स्वाधीनता संग्राम हो या कोई और दौर, 'गणेश' ही कल्याण करते हैं
लोगों को लगता है और उनका विश्वास भी है कि भगवान गणेश के नाम से शुरुआत करने से काम में कोई बाधा या विघ्न नहीं आता. तभी तो गणपति का एक नाम विघ्नेश्वर भी है. ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि श्री गणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों माना जाता है? इसके अलावा ये भी जानें कि स्वाधीनता संग्राम में भगवान गणेश की क्या भूमिका थी.
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ॐ गं गणपतये नमः
गणपती बप्पा मोरया
पुढच्या वर्षी लवकरया
आपको गणपति उत्सव की बधाई
इस लेख की शुरुआत में ही गणेश जी का मंत्र गणपति उत्सव के लिए तो लिखा ही साथ में इसलिए भी लिखा कि अक्सर लोग किसी भी शुभ कार्य से पहले गणेश वंदना ही करते हैं. हम गणेश उत्सव से जुड़ी बातों के बारे में बात करेंगे लेकिन सबसे पहले प्रथम पूजनीय गणेश की चर्चा कर ली जाए. आपने अक्सर लोगों को देखा होगा कि वो जब भी कोई शुभ कार्य शुरू करते हैं तो संकल्प करते हुए कहते हैं कि ‘काम का श्रीगणेश किया जाए.’ कुछ लोग अपने काम की शुरुआत में श्री गणेशाय नम: लिखते हैं, खासकर व्यापारी लोग अपने बहीखातों पर 'ऊँ' या ‘श्रीगणेश’ या ‘ऊँ गणेशाय नम:’ लिखते हैं. मीडिया के भी कई लोग स्क्रिप्ट लिखने से पहले ऐसा ही करते हैं. लोगों को लगता है और उनका विश्वास है कि भगवान गणेश के नाम से शुरुआत करने से काम में कोई बाधा या विघ्न नहीं आता तभी तो गणपति का एक नाम विघ्नेश्वर भी है. ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि श्री गणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों माना जाता है? खासकर बच्चों के मन में ये सवाल जरूर उठता है.
किसी भी शुभ काम को करने से पहले भगवान गणेश का नाम यूं ही नहीं लिया जाता
तो इसका जवाब देने के लिए मैं आपको बाल-गणेश की ही एक पौराणिक कथा बता देता हूं.
देवताओं के बीच एक बार इस बात पर विवाद हो गया कि धरती पर किसे सबसे पहले पूजा जाए. सभी देवता अपनी विशेषताओं के कारण स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे. ऐसे में वही देवता सबके बीच प्रकट हुए जिन्हें कई कथाओं के अनुसार सभी को समाधान देने की आदत रही है यानी मीडिया की भाषा में कहूं तो ब्रह्माण्ड के पहले रिपोर्टर-एंकर नारद जी. देवताओं के बीच उपस्थित हुए नारद जी ने सभी देवताओं को अनादि भगवान शिव के पास जाने को कहा. देवता जब शिव जी के पास पहुंचे और अपना विवाद बताया तो भगवान शिव ने इसका हल निकालने के लिए काफी सोच-विचारकर एक प्रतियोगिता आयोजित की. कहा गया कि सभी देवताओं को पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाना है और जो ऐसा करके सबसे पहले उनके पास पहुंचेगा, प्रथम पूजनीय माना जाएगा.
पार्वती-शंकर के बड़े पुत्र कार्तिकेय अपने वाहन मयूर यानी मोर पर सवार होकर ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर सबसे पहले लौटे और सोचा कि शायद वही इस प्रतियोगिता में जीते हैं इसलिए पृथ्वी पर प्रथम पूजे जाने के अधिकारी हुए. उनके पीछे-पीछे और भी देवता अपने-अपने वाहनों से पहुंचे लेकिन सबने देखा कि गणेश तो वहां पहले से मौजूद हैं और वे हाथ जोड़े पार्वती-शंकर के सामने खड़े हैं.
भगवान शिव ने गणेश जी को ही विजेता घोषित किया. कार्तिकेय समेत सभी देवता आश्चर्य में पड़ गए. शिव जी ने बताया कि गणेश जी ने अपनी बुद्धि का परिचय दिया और संसार को ये समझाया कि जीवन में माता-पिता का दर्जा ब्रह्माण्ड से भी बढ़कर है. दरअसल, गणेश जी शिव-पार्वती के 7 चक्कर लगाकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए थे क्योंकि उनके लिए माता-पिता ब्रह्माण्ड से भी ऊंचा दर्जा रखते हैं. सभी देवताओं ने गणेश जी को सर्वप्रथम पूजनीय भगवान माना और तब से लोग इस परंपरा का निर्वाह अपने सभी शुभ कार्यों में करते हैं.
अब हम बात कर लेते हैं गणपति बप्पा की यानी गणेश उत्सव की..
हिंदू कैलेंडर के मुताबिक, हर महीने में दो चतुर्थी आती हैं. चतुर्थी भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती है. भाद्रपद की अमावस्या के बाद यानी हिन्दी महीनों के अनुसार, भादो के महीने में शुक्ल पक्ष में आने वाली चतुर्थी का विशेष महत्व है. ये है गणेश चतुर्थी जिसे भगवान गणेश के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है. गणेश उत्सव 10 दिन तक चलता है. इस दौरान भगवान गणेश को बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता के रूप में पूजा जाता है. 10वें दिन यानी अनंत चतुर्दशी के दिन गणपति बप्पा का विसर्जन भी किया जाता है. श्रद्धालु-जन बड़े धूम-धाम के साथ सड़क पर जुलूस निकालते हुए भगवान गणेश की प्रतिमा का सरोवर, झील, नदी या जल में विसर्जन करते हैं और वही गाते हैं जो लेख के शुरू में मैंने कहा था –
गणपती बप्पा मोरया, मंगलकारी मोरया
पुढच्या वर्षी लवकरया
ये मराठी भाषा है जिसका अर्थ है –
हे मंगलकारी पिता गणेश जी! अगले साल जल्दी आना !
इसमें ‘मोरया’ शब्द की भी एक भक्त और भगवान की रोचक कहानी है. महाराष्ट्र के पुणे से 21 किमी. दूर चिंचवाड़ गांव में एक ऐसे संत जन्मे जिनकी भक्ति और आस्था ने लिख दी एक ऐसी कहानी, जिसके बाद उनके नाम के साथ ही जुड़ गया गणपति का भी नाम. ये संत पंद्रहवीं शताब्दी में हुए, जिनका नाम था मोरया गोसावी. कहते हैं कि भगवान गणेश के आशीर्वाद से ही मोरया गोसावी का जन्म हुआ था और मोरया गोसावी भी अपने माता-पिता की तरह भगवान गणेश की पूजा आराधना करते थे.
हर साल गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर मोरया चिंचवाड़ से मोरगांव गणेश की पूजा करने के लिए पैदल जाया करते थे. कहा जाता है कि मोरया गोसावी की बढ़ती उम्र की वजह से एक दिन खुद भगवान गणेश उनके सपने में आए और उनसे कहा कि उनकी मूर्ति नदी में मिलेगी. वैसा ही हुआ भी, नदी में स्नान के दौरान मोरया को गणेश जी की मूर्ति मिली. इस घटना के बाद लोग मोरया गोसावी के दर्शन के लिए भी आने लगे. कहते हैं जब भक्त गोसावी जी के पैर छूकर मोरया कहते तो संत मोरया अपने भक्तों से मंगलमूर्ति कहते थे. ऐसे शुरुआत हुई मंगलमूर्ति मोरया की.
और धीरे-धीरे हर गणेश उत्सव में ये नारा गूंजने लगा लेकिन यहां एक बात और है कि जिस तरह का उत्सव हम आज की तारीख में देखते हैं यानी जिस तरह से सार्वजनिक स्तर पर गणेश उत्सव मनाया जाता है ऐसा हमेशा से नहीं था बल्कि इसका श्रेय तो स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक को जाता है जिन्होंने इसे 1893 में इस स्तर पर शुरू किया. उसके बारे में बात करने से पहले ये भी जान लेते हैं कि उससे पहले महाराष्ट्र में गणेश उत्सव की शुरुआत कैसे हुई..
बताया जाता है कि महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलायी थी. छत्रपति शिवाजी भी गणेश उत्सव मनाया करते थे. कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थापना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी, तब शिवाजी छोटे थे. आगे चलकर शिवाजी और पेशवाओं ने इस उत्सव को बढ़ाया. तब ये गणेश उत्सव घर-परिवार तक ही सीमित था और लोग 10 दिन के लिए अपने घर पर गणपति बिठाते थे, पूजा करते और फिर विसर्जन करते थे.
ब्रिटिश राज में सार्वजनिक उत्सव नहीं मनाये जाते थे लेकिन फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हिन्दुस्तानियों को एकजुट करने के बारे में सोचा. बताते हैं कि 1890 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे बैठते और इसी सोच में डूबे रहते कि आखिर लोगों को जोड़ा कैसे जाए. अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने धार्मिक रास्ता चुना. तिलक ने सोचा कि क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकालकर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें. पर्व को शुरू करने में तिलक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था.
गणेश पूजा को उन्होंने सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने, समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञान बढ़ाने का जरिया बनाया. साथ ही तिलक ने गणेश उत्सव को एक आंदोलन का स्वरूप दिया. इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था.
आप कह सकते हैं कि लोकमान्य तिलक ने 1893 में जो पौधा लगाया था वो आज वट वृक्ष बन चुका है. मुंबई, पुणे या महाराष्ट्र से निकलकर पूरे देश में जिस तरह क्रांति फैली थी वैसे ही आजकल गणेश उत्सव भी मनाया जाता है. बताया जाता है कि केवल महाराष्ट्र में ही 50,000 से ज्यादा सार्वजनिक गणेश उत्सव मंडल हैं. इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेश उत्सव मंडल हैं. तिलक की क्रांति को बढ़ाने का काम और भी कई क्रांतिकारियों ने अपने तरीके से किया.
विनायक दामोदर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाई थी. इस संस्था का काम था देशभक्तिपूर्ण पोवाडे आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना यानी मराठी लोकगीतों के एक प्रकार पोवाडे की प्रस्तुति. इस संस्था के पोवाडों ने धूम मचा दी थी. कवि गोविंद को सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. वे राम-रावण की कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल हुए. उनके बारे में वीर सावरकर ने लिखा कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे.
गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी थी. बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था. अंग्रेज भी इससे घबरा गये थे. इस बारे में रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी चिंता जतायी गयी थी. कहा गया था कि गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं और स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं, जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है.
साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है. गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे - वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजिनी नायडू.
इस साल का गणेश चतुर्थी का महापर्व बहुत खास है. गणेश चतुर्थी पर करीब दस साल बाद एक विशेष संयोग बनने जा रहा है. गणेश पुराण में बताया गया है कि गणेश का जन्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुआ था. उस दिन शुभ दिवस बुधवार था. इस साल भी कुछ ऐसा ही संयोग बन रहा है. इस साल भी भाद्र शुक्ल चतुर्थी तिथि यानी 31 अगस्त बुधवार है.
कई पंडितों का मानना है कि इस संयोग में जो लोग भगवान गणेश की विधिवत पूजा-अर्चना करेंगे, उनकी सभी मनोकामनाएं जल्द पूरी होंगी. साथ ही भगवान गणेश की विशेष कृपा भी उन पर होगी.
देश में कई जगहों पर और खास तौर पर महाराष्ट्र में गणेश पंडाल सज चुके हैं. मुंबई में लालबागचा राजा यानी लाल बाग के राजा गणपति जी महाराज की विशेष धूम रहती है.
कई पंडालों ने इस बार करोड़ों की धनराशि का बीमा करवाया हुआ है.
10 दिन बाद जब लोग नाचते-गाते गणेश-विसर्जन के लिए जाएंगे तो एक अलग ही समां बंधेगा और लोग फिर वही कहेंगे –
गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ..
हम यही चाहेंगे कि गणेश जी अपनी बुद्धि का संचार हम सब में करें और हमारे ज्ञान में समृद्धि हो जिससे संसार में लड़ाई और नफरत कम हो और मोहब्बत बढ़े..
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