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Updated: 16 अगस्त, 2015 04:21 PM
मुकुल श्रीवास्तव
मुकुल श्रीवास्तव
  @sri.mukul
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बॉलीवुड को जातिनिरपेक्ष एवं धर्मनिरपेक्ष माना जाता है पर क्या वास्तव में ऐसा है? इस साल की बड़ी हिट फिल्म का नायक एक ब्राह्मण है, जो हमें यह बताता है : ब्राह्मण गोरे होते हैं और मांस नहीं खाते हैं, क्षत्रिय भी गोरे होते हैं और मांस खाते हैं. गुड्डू रंगीला एवं मसान जैसी अपवाद स्वरूप फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो फिल्मों में उच्च जाति का राज कायम है, वो चाहे कथानक का मामला हो या परदे के सामने का मौका.

सिनेमा के 100 वर्षों के इतिहास में अगर झांक के देखें तो आप को पता चलेगा कि रामायण और महाभारत लंबे समय तक फिल्मों के कथानक का श्रोत रहे. इनका मूल आधार वर्ण व्यवस्था को कायम रखना और इनका महिमा मंडन करना ही रहा है. अछूत कन्या, सुजाता, अंकुर, दीक्षा, समर जैसे अपवाद स्वरूप कुछ नामों को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा जाति प्रथा पर प्रहार करता कभी नजर नहीं आया. फिल्मों के नाम से ही पता पड़ता है कि सवर्ण मानसिकता की गुलामी से अभी हमारा हिंदी सिनेमा बाहर नहीं निकला है.

मि. सिंह vs मिसेज मित्तल (2010), मित्तल v/s मित्तल (2010), रॉकेट सिंह सेल्स मैन ऑफ द इयर (2009), सिंह इज किंग (2008), मंगल पांडे (2005), भाई ठाकुर (2000), अर्जुन पंडित (1976, 1999) क्षत्रिय (1993), राजपूत (1982), जस्टिस चौधरी (1983), पंडित और पठान (1977) ये कुछ उदाहरण हैं, जो बता रहे हैं कि हमारे फिल्मकारों के दिमाग में क्या चल रहा होता है. चलिए सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर इन सारे नामों को स्वीकार कर लिया जाए फिर भी क्या कारण है कि दलित, दुसाध, मंडल या पासवान जैसी दलित जातियों के नाम पर फिल्म नहीं बनती है. क्या दलित हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं, अगर हैं तो वो फिल्मों में क्यों नहीं दिखते और अगर दिखते भी हैं तो हमेशा की तरह पीड़ित या सताए हुए... इसका क्या अर्थ निकाला जाए!

शायद धरातल पर सामजिक परिवर्तन के नाम पर कुछ ठोस नहीं हुआ है और अगर हुआ है तो भी हम इसे सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हो स्वीकार नहीं पाए हैं. तथ्य यह भी है कि राजनीतिक रूप से दलित लामबंद होकर उभर रहे हैं, जो सरकारों की तकदीर बना और बिगाड़ सकते हैं लेकिन एक ऑडिएंस के रूप में उनकी इच्छाओं, अपेक्षाओं और जरूरतों को महत्व नहीं दिया जा रहा है. जब यह विशुद्ध उद्योग ही है तो इस सच्चाई को कला से क्यों जोड़ा जाता है? यदि ऐसा न होता तो क्या कारण है कि इतनी राजनीतिक चेतना वाले दलित आंदोलन को किसी भी फिल्म का कथ्य नहीं बनाया गया.

सिर्फ फिल्में न चलने का अगर बहाना होता तो कई फिल्मकार अपनी एक फिल्म के फ्लॉप हो जाने के बाद इस उद्योग को अलविदा कह गए होते पर ऐसा नहीं हुआ. कई बार प्रयोगधर्मी फिल्में बनाई गईं वो भी महज अपनी सोच को दुनिया के साथ बांटने के लिए. पर दलितों के मामले में ऐसा नहीं हुआ. न तो फिल्म उद्योग में उन्हें उचित मौके मिले और न ही उनके कथ्य को फिल्मों का विषय बनाया गया. सिनेमा में क्या दिखाया जा रहा है, यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि कैसे दिखाया जा रहा है, यह महत्वपूर्ण है. और इसी से दिखाने वाले की मानसिकता का पता चलता है.

हमारी फिल्में एक ट्रेंड पर बना करती हैं, जिसमें कभी कॉमेडी का दौर आता है तो कभी प्रेम कहानी का, कभी सामजिक समस्याओं को आधार बना फिल्मों का निर्माण किया जाता है. लगभग सौ साल के सिनेमा के इतिहास में ये सिलसिला अनवरत जारी है. जब सती प्रथा और विधवा विवाह जैसे कुरीतियां हमारे समाज में थीं, उन पर फिल्में बनीं और व्यवसायिक रूप से सफल भी रहीं. छुआ-छूत को आधार बना कर फिल्में खूब बनी पर उनके केंद्र में कभी दलित विमर्श नहीं रहा.

कहते हैं सिनेमा बदल रहा है. बदल तो रहा है. नई तकनीक तेजी से आ रही है. फिल्मों के डिजीटल प्रिंट धड़ाधड़ रिलीज हो रहे हैं. रोज नए मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं. सिनेमा तो बदल रहा है. एक चीज जो नहीं बदल रही है, वह है सिनेमा का जातिगत स्वरूप. दलितों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई जा सकती है पर वो हमारे फिल्मकारों की सर्जनात्मक प्राथमिकता में नहीं है. तभी तो आप देखिये जहां हमारा हीरो अपने आपको कभी राहुल बजाज बताता है तो कभी सिंहानिया, कभी गुप्ता जी तो कभी लाला जी. विजय और राज महरोत्रा को तो बिल्कुल भूला नहीं जा सकता. उपरी तौर पर वो जाति के प्रति बहुत आग्रही नहीं दिखता पर अंदर से वो पूरा सवर्ण हिंदू मर्द ही होता है.

फिल्म के कथानक में भी दलित पात्रों को विकसित होने का पूरा मौका नहीं दिया जाता है. उन्हें जिंदगी में जो कुछ भी हासिल हो रहा है, उसके लिए उनकी उद्ममशीलता नहीं बल्कि लोगों की दया और भगवान के आशीर्वाद का महत्व ज्यादा दिखाया जाता है. इस तरह हमारा फिल्म मीडिया एक सवर्ण एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है. अर्थात उनमें आम तौर पर स्वाभिमान की भावना पैदा न होने दो और अगर उनकी जिंदगी में कुछ सकारात्मक हो रहा है तो उसके लिए भगवान को उत्तरदायी ठहराओ.

सोचने की बात है कि हिंदी फिल्मों के कई बड़े नाम अंबेडकर के आन्दोलन के समकालीन रहे हैं. उनमे से कई हैं, जिन्होंने सामाजिक सरोकार की फिल्में भी बनाई. पर वे अंबेडकर के आन्दोलन, जिसे विश्व में एक सामाजिक क्रांति का दर्जा प्राप्त है, को भांप नहीं पाए. बलराज साहनी, शाहिर लुधियानवी जैसे उस समय के बड़े नाम वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे, जो इन वर्गों के संघर्ष का ढोल पीटते रहे् हैं. यहां तक की सामाजिक असमानताओं को अपनी फिल्मों में बखूबी दिखाने वाले राजकपूर भी दलित आन्दोलन पर ध्यान न दे सके. और तो और, दलित केन्द्रित एक फिल्म तक नहीं बना सके.

फिल्म में जो कुछ दिखाया जा रहा है, जरूरी नहीं कि वो सत्य हो. पर वो सत्य के करीब भी हो सकता है. इसलिए फिल्म को देखते वक्त महज फिल्म न देखें, बल्कि निहितार्थ को भी समझें, तब शायद स्थिति सुधरे.

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लेखक

मुकुल श्रीवास्तव मुकुल श्रीवास्तव @sri.mukul

लेखक लखनऊ यूनिवर्सिटी के जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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