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Updated: 20 दिसम्बर, 2022 06:54 PM
लोकेन्द्र सिंह राजपूत
लोकेन्द्र सिंह राजपूत
  @lokendra777
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भारत की जो आत्मा है, जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चिति कहा है, वह इस देश की संस्कृति है. गांधीवादी चिंतक धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक 'भारतीय चित्त, मानस और काल' में भारत के सांस्कृतिक पक्ष को रेखांकित करते हुए उसके मूल को समझाने का प्रयास किया है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि जब तक हम भारत के चित्त को नहीं समझेंगे, उसे जानेंगे नहीं और उससे जुड़ेंगे नहीं, तब तक हम भारत को 'भारत' नहीं बना सकते.

अपने स्वभाव को विस्मृत करने के कारण ही आज अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं. पिछले 70 वर्षों में एक खास विचारधारा के लेखकों, साहित्यकारों एवं इतिहासकारों ने आम समाज को 'भारत बोध' से दूर ले जाने का ही प्रयास किया. देश को उसकी संस्कृति से काटने का षड्यंत्र रचा गया.

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उन्होंने इस प्रकार के विमर्श खड़े किए, जिनसे भारत बोध तो कतई नहीं हुआ, बल्कि आम समाज भारत को विस्मृत करने की ओर जरूर बढ़ गया. प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क में भारतीय सांस्कृतिक विचारों एवं आदर्शों की जगह ऐसे विचार आकर जम गए, जो राष्ट्रीय नवनिर्माण के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे. समाज में संघर्ष और कथित क्रांति की अवधारणा को स्थापित करने का प्रयास करने वाली साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में देश के नीति-नियंता राजनेता भी आ गए थे. यही कारण रहा कि भारतीय सांस्कृतिक विचारों से खाली मस्तिष्क में सृजनात्मक सुधार पुष्पित-पल्लवित नहीं हो सके. सृजनात्मक सुधारों की जगह मूर्तिभंजक पद्धतियों ने ले ली. 

देश की विविधता, जो वर्षों से एक माला के मोती के समान एकसूत्र में गुंथी थी, उसमें अलगाव के बीज बोए गए. भारतभूमि पर सभी वर्ग के लोग सनातन संस्कृति के आधार पर प्रेम से रह रहे थे, लेकिन वर्ग संघर्ष को समाज का सत्य मानकर एक राजनीतिक विचारधारा ने इस प्रेम में जहर घोलने का काम किया. चूँकि साम्यवादी विचारधारा राजनीति को ही साधन और साध्य मानती है, इसलिए उन्होंने सबसे पहले राजनीति को भ्रष्ट किया और उसके बाद सांस्कृतिक जीवन को भी छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया.

भाषा के प्रश्न, जाति के प्रश्न, क्षेत्रीय अस्मिता के प्रश्न, कम्युनिस्टों ने राजनीति के माध्यम से उभारे. अपनी क्षुद्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण इन सबके बीच में समन्वय की जगह संघर्ष उत्पन्न कर दिया. भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय दिखना चाहिए था, लेकिन आज उनके बीच संघर्ष दिखाई देता है. राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति कुछ प्रांतों में द्वेष का वातावरण किस प्रकार की राजनीति ने बनाया है, यह किसी से छिपा नहीं है. कम्युनिस्टों की राजनीतिक सोच में भारतीय संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं है. जिस प्रकार अंग्रेजों की नीति थी- 'फूट डालो और शासन करो.' उसी प्रकार की नीति साम्यवादी विचार के या उससे प्रभावित राजनीतिक दलों की रही है- 'संस्कृति पर चोट करो और अपने लिए जगह बनाओ.' 

भारत में पिछले 70 वर्ष जिनके हाथ में शासन व्यवस्था की डोर रही है, उनकी राजनीति में 'सांस्कृतिक' पक्ष नदारद है. भारतीय संस्कृति की समझ नहीं होने के कारण, उन्होंने भारत पर शासन तो किया, किंतु वह भारत निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ नहीं पाए. इसलिये हमारे यहाँ विद्वान बार-बार यह कहते हैं कि हम स्वाधीन तो हुए पर स्वतंत्र नहीं. यह कहना अनुचित न होगा कि हमारे राजनेता कहीं न कहीं सांस्कृतिक बोध की शून्यता के कारण भारत को तोड़ने की प्रक्रिया में लगे लोगों के हाथ खेलते रहे.

राजनीति में सांस्कृतिक मूल्यों की अनुपस्थिति का लाभ असांस्कृतिक मूल्यों ने उठाया और एक-दूसरे में गूंथे भारतीय समाज को बाँटने का काम किया. अनुसूचित जाति-जनजाति, ग्रामीण और नगरीय जन-जीवन को इस प्रकार की राजनीति ने 70 वर्ष में एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया. देश के विभिन्न प्रदेशों खासकर बिहार, कोलकाता, ओडीसा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में आज जो नक्सली समस्या हमें आक्रांत कर रही है, उसके मूल में भी सांस्कृतिक राष्ट्रत्व की अनुपस्थिति है.

सांस्कृतिक विचारों की शून्यता का क्या दुष्प्रभाव पड़ता है, उसका सबसे अच्छा उदाहरण है कि ऐसे लोग भारत को एक राष्ट्र ही नहीं मानते हैं. यह लोग भारत के लिए उपमहाद्वीप या महाद्वीप शब्द का उपयोग करते हैं. यह लोग समय-समय पर घोषणा करते है कि भारत एक महाद्वीप या उपमहाद्वीप है, जिसमें विभिन्न प्रकार की जलवायु और विभिन्न प्रकार की भूमि है.

भारत राष्ट्रों का झुण्ड है और एक देश कहलाने योग्य नहीं है. यह विचार उसी भारत विरोधी मानसिकता और सांस्कृतिक शून्यता से उत्पन्न हुए हैं. दरअसल, यह लोग राजनीतिक तौर पर भारत को देखने का प्रयास करते हैं. जबकि भारत की संपूर्ण तस्वीर तो सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखने पर ही नजर आ सकती है. 

लेखक

लोकेन्द्र सिंह राजपूत लोकेन्द्र सिंह राजपूत @lokendra777

लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रैवल ब्लॉगर हैं। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं। Twitter - https://twitter.com/lokendra_777

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