The Kashmir Files को समझने में आप भी तो गलती नहीं कर रहे हैं?
1990 में कश्मीर में जो हुआ उसकी माफ़ी हमें नहीं मिल सकती. कुछ मीडिया का कमज़ोर होना, सोशल मिडिया जैसे ताकतवर माध्यम का न होना और कुछ हमारी बुज़दिली. हमारी पिछली पीढ़ी, हमारे मौका परस्त नेता और हमारे बुज़दिल बुज़ुर्ग! 19 जनवरी की रात जब कश्मीरी पंडितों को अपना घर अपनी जड़े छोड़ कर रातों रात भागना पड़ा था. कोई महकमा उनकी मदद को नहीं आया.
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The Kashmir Files... बहुतों ने फिल्म देखी होगी और कुछ ने केवल सुन कर ही निष्कर्ष निकाल लिया होगा. बहुतों की तादाद ऐसी होगी जो नफरत को मिटाने और बीती बात बिसार अब आगे की सुधि ले का गान भी करेंगे. यकीनन नफरत को पालना और भूतकाल में रहना किसी भी समाज के लिए अच्छा नहीं, किन्तु वर्तमान पीढ़ी को कम से कम पिछले सौ सालों के इतिहास की सही जानकारी तो यकीनन होनी ही चाहिए. सौ साल यानि मात्र दो पीढ़ी पहले. हम आप और सभी अपने पिता और दादा जी का नाम जानते हैं. ग्राम जानते हैं. अपने घर का इतिहास जानते हैं. इसी तर्ज़ पर आज की पीढ़ी को देश का इतिहास ज़रूर पता होना चाहिए. हर वो कहानी जिसे इतिहास की किताब से मात्र कुछ पन्ने का ज़िक्र बना कर हटा दिया गया. ऐसी 'हर' कहानी का बाहर आना ज़रूरी है.
विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स में वो दर्द है जो आपको अंदर से हिलाकर रख देगा
इसे फिल्म रिव्यू न समझें
फिल्म कश्मीर फाइल्स अपनी रिलीज़ से पहले ही चर्चा में आ गई थी, जब कपिल शर्मा शो में इसका प्रोमोशन करने से मना कर दिया गया. इसका कारण शायद राजनीतिक हो लेकिन वो शो फिल्म की किस्मत और वक़्त की सच्चाई नहीं बदल सकता. फिल्म दिल दिमाग पर भारी है. (खासतौर पर तब जब आप अपने युवा अवस्था का कुछ हिस्सा उसी प्रदेश में बिता चुके हो जिसे लोग टेररिस्ट स्टेट या मात्र धारा 70 के नाम से जानते हों). फिल्म की कहानी 19 जनवरी 1990 की उस रात की है जब कश्मीरी पंडितों को अपना घर, अपनी जड़ें छोड़ कर रातों रात भागना पड़ा था.
कोई पुलिस, कोई महकमा उनकी मदद को नहीं आया. दहशत में, खाली हाथ, हाड़ कंपाने वाली ठंड में घर से बेघर होने को मजबूर अपने ही देश में! 19 जनवरी से ले कर आज तक मुद्दे को बिना जाने समझे पीढ़ी दर पीढ़ी वही राग अलापती है कि, 'इस्लाम खतरे में है', 'कश्मीर को बचाना है'. फिल्म में किरदार और कलाकार अपनी सत्यता के साथ हैं. जिन नामो को सुनेंगे उन्हें सर्च करिये. बिट्टा कराटे, जस्टिस गंजु और ऐसे कई नाम और हादसे हादसे.
आग पर सुलगता कश्मीर
आज के यूक्रेन की लड़ाई को तीसरा बन कर देखेंगे तब भी झगड़े के मूल में रूस और अमरीका को पाएंगे. रूस और अमरीका ऐसी दो बड़ी ताकते हैं जिनके आपसी झगड़े से कई देश प्रभावित हुए है. आप शायद आश्चर्य में आये अगर ये कहूं कि कश्मीर भी उसी प्रभुता की जंग का नतीजा है. 1980 में जब रूस ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की तो बिग बॉस अमरीका ने एक जिन्न बनाने की सोची. (ये जिन्न आगे चल कर अल - कायदा बन कर अमरीका में ही तांडव नाचा ये अलग बात है. )
अफगानिस्तान के ही लोगों को मुजाहिदीन बनाने का सिलसिला शुरू हुआ और इनकी ट्रेनिंग पाकिस्तान के तत्कालीन शासक ज़िया उल हक़ की सरपरस्ती में पाक अधिकृत कश्मीर में होने लगी. जी हाँ तभी से हैं ये आतंक का गढ़ बना!
इस ट्रेनिंग के दौरान उनकी जान पहचान कश्मीर के दूसरे हिस्सों में रह रहे लोगो से भी हुई और चुन चुन कर क्रूर वहशी, आतंक को बढ़ाने वालों की संख्या में इजाफा होने लगा. इन आतंकियों की गोली से हिन्दू मुसलमान सिख बौद्ध सभी मर रहे थे. उनकी आतंकी हरकतों पर जब कार्रवाई हुई तो इसे 'मुसलमान' बनाम 'काफिर' की जंग बना दिया गया.
राजनीतिक बिसात की चालें
भारतीय राजनीति में परिवारवाद, अवसरवाद ने किस किस स्तर पर चोट पहुंचाई है इसकी एक बानगी ये भी है.1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीनी और अपने आपको सही और धर्म परस्त साबित करने के लिए जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरियट के पुराने मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवाने का निर्णय लिया! इसका पुरज़ोर विरोध हुआ तो इस विरोध को इस्लाम के खतरे के रूप में पेश किया गया.
ध्यान दें- मंदिर टूटा हिन्दू धर्म का और खतरे में इस्लाम आ गया! ये निष्कर्ष कैसे निकला इस पर ज़रूर सोचें. 400 साल से बाहर से आये मुसलमान हिंदुस्तान में रहे और अपनी जनसंख्या को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाया. मात्र 400 साल राज किया और पूरे इतिहास में छाए किन्तु एक मंदिर के टूटने का विरोध होने पर 'इस्लाम खतरे में आया'
लॉजिक से सोचियेगा - पार्टी विशेष की आपत्ति से नहीं
खैर 1986 से बना ये माहौल और उधर मुजाहिदीन से बढ़ती दोस्ती, कश्मीर और कश्मीरियत से कश्मीरी पंडितो को बाहर करने का बीज रूप था. हालांकि1987 के चुनाव में कट्टरपंथी हारे किन्तु इस हार को भी मुजाहिदीन ने 'खतरे में इस्लाम' का जामा पहना दिया गया. इसी के बाद 'जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट' यानि JKLF बना जिसका एक मात्र लक्ष्य कश्मीर को भारत से अलग करना था.
अपनी दहशत को स्थापित करने के लिए ख़ास और आम जनता को मारना इनका हथकंडा था. भाजपा नेता टिकलाल टपलू, रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू के साथ साथ कैम्पस के बाहर खड़े निहथ्थे एयर फ़ोर्स के जवानो की हत्या की. 4 जनवरी 1990 को एक लोकल अखबार में कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ कर जाने को कहा गया.इसके साथ ही जगह जगह पोस्टर चस्पा कर दिए गए.
कश्मीरी पंडित अपनी औरतों को छोड़ कर कश्मीर से बाहर जाओ - इसे सुन कर अगर डर शर्मिंदगी और गुस्सा न आये तो अपने ज़िंदा होने का सुबूत खुद को दें. 19 जनवरी को सुबह से ही लाऊड स्पीकरों से, 'धर्म बदलो, भागो या मरो' का नारा लगा. पूरी रात लूट,बलात्कार और आगज़नी हुई. और कश्मीरी पंडित, कई सिख परिवार रातों रात घर से बेघर हो गए. इस रात की कहानी है इस फिल्म में लेकिन उसका दर्द शायद देख कर महसूस भी न कर पाएं.
शर्मिन्दगी तो होनी चाहिए
उसके बाद जो हुआ उसकी माफ़ी हमे नहीं मिल सकती.कुछ मिडिया का कमज़ोर होना, सोशल मिडिया जैसी ताकतवर माध्यम का न होना और कुछ हमारी बुज़दिली. हमारी पिछली पीढ़ी, हमारे नेता मौका परस्त और हमारे बुज़ुर्ग बुज़दिल! आज 70 -80 साल के बुज़ुर्ग ज्ञान बांट कर मात्र धर्म की नफरत फ़ैलाने का काम करने में मगन है लेकिन 1980 से ले आकर 1993 और उसके बाद कितनी आवाज़ें उठाई अपने ही साथियों के लिए ?
1990 में जनता दल जिसको भाजपा का समर्थन था और उसके बाद 1991 से 1996 तक कांग्रेस की सरकार लेकिन किसने क्या किया इसे स्वयं पढ़ें. राजनीतिक लाभ लिए गए इसे समझने में मशक्क्त नहीं करनी पड़ेगी.
हम देशवासी कितनी बार कश्मीरी पंडितों के संघर्ष में खड़े हुए?
आज फिल्म देख कर नारे मत लगाइये क्योंकि गुनहगार हम भी है. पिछले 32 सालों में पंजाब दंगे और गुजरात दंगो पर ह्यूमन राइट से ले कर सेक्युलर भारतीय छाती पीट कर रोया और बाकि भारत दंगे पीड़ित की गलती ढूंढने में मशगूल रहा लेकिन कश्मीरी पंडित बिना गुनाह अपने घर से बेघर हो कर अपनी मिटटी को तरसते हुए जिए और मरे लेकिन हमने सुध नहीं ली.
शर्म आनी चाहिए हर उस भरतीय को जो दंगे का विरोध धर्म देख कर करता है और आज भी बेशर्मी से इस फिल्म में दिखाई गयी कश्मीर की हकीकत पर सवाल उठा रहा है. हकीकत को इसलिए मत नकारिये की आपको आज की भाजपा सरकार से आपत्ति है.
सरकार की निति से आपत्ति और विरोध रखना हमारा अधिकार है लेकिन अपने ही देश में विस्थापित हुए देश वासियों की सुध लेना भी कर्तव्य है ! क्या इस सत्य को समझेंगे हम?
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