Kanwar Movie Review: आस्था के बहाने स्याह पक्ष उभार गई 'कावड़'
यह फिल्म कावड़ के बहाने से हमारे समाज की दूषित सोच को उजागर करती है. एक और बाबा बेहद गंदे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है. वे तमाम लड़के जो कावड़ ला रहे हैं वे भी बीच-बीच में एक दूसरे को गालियां देते नजर आते हैं. अपने को सभ्य समाज का सभ्य नागरिक समझने वाले ये लोग अंदर से कितने मैले हो चुके हैं यह फिल्म बताती है.
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हरिद्वार देश की पवित्र आस्था का केंद्र. मां गंगा और शिव का स्थान. जहां हर वर्ष देश-विदेश से हजारों सैलानी और भक्त आते हैं. ख़ास करके श्रावण मास में होने वाली कावड़ यात्रा इस आस्था का केंद्र है. लेकिन धीरे-धीरे यहाँ और देश की हवा बदल रही है इस यात्रा के माध्यम से. कई तरहों से पूरी की जाने वाली ये पवित्र आस्था अब दिखावे का ज्यादा कारण बनती जा रही है. साथ ही नशे की खेप तैयार करने भी माध्यम है कावड़ यात्रा. ऐसे में हंगामा ओटीटी और एयरटेल एक्सट्रीम पर कल रिलीज हुई कावड़ फिल्म आस्था के बहाने कौन से स्याह पक्ष को उभार रही है आज बात उसकी.
हरियाणा राज्य का एक लड़का जो एड्स की चपेट में आ गया है. इधर कावड़ शुरू होने वाली है. वह भी उसमें शामिल होना चाहता है लेकिन उसके ही गांव के कुछ लोग उसे पसंद नहीं कर रहे कावड़ में साथ ले जाने को. इतना ही नहीं वे उसे पहले से ही साफ़ नजर से नहीं देखते. उनके लिए यह लड़का कोई अभिशाप के समान है जो उनके गांव के साथ-साथ कावड़ लाकर माँ गंगा को भी दूषित करेगा. फिर शुरू होता है असल खेल और हरियाणा से एक गाँव से हरिद्वार और गंगोत्री तक के सीन इस फिल्म में दिखाए जाते हैं.
यह फिल्म कावड़ के बहाने से हमारे समाज की दूषित सोच को उजागर करती है. एक और बाबा बेहद गंदे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है. वे तमाम लड़के जो कावड़ ला रहे हैं वे भी बीच-बीच में एक दूसरे को गालियाँ देते नजर आते हैं. अपने को सभ्य समाज का सभ्य नागरिक समझने वाले ये लोग अंदर से कितने मैले हो चुके हैं यह फिल्म बताती है. साथ ही कई जगहों पर प्रतीकों के माध्यम से फिल्म समाज के तथाकथित उजले पक्ष को उतने ही स्याह ढंग से निचोड़ कर आपके सामने प्रस्तुत करती है कि आप इस फिल्म को देखते समय यह अहसास करते हैं कि यह कोई फिल्म नहीं बल्कि किसी डॉक्यूमेंट्री का अहसास कराती नजर आती है.
लेखक, निर्देशक ‘प्रफुल्ल त्यागी’ ने इसे लिखा और निर्देशित ही नहीं किया बल्कि इसकी सिनेमैटोग्राफी और एडिटिंग भी उन्होंने ही की है. अपनी पहली ही फिल्म से कला फिल्म का अहसास दिलाकर ‘प्रफुल्ल’ ने जिस कड़वे सच को दिखाने की कोशिश की है वह किसी के शायद हो सकता है हजम भी ना हो पाए. इस तरह की आस्थाओं से भरी कहानियों के माध्यम से जब आप समाज का उजला पक्ष ना दिखाकर स्याह पक्ष उभारने की कोशिशें करें तो आपको बहुत सी बातें दर्शकों पर छोड़ देनी होती है. इस बात के लिए ‘प्रफुल्ल’ तारीफ़ के हकदार हैं कि एक इंडिपेंडेंट सिनेकार के नाते उन्होंने अपना यह धर्म बखूबी निभाया है.
फिल्म कई जगहों पर बेवजह लम्बी भी खिंचती चली है. एक-दो बेजवह लम्बे करने के कारण यह फिल्म आपको बीच में नजरे इधर-उधर करने का भी अवसर देती है. बतौर इस तरह लेखक, निर्देशक हर क्षेत्र में हाथ आजमाने पर ऐसा सिनेकारों के साथ होता रहा है. इस फिल्म के लिए यह भी शुभ संकेत है कि यह बहुत ज्यादा हार्ड हिंटिंग नहीं हो पाई है तथा साथ ही कावड़ का महीना शुरू होने को है तो ऐसे में यह फिल्म देखने वालों को तथा हरिद्वार के तमाम सच को दिखाने का भी अच्छा मौका लाई है. फिल्म में एक सीन है जहां तीन कावड़ यात्रियों को फोन आता है उसमें वे क्या बात करते हैं और क्यों भोले बाबा तथा गंगा मैया को शुक्रिया अदा करते हैं यह देखना बनता है. इस तरह की कहानियों को लिखने, उन्हें अपने दम पर कहने के हौसले की पूरी दरकार होती है. भोंगा बने अमित मलिक, राकू बने नितिन राव, भगत जी बने नरेंद्र राव तथा सुंडू के रूप में ऋषभ पराशर, जुकरबर्ग की भूमिका में सचिन त्यागी, मंगतू के रूप में नवीन धनकड़, नाडा बने अरुण, कालू बने रितेश शर्मा तथा डीजे बवंडर बनकर अलग ही छाप छोड़ने वाले अशीष नेहरा इत्यादि के अभिनय से यह फिल्म फिल्म ना होकर डॉक्यूमेंट्री का सा अहसास दिलाती है. तमाम कलाकारों ने अपना-अपना अभिनय करते हुए यह जाहिर ही नहीं होने दिया कि वे सचमुच में अभिनय कर रहे हैं.
जिस तरह की रागनियां और बॉलीवुड गानों तथा भौंडेपन के बीच ‘सुन मेरी लाडो पार्वती’ गाना बजता है तो वह आस्तिकों के लिए झुमने का कारण बनता है. इसके अलावा कुछ ऐसी ही रागनियां भी सुनने को मिलती हैं. इस फिल्म को इसकी कहानी के लिए तो देखा जाना ही चाहिए साथ ही विशेष तौर पर इसे इसकी शूटिंग के तरीके और कलरिंग तथा सिनेमैटोग्राफी के लिए भी देखा जाना चाहिए. फिल्म की रियल लोकेशन्स और प्रकृति के सुंदर नज़ारे भी आपको फिल्म दिखाती है और ऐसा करते हुए यह आपको अपनी यात्राओं की याद दिला दे तो भी कोई शक नहीं. फिर भारी भीड़ के बीच इस तरह के निर्माता, निर्देशक और उनकी टीम कैसे संयोजित तरीके से अपना कर पाती है वह भी सफलतापूर्वक यह अवश्य प्रशंसनीय है. कला फ़िल्में पसंद करने वालों को यह फिल्म विशेष तौर पर देखनी चाहिए.
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