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Updated: 18 अगस्त, 2015 06:51 PM
नरेंद्र सैनी
नरेंद्र सैनी
  @narender.saini
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आंधी, अंगूर, नमकीन और किताब... मेरी पसंदीदा फिल्मों की लिस्ट में ये नाम काफी ऊपर हैं और इनको बनाने वाला एक ही नाम है गुलजार. उन्होंने अपने गीतों, डायरेक्शन और कहानी से लाखों दिलों के तारों को गहरे तक छुआ है. उन्हीं में से एक मैं भी रहा हूं. जब मैंने सात साल पहले फिल्म पत्रकारिता शुरू की तो कई बार मन में आता कि एक बार गुलजार से बात हो जाए तो मजा आ जाए. अब मैं ठहरा दिल्ली में तो ऐसे मौके कम ही आए जब वे यहां आए हों और मैं उनसे मिलने जा सका हूं. फिर स्टोरी भी लिमिटेड रहती हैं.

लेकिन उनको लेकर मेरे मन में छवि बनाने का काम कुछ पत्रकार दोस्तों और सीनियर्स ने किया. कई मित्र बताते हैं कि वे फोन पर बहुत ही कम बात करते हैं और कईयों ने कहा कि वे बहुत सख्त मिज़ाज हैं. अब उनकी एक अलग ही छवि मेरे सामने बन गई थीः प्रेम की शायरी कहने वाले गुलजार की सख्त मिज़ाज और मूडी इमेज. कई बार अपनी स्टोरी के लिए उनके कोट की खातिर ट्राइ भी किया, मेरे पास उनका लैंडलाइन नंबर था. लेकिन उनके सेक्रेटरी महोदय ने कभी उन तक पहुंचने नहीं दिया और उनका नाम लेकर कई बहाने बना डाले. उनकी यह छवि और पुख्ता हुई.

पहला संवाद

यह बात 2012 की है. मैं हिंदी के बदलते रूप को लेकर स्टोरी कर रहा था. भाषा के मिज़ाज के महारथी गुलजार का कोट लेना मुझे सार्थक लगा. बस मैंने फिर एक बार से उनका मुंबई का लैंडलाइन नंबर मिला दिया. इत्तेफाक कहूं या अपना गुडलक फोन पर भारी आवाज आई जिसे कई बार टेलीविजन और शायरी में सुन चुका था. मैंने उन्हें अपना इंट्रोडक्शन दिया और फोन की वजह बताई. मैंने पूछा कि फिल्मों की भाषा बदल रही है और इंग्लिश ज्यादा आ रही है. आप क्या सोचते हैं? उनका सटीक जवाब था, “सिनेमा समाज का आईना है.” उनकी एक लाइन मेरी पूरी स्टोरी को रेलिवेंट बनाने के लिए काफी थी. उनके इस कथन को मैंने और भी कई बार इस्तेमाल किया. उनके साथ बातचीत जादुई एहसास थी.

दूसरा संवाद

बात पिछले साल की है. उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला. आखिरी मिनटों में गुलजार का इंटरव्यू करने का मन हुआ. मन में शंका थी, नहीं हुआ तो? समय कम था, लैंडलाइन पर ज्यादा भरोसा नहीं कर सकता था. इसलिए मुंबई के फिल्मी पत्रकार दोस्त से उनका नंबर मांगा. उन्होंने यह कहते हुए मोबाइल दिया, “मैंने कई बार ट्राइ किया है, वे फोन उठाते नहीं हैं. तुम ट्राइ कर लो...” मैंने उन्हें मैसेज कर दिया. उसके बाद काम में लग गया. काम के चक्कर में मैसेज के बारे में भूल ही गया. नंबर भी सेव नहीं किया था.

मैसेज के आधे घंटे बाद फोन की घंटी बजी. मैं पूछने ही जा रहा था कि कौन? तभी उनकी आवाज पहचान में आ गई. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैंने कहा सर आप फोन कर रहे हैं. उनका बड़ा प्यारा-सा जवाब था, “आप ही ने तो मैसेज में कहा था कि बात करनी है...”. उसके बाद लगभग दस मिनट तक उनसे मेरी बातें हुईं और उनका हर जवाब बहुत सटीक रहा और हर वाक्य सधा हुआ. ऐसे जवाब जिनमें एडिटिंग की कोई गुंजाइश न हो.

और यूं बदल गई इमेज

इस तरह गुलजार से हुए मेरे दो संवाद, मेरे दोस्तों और सीनियर्स के माध्यम से बनी छवि को तोड़ने के लिए काफी थे. उनसे बातचीत का नतीजा यही था कि वे न तो सख्त मिज़ाज हैं और न ही मूडी. वे सिर्फ काम की बात करने में यकीन करते हैं और काम के ही जवाब देते हैं. उनके साथ बातचीत से पहले काफी मेहनत करने की जरूरत है. होमवर्क की भी. वे फिल्मी दुनिया के बाकी लोगों से थोड़े अलग हैं, वजह शायद वे समय और शब्दों के मायने बखूबी समझते हैं क्योंकि शायर अपने समय और शब्दों दोनों में ही जीता है. ऐसे में उनका ऐसा होना जरूरी भी है. उन्होंने खुद ही कहा है, “जिन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा, काफिला साथ चला और सफ़र तन्हा
अपने साये से चौक जाते हैं, उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा”.

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लेखक

नरेंद्र सैनी नरेंद्र सैनी @narender.saini

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सहायक संपादक हैं.

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