'न्यूटन' है एक ज़रूरी फिल्म !
'न्यूटन' में वो लोग भी हैं जैसे हमारे देश में ज्यदातर हैं और वो भी हैं जो इस देश को बेहतर बनाने के लिये होने चाहिये, इस लिये न्यूटन जरूर देखिये और प्रगतिशील बहस करिये कि क्या होना चाहिये और क्या नहीं.
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'न्यूटन' का नाम ही अनोखा सा है, खासतौर से एक बॉलीवुड फिल्म के लिये. 'न्यूटन' का पोस्टर देखकर शायद कुछ लोगों को लगेगा ये एक भारी भरकम रोने-धोनेवाली फिल्म होगी, तो हम आपको बता दें कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है, अलबत्ता ये जरूर है की एक भारी भरकम विषय को बेहद हलके फुलके अंदाज में पेश किया गया है. फिल्म की स्टारकास्ट बड़ी नहीं है लेकिन एक्टर्स के नाम इस बात का आश्वासन ज़रूरी देंगे कि कहानी और अभिनय दोनों अव्वल दर्जे के होंगे.
न्यूटन पोस्टर'न्यूटन' की कहानी एक ऐसे नौजवान की है, जिसका नाम उसके माता पिता ने 'नूतन कुमार' रखा था, लेकिन हाईस्कूल में उसने खुद अपना नाम बदल लिया और 'नूतन' को 'न्यूटन' में तब्दील कर दिया. दरअसल बात सिर्फ नाम की नहीं थी, 'न्यूटन' हर जगह तब्दीली चाहता था. अपने आप में, घर में, देश में, जब ना हो तो उसकी बेचैनी बढ़ जाती थी. सरकारी दफ़्तर में क्लर्क नूतन बाकी के कर्मचारियों से अलग था, वो दफ़्तर टाइम पर पहुंचता, इमानदारी से अपना काम करता. ऐसे ही माहौल में इलेक्शन होनेवाले हैं और माओवादी इलाक़े में 'न्यूटन' की पोसटिंग होती है बतौर प्रिसाइडिंग ऑफ़िसर. जिसका काम है इमानदारी से इलेक्शन में वोट डलवाना. चार लोंगो की टीम के साथ न्यूटन एक आदिवासी गांव में इमानदारी से वोटिंग करवा पाता है या नहीं और इस दौरान किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पडता है, ये है न्यूटन की कहानी.
फिल्म की कहानी बेहद दिलचस्प है, लेखक अमित मसुरकर और मयंक तिवारी ने मुशकिल विषय को बहुत सरल तरीके से कहा है और यही फिल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत है. फिल्म का स्क्रीनप्ले भी बहुत सलीक़े से बुना गया है. न्यूटन के माता पिता से उसकी अनबन से लेकर आर्मी वालों से उसकी बहस, कहानी को आगे बढ़ाती है. नाबालिग लड़की से शादी ना करने से लेकर अपने काम में हर तरह से इमानदार न्यूटन आखिर में खुशी के साथ हैरत भी जताता है कि उसे सरकार से पुरस्कार इस लिये मिला है क्योंकि हर काम वो वक्त पर करता है. जब कि ये पुरुसकार की बात नहीं है बल्कि ऐसा ही होना चाहिये. न्यूटन के लेखक निर्देशक अमित मसुरकर ने कुछ नया कहने की कोशिश की और उनकी फिल्म की स्क्रिप्ट ही सबसे बड़ी स्टार है. न्यूटन में ऐसी कोई कमी दिखती नहीं जो अखरे, क्लाइमेक्स जरूर सहूलियत भरा है लेकिन पूरी फिल्म आपका ध्यान भटकने नहीं देती.
अभिनय के डिपार्टमेंट में सबसे पहले बात राजकुमार यादव की. मुख्य किरदार में राजकुमार ने इस किरदार को निभाया नहीं बल्कि जिया है और कहते हैं ना कि पेड़ का तना कितना भी मोटा क्यों ना हो वो खड़ा तभी होता है जब उसकी जड़े मज़बूत हों. राजकुमार के साथ इस फिल्म की जड़े हैं, रघुवीर यादव और पंकज त्रिपाठी. आर्मी ऑफ़िसर के किरदार को अलग ही रंग दिया है पंकज त्रिपाठी ने. रघुवीर यादव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वो शानदार अभिनेता हैं. अंजली पाटिल और सभी कलाकरों ने इमानदारी से साथ अपना किरदार निभाया है और उसके साथ इंसाफ़ किया है. स्वपनिल की सिनेमेटोग्राफ़ी और श्वेता वेंकट की एडिटिंग काबिलतारीफ है. 'न्यूटन' में वो लोग भी हैं जैसे हमारे देश में ज्यदातर हैं और वो भी हैं जो इस देश को बेहतर बनाने के लिये होने चाहिये, इस लिये न्यूटन जरूर देखिये और प्रगतिशील बहस करिये कि क्या होना चाहिये और क्या नहीं.
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