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Updated: 28 जनवरी, 2023 09:54 PM
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सो फिल्म रह गई है सिर्फ क्रिटिक्स के लिए, फर्जी फर्ज जो निभाया जाना है. फिर भी दाद देनी पड़ेगी हिस्से आए सिर्फ 300 स्क्रीनों पर फिल्म दो दिनों में 1.14 करोड़ का कलेक्शन कर ले गई है. सो 'पठान' के मुकाबले में स्क्रीनों की संख्या के लिहाज से फिल्म ठीक ठाक परफॉर्म कर रही है, जबकि दर्शक आम नहीं हैं, एक ख़ास क्लास से ही हैं. निःसंदेह थियेटर रिलीज़ से राजकुमार संतोषी लागत ना निकाल पाएं, लेकिन ओटीटी निश्चित ही भरपाई कर देगा. क्योंकि लागत 45 करोड़ मात्र है. दरअसल फिल्म है ही ओवर द टॉप स्टफ, व्यूअर्स के पास लिबर्टी जो होती है. समय अनुसार अपने इंटेल्लेक्ट को संतुष्ट करने का.

'गांधी गोडसे: एक युद्ध' के रिलीज़ होने के पहले कईयों ने खासकर राजनैतिक विपक्षी धड़े, मुख्य रूप से कांग्रेस ने, बिना जाने समझे ही सिर्फ नाम से अंदाजा लगाते हुए फिल्म को बैन किये जाने की मांग की थी. इस आरोप के साथ कि फिल्म महात्मा गांधी के विचारों को नकारते हुए गोडसे का महिमामंडन करती है. हालांकि ऐसा कुछ है ही नहीं, उल्टे फिल्म गांधी की महानता ही सिद्ध करती है. यदि कहें कि विपक्षी मांग मुख़र होती तो फिल्म को फायदा पहुंचता बॉक्स ऑफिस के लिहाज से; अतिश्योक्ति नहीं होगी. परंतु राजनीत्ति आड़े आ गई और बैन की मांग के सुर दबे दबे से ही रहे, 'पठान' के बैन की मांग की 'फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन' के तहत मजम्मत जो करनी थी.

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ऑन ए लाइटर नोट, #बॉयकॉट हाइप होता तो शायद "गांधी गोडसे: एक युद्ध" को भी खूब स्क्रीन मिल जाते और बॉक्स ऑफिस गणित कुछ और ही होता. बेहतर होता राजकुमार संतोषी फिल्म को गांधी की पुण्यतिथि के पहले रिलीज़ करने से परहेज करते और इसे पोस्ट पुण्यतिथि तक़रीबन एक पखवाड़े बाद रिलीज़ करते. शायद पहली बार इंडियन सिनेमा में "व्हाट इफ" स्टाइल में, हालांकि विदेशी फिल्मों में आम है ये जॉनर, रियल किरदारों को लेकर अनरियल कहानी बयां की गई है. दो विपरीत विचारधाराओं के रियल किरदारों को, जिनमें से एक ने दूसरे की हत्या की है, यूं साथ साथ लाने की कल्पना कर एक कहानी कहना जिसमें जोर इस बात पर है कि अगर हत्यारा (गोडसे) उनसे (गांधी), जिनकी हत्या की उसने, मिल लेता, दोनों के विचारों का कोंफ्रोंटेशन हो जाता तो वह उनकी हत्या कभी नहीं करता.

ये निश्चित ही एक नेक और बेहतरीन सोच है जिसके लिए प्रथम तो असगर वजाहत काबिले तारीफ हैं चूंकि उन्हीं के लिखे नाटक से प्रेरित है कहानी और दाद देनी पड़ेगी राजकुमार संतोषी की हिम्मत को भी इसे पर्दे पर लाने के लिए. किसी की कल्पना से इत्तफाक न रखने वाले होते हैं और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. सो इस फिल्म की आलोचना भी खूब होगी. चूंकि अवधारणा इतनी जबरदस्त है, बेजोड़ है कि निरर्थक आलोचना होगी ही नहीं. यही इस फिल्म को सार्थक बनाता है. आलोचनाओं का सटीक जवाब सिर्फ इसी बात में निहित है कि विमर्श की एक नई विधा के तहत कल्पना की असीम उड़ान को रूपहले पर्दे पर लाने की सोच फलवती तो हुई बॉलीवुड में. मीन मेख निकलते हैं या निकाले जाते हैं तो वे भी विमर्श को आगे बढ़ाने का ही काम करेंगे. सो वो क्या बोलते हैं अंग्रेजी में कि 'पर्पस सर्व्ड' और वही बड़ी बात है.

'यूं होता तो क्या होता' सरीखी अवधारणा जोखिम भरी होती ही है और जब बात दो विपरीत ध्रुवों की हो तो रिस्क और बढ़ जाता है क्योंकि जाने अनजाने पक्षधरता हो ही जाती है. चूंकि मेकर्स ने कंट्रोवर्सी से बचने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरती है पक्षधरता से बचने की, कहानी कमतर लग सकती है बहुतों को नजरिये जो अपने अपने हैं सबों के. फिल्म इस उद्देश्य के साथ चलती है कि गांधी को लेकर हुई और हो रही तमाम बहसों को उठाया जाय और यथासंभव गांधी के जवाब तलाश लिए जाएं. दूसरी तरफ गोडसे के तमाम प्रश्न है गांधी से. यदि एक आदर्श स्थिति ऐसी बनी होती कि गांधी अपने हर रवैये को जस्टिफाई कर देते, समस्या रहती ही नहीं.

सवाल गांधी को लेकर तब थे, आज भी है और कल भी रहेंगे. लेकिन उनकी गिनती महापुरुषों में ही निर्विवाद होती रहेगी. पूर्णता को लेकर तो लोग 'रामचरितमानस' या 'श्रीराम' को भी नहीं छोड़ते, हाड़मांस के पुतले बेचारे गांधी की क्या बिसात. फिल्म में गांधी के कुछ व्यक्तिगत पहलुओं को भी उठाया गया है मसलन वे क्यों स्त्री पुरुष के प्यार को विकार मानते थे? गांधी जी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये क्यों दिलवाये? गांधी जी पर हिन्दू-विरोधी होने के आरोप क्यों लगे थे? क्या गांधी बंटवारे के जिम्मेदार थे? कहने वाले तब भी बहुत थे कि गांधी ने अहिंसा और चरखे में उलझा दिया है और गांधी को इन तमाम सवालों के साथ कन्फ्रांट किया गया है.

फिल्म में गांधी और गोसे के बाद जिन्हें सबसे अधिक समय स्क्रीन पर मिला है, सुषमा के किरदार में वह है 'तनीषा संतोषी'. सुषमा और उसके प्रेमी नवीन के किरदार के मार्फ़त महिलाओं के नजरिए से महिलाओं के प्रति गांधी के अमानवीय पक्ष को ज्यादा ही उकेरा गया है जिसमें कस्तूरबा है, जिक्र सरला देवी चौधरानी और जयप्रकाश नारायण-प्रभा देवी का भी है, उनके बेटे का भी है. एक पल लगता भी है कि कहीं फिल्म विषय से भटक कर गांधी और गोडसे की बात करना भूल तो नहीं गई है.

संवादों की बात करें तो उन्हें असगर वजाहत ने ही लिखा है और खूब लिखा है. संवाद इतने सशक्त हैं कि उनसे ही मुद्दे झलक पड़ते हैं. गांधी और गोडसे के मध्य हुए संवाद की एक बानगी देखिए. अखंड भारत का नक्शा दिखाते हुए गोडसे गांधी से कहता है कि उसका सपना है अखंड भारत. गांधी मुस्कुराते हुए पूछते हैं, "तुमने इस नक्शे में तिब्बत, बर्मा और अफगानिस्तान को भी शामिल कर लिया है. तुम कभी वहां गए हो? क्या उनकी संस्कृति के बारे में जानते हो?" गोडसे चुप हो जाता है. गांधी का कांग्रेस से मोहभंग हो चुका था, आज भी जब तब कह ही दिया जाता है. फिल्म में भी यही बात बताई गई है कि गांधी की सोच थी कांग्रेस एक फ्रीडम फोरम था और इस नाम पर लोगों से वोट मांगना गलत है. उनकी इसी सोच से ओतप्रोत एक संवाद है फिल्म में जिसमें गांधी कहते हैं, "सरकारें सेवा नहीं करती, सिर्फ हुकूमत करती हैं." 

दरअसल पटकथा गांधी के आदर्शों और उन्होंने जो देश के लिए किया, उसे कुछ हद तक व्यूअर्स के सामने रखती है, लेकिन गोडसे के विचार और गोडसे ने गांधी को क्यों मारा, ये बताने में असफल हो जाती है. इसीलिए फिल्म "यथा नाम तथा गुण" चरितार्थ नहीं करती और यही एक सेटबैक है. इस वजह से अपेक्षित भीड़ नहीं जुट रही है. फिल्म की कास्टिंग और सभी कलाकारों की एक्टिंग शानदार है. नाथूराम गोडसे की भूमिका निभा रहे चिन्मय मांडलेकर ने गोडसे के पक्ष को लोगों के सामने काफी सुंदरता से पेश किया है. दीपक अंतानी फिर एक बार गांधी की भूमिका में सबको प्रभावित करते हैं. तनीषा (सुषमा के रोल में) की एक्टिंग भी संयमित रही है. पहली फिल्म के लिहाज से देखें तो उन्होंने अच्छा काम किया है. अनुज सैनी ही सुषमा के प्रेमी नवीन है, जमते हैं. संदीप भोजक का जिक्र ना करें तो गांधी के जेलर अमोद राइ के साथ नाइंसाफी होगी.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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