'मर्सल' का विरोध कर भाजपा खुद आग को हवा दे रही है
जिस डायलॉग के लिए तमिलनाडु की भाजपा विंग ने इतना बवाल मचाया है उसे दर्शकों ने तब तो ध्यान से नहीं देखा होगा लेकिन अब सब जरुर उस पर ही नजरें टिकाए होंगे.
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राजनेताओं के लिए आज के समय में फिल्में सबसे आसान बलि का बकरा बन गईं हैं. राजनीतिक पार्टियां जमकर फिल्मों में तोड़-मरोड़ करती हैं और इस सच्चाई से कोई भी राजनीतिक पार्टी इंकार भी नहीं कर सकती. हाल के समय में तो चाहे फिल्म हो या डॉक्यूमेंट्री, हर जगह राजनीतिक पार्टियों का दखल जरुर रहा है.
उड़ता पंजाब फिल्म के साथ ही हमने देखा था कि कैसे इस फिल्म को राजनेताओं और सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़नी पड़ी. वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि इस फिल्म ने पंजाब की कड़वी हकीकत को दिखाया था. बच्चे-बच्चे तक को पता है कि पंजाब में ड्रग्स एक नासूर बन चुका है. पड़ोसी देश पाकिस्तान के कारण राज्य में ये और बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है. लेकिन फिर भी उड़ता पंजाब को थियेटर में रिलीज होने के लिए नाकों चने चबाने पड़े. अंतत: सीबीएफसी के 89 कट के बदले सिर्फ एक कट के साथ ये फिल्म रिलीज हो गई.
किसे नहीं पता कि पंजाब में युवाओं का ड्रग्स से क्या हाल है?
1993 के मुंबई बम धमाकों पर बनी अनुराग कश्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडे को भी सेंसर बोर्ड ने तीन साल तक लटका कर रखा. आखिरकार 2007 में फिल्म रिलीज हुई. आनंद पटवर्धन की कई शानदार डॉक्यूमेंट्री जैसे In the Name of God, Father, Son and Holy War, War and Peace को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा. क्योंकि इनमें उन्होंने देश में व्याप्त कट्टरवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसे गंभीर मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठाया था.
धर्म के ठेकेदारों ने इस फिल्म की शूटिंग रुकवा दी थी
वाराणसी की विधवाओं पर दीपा मेहता की फिल्म वाटर की शूटिंग बनारस में नहीं करने दी गई. यही नहीं दीपा और फिल्म के कलाकारों सहित पूरे क्रू को कट्टरपंथी समूहों ने बनारस से खदेड़ दिया. कारण क्या था? उन संस्कृति के रक्षकों को लग रहा था कि फिल्म के जरिए भारत की छवि को खराब कर रहे हैं. पंजाब में ड्रग से युवाओं की हालत हर किसी को पता है. वाराणसी और उसके बाहर हर किसी ने विधवाओं की दयनीय स्थिति के बारे में पढ़ा है. ये मुद्दे कोई सीक्रेट नहीं. किसी से भी छुपे नहीं हैं. लेकिन राजनेता और बाकी लोग सोचते हैं कि इन बुराईयों और परेशानियों से आम आदमी बिल्कुल अनजान होता है.
एक बार तो खुद नरगिस दत्त ने सांसद रहते हुए अफसोस व्यक्त किया था कि सत्यजीत रे जैसे लेखक दुनिया के सामने भारत की गरीबी का प्रचार कर रहे हैं. अगर मैं सही हूं तो उस वक्त वो सत्यजीत रे की क्लासिक फिल्म पाथेर पांचाली के बारे में बोल रही थी. पाथेर पांचाली ने 1956 में कान फिल्म समारोह में अवार्ड जीतकर भारतीय सिनेमा को विश्व स्तर पर स्थापित कर दिया था. आज के समय में पाथेर पांचाली को क्लासिक माना जाता है. अब कोई इसके खिलाफ नहीं बोलता.
तमिलनाडु में अनगिनत फिल्मों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. यहां श्रीलंका का उल्लेख भर फिल्मों या डॉक्यूमेंट्री को अटकाने के लिए काफी है. प्रसन्ना विथांग की फिल्म विद यू विदआउट की फिल्म को चेन्नई में प्रदशित होने से रोक दिया गया था. क्योंकि इस फिल्म में एक श्रीलंकाई युवक और तमिल युवती की प्रेम कहानी थी. जिससे तमिलों को लगा कि फिल्म में सिंहला लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाई गई है. (सिंहला- श्रीलंका का सबसे बड़ा समुदाय है) जबकि सच्चाई ये है कि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था. लेकिन इसकी परवाह कौन करता है !
एक या दो डायलॉग से दिक्कत!
इस भंवर में फंसने वाली ताजातरीन फिल्म है अतलि कुमार की मर्सल. विजय कुमार स्टारर ये फिल्म 18 अक्टूबर को सिनेमा हॉल में रिलीज हुई. फिल्म पूरी तरह से मसालेदार कहानी पर आधारित है और यकीन मानिए विजय कुमार के फैन भी हॉल से निकलने के बाद इस फिल्म को याद नहीं रखने वाले. लेकिन भाजपा के तमिलनाडु विंग को इस फिल्म के एक या दो डायलॉग से धक्का लग गया है. वो आहत हो गए हैं. डायलॉग में 1 जुलाई से लागू हुए जीएसटी और डीजिटल इंडिया के बारे में बात की गई है. वो इनको डिलीट कराने की मांग कर रहे हैं.
मार्शल फिल्म के पक्ष में बोलते हुए दक्षिण भारतीय सुपरस्टार कमल हसन ने ट्वीट किया कि- मर्सल एक सर्टिफाइड फिल्म है. इसको दोबार सेंसर करने की जरुरत नहीं है. आलोचनाओं का जवाब तर्क से साथ दीजिए. आलोचकों का मुंह मत बंद कीजिए. इंडिया जब बोलेगा तभी चमकेगा.
Mersal was certified. Dont re-censor it . Counter criticism with logical response. Dont silence critics. India will shine when it speaks.
— Kamal Haasan (@ikamalhaasan) October 20, 2017
सच यही है भी.
असलियत तो ये है कि फिल्म में विजय के स्टंट देखने में दर्शकों का ध्यान जीएसटी या डिजिटल एरा वाले डायलॉग पर गया भी नहीं होगा. लेकिन भाजपा के इस तरह छाती पीटने पर अब हर किसी को इस बात की उत्सुकता हो रही है कि आखिर वो डायलॉग है क्या. मजे की बात तो ये है कि फिल्म में डॉक्टरों के भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया गया है जिसे लेकर अब डॉक्टरों ने भी विरोध प्रदर्शन करना शुरु कर दिया है.
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में लोगों के कई तरह के विचार और नजरिए देखने के लिए मिलेंगे. सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसमें लोगों के रोजमर्रा की दिक्कतों के बारे में बात की ही जाएगी. इसमें कुछ गलत भी नहीं है. इस प्लेटफॉर्म को सरकार को अपनी बातें पहुंचाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए. लोगों की चिंताओं के समाधान के लिए इस्तेमाल करना चाहिए. न की गला दबाना चाहिए.
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