चाहे 'न्यूटन' कितनी ही अच्छी फ़िल्म हो, उसे 90वें अकॅडमी अवॉर्ड्स में ठेंगा ही मिलेगा !
भारत में मिलने वाले फ़िल्मी पुरस्कारों में राजनीति होती है, तो वहीं अकादमी पुरस्कारों में अलग तरह की राजनीति शामिल है. चाहे 'न्यूटन' कितनी ही अच्छी फ़िल्म हो, उसे 90वें अकॅडमी अवॉर्ड्स में ठेंगा ही मिलेगा.
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भारत ने 90वें अकॅडमी अवॉर्ड्स (ऑस्कर 2018) में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म की श्रेणी में 'न्यूटन' के रूप में अपनी दावेदारी भेज दी है. सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की श्रेणी में अब तक भारत की चार फ़िल्मे मदर इंडिया (1958), सलाम बॉम्बे (1989), लगान (2002) और वॉटर (2007) आखरी पांच तक पहुंच पाई थी, लेकिन ऑस्कर की ट्रोफी किसी को भी नसीब नहीं हो पाई.
न्यूटन फॉर ऑस्कर1983 में भानु अथैया को गांधी फ़िल्म के कॉस्टयूम डिजाइन के लिए, तो वहीं 1992 में सत्यजित राय को सम्मानार्थ लाइफटाइम अचीवमेंट की ऑस्कर की ट्रॉफी मिली है. 2009 में भी स्लमडॉग मिलियनेयर फ़िल्म को तीन अकॅडमी अवॉर्ड्स कासम्मान मिला.
ए आर रहमान: सर्वश्रेष्ठ ओरिजिनल गीत, सर्वश्रेष्ठ ओरिजिनल स्कोर
गुलज़ार: सर्वश्रेष्ठ ओरिजिनल गीत
रेसुल पोकुट्टी: सर्वश्रेष्ठ ध्वनि मिश्रण
स्लमडॉग मिलियनेयर की कहानी मुंबई के धारावी झुग्गी-झोपड़ी के एक अनपढ़ युवक की कहानी है. फिल्म की साज-सज्जा और शूटिंग भारत में हुई. लेकिन फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक और टीम के अधिकतर सदस्य ब्रिटिशर्स थे. इसलिए स्लमडॉग मिलियनेयर को भारतीय फ़िल्म नहीं कहा जा सकता है.
ऐसा क्यों है कि सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की श्रेणी में भारत को आज भी अकादमी पुरस्कार का इंतज़ार है?
फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया तय करता है कि कौन सी फिल्म ऑस्कर में भारत का प्रतिनिधित्व करेगी. इसी प्रकार अलग-अलग देश, अंग्रेजी उपशीर्षक के साथ अपनी आधिकारिक प्रविष्टि अकॅडमी अवॉर्ड्स की विदेशी भाषा फिल्म पुरस्कार समिति को भेजते है. इस समिति के सदस्य गुप्त मतपत्र द्वारा पांच अंतिम नामांकन का चयन करते हैं। यही वह समय है जब तरजीह और पूर्वाग्रह का विदेशी भाषा फिल्म पुरस्कार समिति में बोलबाला रहता है. पुरस्कार समिति के सदस्यों को अपना विकल्प चुनने के लिए प्रत्येक फ़िल्म देखना आवश्यक नहीं है. यदि फ़िल्म विज्ञापन के माध्यम से पर्याप्त चर्चा प्राप्त कर ले और विश्व के विभिन्न फिल्म समारोहों में वाहवाही लूट ले, तो यह बातें पुरस्कार समिति के सदस्यों को संतुष्ट करने के लिए शायद पर्याप्त है.
अंतिम पांच की नामांकन प्रक्रिया बड़ी ही अवज्ञानिक है. इसे आप पक्षपात पूर्ण भी मान सकते हैं. जहां विश्व प्रसिद्ध निर्देशकोंऔर महंगे निर्माता समूहों को ज़रूरत से अधिक महत्व मिलता है. अंतिम पांच में पहुंचने के बाद फिल्मों के चयन का अधिकार सिर्फ़ अकादमी के वर्तमान और आजीवन सदस्यों के पास होता है. यदि हम अमेरिकी फिल्मों के इतिहास पर नज़र डाले, तो पता चलेगा की विदेशी भाषा की श्रेणी में पिछले 50 सालों में फ्रेंच व इटॅलियन फ़िल्मों का वर्चस्व रहा है. फलस्वरूप आजीवन सदस्यों में इन देशों के फिल्मकारों की बहुतायत है. यहां भी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का खेल चलता है, जिसके कारण फ्रेंच व इटॅलियन फ़िल्मों को फायदा मिलता है.
लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते है कि विदेश की फ़िल्मों को सिर्फ़ एक श्रेणी में जगह दी जाती है. यह तर्क जिरह के लिएतो ठीक है, लेकिन इतना ठोस नहीं है. यदि विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी की चुनाव प्रक्रिया में सुधार हो जाएगा तो अपने आप सभी देशों की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को ऑस्कर मिल सकेगें. जब तक ऐसा नहीं होता तब तक भारत ऑस्कर में अपना नामांकन भेज कर केवल समय बर्बाद कर रहा है.
भारत में मिलने वाले फ़िल्मी पुरस्कारों में राजनीति होती है, तो वहीं अकादमी पुरस्कारों में अलग तरह की राजनीति शामिल है. चाहे 'न्यूटन' कितनी ही अच्छी फ़िल्म हो, उसे 90वें अकॅडमी अवॉर्ड्स में ठेंगा ही मिलेगा.
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