए तो क्या अकबर ने किसी देसी भाषा के स्कॉलर को कभी प्रोत्साहित किया? और नैरेटिव यह निकलकर आया कि हिंदू साहित्य के फारसी अनुवाद के बाद सवर्ण जातियों से नीचे की जातियों को गीता जैसे धर्मग्रन्थ पढ़ने को मिले. फारसी इतना लोकप्रिय था तो भारत में सिर्फ दो सौ साल में वह लुप्तप्राय क्यों है और फारसी ने कितने गैरमुस्लिम  भारतीय विद्वान पैदा किए?

सोचने वाली बात यह भी है कि अकबर निरक्षर था. अपरिचित शब्दों को ना जानने की पीड़ा शायद ही उससे बेहतर कोई समझ सकता है. अगर वह तानशाह नहीं होता तो क्या रातोंरात फारसी को इस तरह अनिवार्य करता?

अकबर, राजपूतों का रिश्तेदार था लेकिन ना तो मानसिंह के इतिहास में उस बात जिक्र किया जाता है और ना ही मुगल अपने इतिहास में बताते हैं कि राजपूतों के साथ उनका खूनी रिश्ता है. यहां तक कि मानसिंह के हिंदू और मुग़ल स्थापत्य को भी देखें तो हिंदू स्थापत्य में वह मुग़लों की छाप से बचते दिखते हैं. इसका जीता जागरण उदाहरण आमेर में आज भी मिल जाएगा. असल में सांस्कृतिक बदलाव के लिए अकबर ने सभी सड़कों और राजमार्गों के किनारे मस्जिदों का निर्माण करवाया. बड़े पैमाने पर और उन इलाकों में भी जहां मुसलमान नाममात्र के भी नहीं थे. इस्लामिक प्रचार के लिए उसे यह जरूरी लगा. रेवेन्यू तो उसके बाए हाथ का खेल था. अगर कोई मंदिर दिख रहा होता तो उसे मुगलिया निर्माण से ढांपा गया. उसने मानसिंह को बिहार का गवर्नर बनाया था. रोहतास में मानसिंह ने कई भव्य मंदिर बनवाए. अकबर को यह नागवार गुजरा. तब मानसिंह को वहीं एक विशाल मस्जिद बनवानी पड़ी. हिंदू मंदिर छिप गए.

यहां तक कि मानसिंह अपने ही राज्य में दिवंगत बेटे की याद में एक भव्य मंदिर बनवाना चाहता था, लेकिन अकबर की महानता ने उसे भी ढांप दिया. आमेर में जब सागर रोड से गुजरेंगे तो आपको समझ में नहीं आएगा यहां दक्षिण की शैली में बना भव्य और ख़ूबसूरत 'जगत शिरोमणि' मंदिर है. औरंगजेब समेत तमाम मुग़ल शासक तो अकबर की ही पटकथा पर आगे बढ़ते दिखते हैं. औरंगजेब ने देश के तीन बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों- अवध बंगाल और डेक्कन में किसे गवर्नर बनाया? ईरान से आए शख्स को, या फिर उस ब्राह्मण बच्चे को जिसे धर्मांतरित करके के ईरान ले जाया गया. पालकों की मौत के बाद वह दीक्षित होकर वापिस आता है और गवर्नर बनाया जाता है. औरंगजेब भी तो अकबर की दूर दृष्टि पर ही खड़ा दिखता है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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