ज़िन्दगी की लम्बी लिस्ट लिए बैठे रहे सुशांत, ज़िन्दगी थी कि एक रस्सी से दम घोटकर चलती बनी!
मुंबई (Mumbai) स्थित अपने फ्लैट में एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput ) ने आत्महत्या (Suicide) कर ली है. ऐसे में हमारे लिए सुशांत के उन सपनों को भी जान लेना जरूरी है जो उन्होंने अपनी आंखों में संजोकर रखे थे और जिन्हें एक दिन वो पूरा करना चाहते थे.
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आगाह अपनी मौत से कोई ‘बशर’नहीं,
सामान सौ बरस का पल की ख़बर नहीं
बशर नवाज़ का ये मक़ता (शे’र) हर दौर में ज़िन्दगी पर सटीक बैठता है. श्यामक डावर की डांस क्लासेज से एकता कपूर के प्राइम टाइम सीरियल तक पहुंचना ही यूं तो बहुत बड़ा अचीवमेंट था, छोटे पर्दे के दर्शकों में अच्छा ख़ासा क्रेज़ था मानव उर्फ़ सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) के लिए पर शायद इतने में ही रुकना सुशांत सिंह राजपूत की किस्मत को मंज़ूर न था. चेतन भगत की नॉवेल पर बनी काई-पो-चे (Kai Po Che) से सुशांत ने बड़े पर्दे पर न सिर्फ पहली पारी शुरु की बल्कि ख़ूब तारीफ़ भी बटोरी. स्टार स्क्रीन अवार्ड भी ले गए. फिर पीके (PK) में छोटे से रोल से उनकी तारीफ भी हुई, डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी को भी वो पर्दे पर लेकर आए लेकिन पिछले दो दशक के सबसे बड़े क्रिकेट स्टार महेंद्र सिंह धोनी का रोल प्ले करते ही सुशांत सिंह राजपूत एक अलग लेवल पर पहुंच गए. इस फिल्म ने न सिर्फ तारीफें बटोरीं, बल्कि बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का भी अम्बार खड़ा कर दिया. इसके बाद उनकी राब्ता कब आई और कब गयी किसी को पता भी न चला लेकिन केदारनाथ में फिर उन्होंने एक अलग लेवल रोमांस लोगों तक पहुंचा दिया. ये फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर छाई रही.
किसी आम आदमी की तरह सुशांत के भी कुछ सपने थे जो अब कभी शायद ही पूरे हो पाएं
एक वेबसाइट के लिए उन्होंने उस दौरान अपने सपनों की लिस्ट सांझा की थी जिसमें कोई 55 ऐसी मुरादें बताई जो वो मरने से पहले पूरी करना चाहते थे. उनमें से दस बातें मुझे बहुत रोचक लगीं जैसे –
किन्हीं सौ बच्चों को मैं NASA की वर्कशॉप में भेजना चाहता हूं.
रोनाल्डो के साथ फुटबॉल खेलना चाहता हूं.
किन्हीं सौ मांओं की जो भी इच्छा हो मैं पूरी करना चाहता हूं.
भारत में विश्व की सबसे बड़ी लाइब्रेरी खोलना चाहता हूं.
चांद पर ज़मीन ख़रीदना चाहता हूं.
वेदों को पढ़ना चाहता हूं और वेदिक टेक्नोलॉजी पर R&D (रिसर्च एंड डेवलपमेंट) करना चाहता हूं.
पानी के अन्दर कोई नई जगह ढूंढना चाहता हूं.
भारत की जर्सी पहनना चाहता हूं (क्रिकेट या किसी अन्य खेल भारत की तरफ से खेलना चाहते थे)
ग्रेट वाल ऑफ चाइना पर मॉर्निंग वाक करना चाहता हूं.
और अंत में वो बात जो शायद ही कोई जीतेजी पूरी कर सका हो कभी, पर इसे पढ़कर मैं भावुक हुए बिना न रह सका...
कब्रिस्तान/शमशान में एक रात गुज़ारना चाहता हूं.
सुशांत के आत्महत्या करने पर हैरानी सबको है. मैं भी हैरान हूं. उनकी आख़िरी फिल्म ‘छिछोरे’ में उनका पात्र अपने बेटे के आत्महत्या करने की कोशिश पर उसे फिर से उर्जावान करता मिलता है. उसे मोटिवेट करता है कि किसी भी हार की वजह से ज़िन्दगी ख़त्म नहीं होती. लूज़र होना इतना भी बुरा नहीं होता. पर सुशांत का ख़ुद ऐसा कदम उठाना हमें ये बताने के लिए काफ़ी है कि रील लाइफ और रियल लाइफ के बीच में कितनी बड़ी और गहरी खाई बनी होती है.
कुल 34 साल की उम्र सुशांत हमारे बीच नहीं रहे. दुःख किसको नहीं होता, इस कोरोना काल में तो लोगों को अवसाद ने ऐसा घेरा हुआ है कि हर दूसरा शख्स या तो किसी को मरते हुए देख रहा है या ख़ुद मरने की इच्छा रखने लगा है. पर हमें सुशांत को ग़लत साबित करते हुए ये भी सीखना होगा कि दुःख, अवसाद या परेशानियों के साथ जीना, उन्हें हल करते रहना और नई परेशानियों से डटकर लड़ते रहना ही जीवन है.
जीवन में हार मानने का कोई विकल्प ही नहीं है. ज़िन्दगी बहुत कीमती है और ये कीमत हमारी ख़ुद की जान से ज़्यादा उन लोगों की है जो हमसे प्यार करते हैं, जिन्हें हम प्यार करते हैं. हमें उनके लिए जीना है, हिम्मत रखनी है. जिन्दगी का दूसरा नाम ही दुःख है. ग़ालिब का वो शे’र मैं हमेशा गुनगुनाता हूं कि
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी, ग़म से निजात पाए क्यों.
बाकी एक कलाकार के नाते सुशांत की कला हमारे साथ ही रहेगी. उनकी इस साल आने वाली फिल्म ‘दिल-बेचारा’ अभी पोस्ट-प्रोडक्शन में है जो उम्मीद है इस साल के अंत में (अगर सब ठीक रहा तो) सिनेमाघरों में रिलीज़ हो सकेगी. कुल 11 फिल्मों और चार टीवी शो करने वाले सुशांत सिंह राजपूत सदा अमर रहेंगे.
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