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Updated: 16 सितम्बर, 2022 03:38 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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दुनिया की किसी भी भाषा के सामने किसी भाषा का डर दिखाना बेमतलब है. दक्षिण के सामने हिंदी का डर खड़ा किया गया. क्या दक्षिण की भाषाओं को हिंदी ने खा लिया? या हिंदी वहां बढ़ नहीं पाई. समय के साथ वहां हिंदी खुद ब खुद मजबूत हुई. उल्टे हिंदी के साथ जुगलबंदी में दक्षिण की भाषाएं ज्यादा विस्तारित दिखती हैं आज की तारीख में. हिंदी दिवस के मौके पर कुछ लोग हिंदी के सामने अंग्रेजी को दुश्मन की तरह पेश कर रहे हैं. अंग्रेजी से 'संस्कृति' के संक्रमण की दुहाई दी जा रही. भला कोई विदेशी भाषा भारतीय संस्कृति को बलात प्रभावित करने की क्षमता रखती तो आज की तारीख में देश की राष्ट्रीय भाषा सिर्फ फारसी ही होती.

बलात कोशिशों से विस्तार नहीं होता. भारत को 'फारसीमय' बनाने के चक्कर में हिंदुस्तानी या हिंदी हुई और इसे फिर सुधारकर फारसी के रास्ते पर लाने के चक्कर में उर्दू हुई. ईमानदारी से दोनों भाषाएं नाजायज उपज हैं. उर्दू को जायज ठहराने की बलात कोशिशों ने उसे एक दायरे में ही जब्त कर दिया. लोगों ने बस इसी बिंदु पर अंग्रेजी में कल्याण देखा और यह फोर्ट विलियम से ज्यादा पुरानी बात नहीं है. पाकिस्तान भाषा को लेकर अपनी बलात कोशिशों की वजह से ही पहले बांग्लादेश गंवा चुका है. कागज़ की बात किनारे रख दीजिए तो बलूचिस्तान भी पूरी तरह उसके हाथ से निकल चुका है और पंजाबी-उर्दू के फ्यूजन से जो धुन निकल रही है- ईश्वर ही खैरख्वाह होगा पाकिस्तान के लिए. असल में पाकिस्तान रसीली मैगी को भी चॉपस्टिक से खाने की कोशिश में लगा है. नूडल तो खा लोगे पर उसका रस बाउल से ख़त्म करने के लिए चम्मच की जरूरत पड़ती है.

इधर, उसके बड़के भैया लोग रसीली मैगी भी 'दाल भात' की तरह हाथ से सानकर खाते दिखते हैं. पनीर ने दोसे समेत कहां-कहां घुसपैठ कर ली है यकीन नहीं कर पाएंगे. खोजेंगे तो ऐसी अन्नापूर्णाएं पर्याप्त संख्या में मिल जाएंगी जिन्होंने इडली तक में पनीर की सुस्वादु गुंजाइश बना रखी होगी. भले यह असंभव लगता है. आज की तारीख में बिना प्रचार और बिना किसी अभियान के दक्षिण से उत्तर तक हर रसोई में इडली, दोसा, साम्भर घुसा पड़ा है. लेकिन उत्तर की रसोई ने 'रसम' से परहेज भी किया है. और यह परहेज बरकरार रहेगा क्योंकि रसम की भौगिलोक सीमाएं हैं.

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कुल मिलाकर बात यह है कि भाषा-संस्कृति और खानपान को लेकर विद्वानों को व्यर्थ की चिंताएं करने की जरूरत नहीं है. जो अच्छा-सच्चा-सुंदर और हितकर होगा, लोग उसके साथ हो जाएंगे. और बिल्कुल अपने तरीके से होंगे. जैसे जल्दबाजी का भोजन 'मैगी' भूगोल के साथ अपनी अनंत यात्रा के अनंत पड़ाव पर चले जा रही है. किसी कैंपेन की जरूरत पड़ी क्या? इसलिए नहीं पड़ी कि यह 'व्यवहार' (भोजन के) से जुड़ी चीजें हैं. व्यवहार और भूगोल का संबंध गहरा है. संस्कृति चाहे जैसी हो- वह या तो भूगोल के प्रभाव में आएगी और नहीं आई तो उससे अनिवार्य रूप से अलग-थलग होना पड़ेगा और इसे लेकर किसी भी व्यक्ति का 'रोना' रहना व्यर्थ है. रोइए मत.

अब देखिए हमारी तरफ किसी स्कूल में अवधी नहीं पढ़ाई जाती. सैकड़ों सालों से. तो क्या अवधी खत्म हो गई? सैकड़ों सालों से फारसी, अरबी या हिंदी के प्राथमिक अक्षर ज्ञान को भी पढ़ाने के लिए इसी अवधी, व्रज, मगही, मगधी, भोजपुरी, मारवाड़ी, बुंदेली, रेवाड़ी या ऐसी नाना प्रकार की भाषाओं/बोलियों की जरूरत पड़ती है. अंग्रेजी के लिए भी. यह जरूरत कभी ख़त्म नहीं होने वाली है. सोचिए- अवधी या ऐसी तमाम बोलियों के लिए हिंदी या उर्दू जैसे सांस्थानिक प्रयास हुए रहते तो आत्मविश्वास से भरे उत्तर भारत की तस्वीर आज की तारीख में निश्चित ही अलग होती. हमारे पास ज्यादा बहुरंगी ईमानदार विचारों और कलाओं की परंपरा होती.

यह गहरे रंग का असर है कि बादशाहों की ऐतिहासिक पहल को किनारे रख- रसखान व्रज में गाने लगते हैं और मालिक मुहम्मद जायसी अवधी में लिखते हैं. उपनिवेश की शुरुआत अंग्रेजों से बहुत पहले हुई थी. एक धार्मिक दायरे में अकबर ने इसकी नींव डाली थी. उसका मकसद भारत की संस्कृति और इतिहास को पूरी तरह उलट-पलट देने की थी. पुरानी याददाश्त मिटाने की थी. नया इतिहास लिखने की थी. क्या कोई भाषा रातोंरात किसी देश में लागू की जा सकती है? अकबर ने फारसी को ऐसे ही रातोंरात लागू किया था. एक ऐसी भाषा जिसके पांच शब्द जानने वाले भी दस आम भारतवंशी तब तो नहीं रहे होंगे. भाषा को शाही दर्जा मिला और शुरू-शुरू में कायस्थ-खत्रियों को सिखाया गया जो नई-नई चीजें सीखने के मामले में उस्ताद थे. राजकाज का काम फारसी में चलने लगा, मगर वह जनता की स्वाभाविक जरूरत नहीं बनी.

अकबर ने इसकी काट खोजी. उसने व्यापक रूप से मदरसों की शुरुआत कराई. मदरसा चलाने के लिए मौलवियों को ईरान से लाया गया. बादशाहों के जमाने में मौलवी-लेखक-विद्वान-दार्शनिक-शायर भी लड़ाके होते थे और सेना रखते थे. मदरसे चलें- भारत को 'फारसीमय' बनाने के चक्कर में जो भाषा पैदा हुई वही हिंदी थी. हिंदुस्तानी भी कह सकते हैं. मगर भूगोल का परिणाम यह रहा कि फारसी और लोकभाषाओं के संक्रमण में नाजायज तरीके से पैदा हुई कल की हिंदुस्तानी जो आज हिंदी के रूप में सामने है. भूगोल की वजह से जो होता है वही हुआ. जो भाषा पैदा हुई उसमें लोकभाषाओं के शब्दों की भरमार हो गई.

बादशाह हैरान परेशान. उसने यह नहीं सोचा था. फिर क्या था? ईरानी ज्ञानियों को टास्क मिला. चलो हिंदुस्तानी से कोई हर्ज नहीं. यह एक नई भाषा दिख रही है. इसे अपना कहा जा सकता है. बस यह करो कि इसमें संस्कृत और भारतीय भाषाओं के जो शब्द हैं उसे फारसी शब्दों से रिप्लेस कर दो. ऐसा ही हुआ. लेकिन हिंदुस्तानी टस से मस नहीं हुई उल्टे एक और भाषा नाजायज तरीके से बनी- "उर्दू" जिसमें फारसी और अरबी के शब्दों की भरमार है. औपनिवेशिक मकसद में उर्दू को तो बलात पैदाइश ही कहा जाएगा. बावजूद एक भाषा के रूप उसका कोई दोष नहीं उसके करता धर्ताओं का दोष हो सकता है. यही वजह है कि उर्दू हमेशा एक दायरे में जब्त दिखती है आज भी है. भारत ने क्या कभी उसे स्वेच्छा से अपनाया. उर्दू के जन्म के बाद हिंदी को लावारिस छोड़ दिया गया. हिंदी आवारा रहते भूगोल के रंग में और रंगती गई. फिर अंग्रेज आए. फोर्ट विलियम बना और हिंदी की आवारगी एक दूसरे मुकाम पर ख़त्म हुई और एक नए मंजिल की ओर बढ़ी. आज की तारीख में हिंदी के वारिसदारों की कमी नहीं है.

अपढ़ तक पहुंचने की कोशिश कभी कृतिम हो ही नहीं सकती. वह जब स्वाभाविक और वास्तविक होगी तभी निचले स्तर तक पहुंचेगी. बहुत बड़ा तबका पढ़ा लिखा नहीं बल्कि कढ़ा होता है. आप पढ़े को 'गढ़' सकते हैं. कढ़े को नहीं. हमारे यहां तमाम दिक्कतें इसी पढ़े और कढ़े को एक समझ बैठने की वजह से हुई हैं. दावे से कहा सकता हूं कि कबीर, तुलसी, रैदास और तिरुवल्लूर आदि भारतीय कवियों से लोकप्रिय दुनिया की किसी भी भाषा का कोई कवि नहीं होगा. इनकी खूबी बस यही है कि सबके सब कढ़े कवि-लेखक-इतिहासकार हैं.

लोकप्रियता के मामले में भला आल्हा साहित्य का मुकाबला कौन करेगा? इसमें शास्त्रीयता मत तलाशिए. उसका पुरातन होना ही शास्त्रीय होना है. पंडवानी को लोक शास्त्रीय मानते हैं ना. आल्हा साहित्य के लिए कोई देश विदेश से वित्त पोषित फाउंडेशन काम नहीं करता. मुझे नहीं लगता कि सरकारों ने भी प्रश्रय दिया होगा. बावजूद बघेलखंड, बुंदेलखंड या उसके आसपास के इलाकों में ऐसा कोई गांव कस्बा नहीं मिलेगा जहां आल्हा की 10 या 20 पंक्तियां गाने वाले नौजवान आज की तारीख में भी ना मिल जाए. क्या आल्हा साहित्य को लोकप्रिय बनाने के लिए कोई "रेख्ता फाउंडेशन" काम करता है.

मराठी, तमिल, बांग्ला, ओड़िया, कन्नड़ आदि की तो बात ही छोड़ दीजिए. वहां तो जमीन और आसमान के जितना अंतर है. उदाहरण के लिए आंध्र और तेलंगाना में ही देख लीजिए. उर्दू की जबरदस्ती की वजह से सिर्फ हैदराबाद समूचे दक्षिण में भाषाई आधार पर मिसफिट और सबसे अलग-थलग नजर आता है. ऐसा नहीं होना चाहिए था. जबकि केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, बंगाल, आसाम आदि राज्यों में यह नहीं दिखेगा. महाराष्ट्र में भी उर्दू को एक धर्म विशेष की भाषा मान लिया गया है. पंक्तियों का लेखक जब भी मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र के तमाम गंवई इलाकों में गया उसकी हिंदी की वजह से लोगों को लगा कि वह एक मुसलमान है. आम गंवई मराठी आज भी हिंदी और उर्दू के बीच के फर्क को नहीं समझ पाता. अकबर के मदरसे फेल हो गए. आप सोचिए कि करीब-करीब पांच सौ सालों की कोशिशों के बावजूद भूगोल के असर की वजह से फारसी- भारतवंशी मुसलमानों के भी घर की दहलीज लांघकर आँगन तक घुस नहीं पाई है. उलटे भारतवंशी मुसलमानों के आँगन में अवधी, व्रज, मारवाड़ी आदि तमाम बोलियां मिल जाएंगी. अंग्रेजी क्या ख़ाक हिंदी को तबाह करेगी. चिंता ना करें.

केरल में मलयालम बहुत बड़ी दीवार है. बीएम कुट्टी साब पाकिस्तान चले गए, वहां पहुंचने के बाद उनके अंदर का मलयाली जब्त हो गया और वे कुढ़ते ही रहे. लोकल का ज़माना है चारोतरफ. टिकना है तो हर लिहाज से लोकल होना पड़ेगा. वर्ना नष्ट हो जाएंगे. सनातन की प्रक्रिया असल में यही है. यहां कुछ बनाया नहीं जाता. वक्त के साथ खुद ब खुद बनता रहता है. अकबर और तमाम दूसरे बादशाह-शहजादे "जामी" के "युसूफ जुलेखा" की कहानियां ही सुनकर बड़े हुए हैं. वह कहानियां जिसमें हिंदू देवी देवताओं का भी जिक्र है.

बादशाहों ने रामायण-गीता का अनुवाद तो फारसी में करवाया कि उसपर बहस हो और काउंटर नैरेटिव खड़े किए जाए. खड़े भी हुए. मगर जामी के रहस्य पर पर्दा डाले रखा गया. 15वीं शताब्दी में श्रीवर ने संस्कृत में जामी का अनुवाद किया. यह दुख की बात है कि जामी का अनमोल साहित्य भारत की लोकभाषाओं में नहीं आ पाया. अंग्रेजों ने भी पता नहीं क्यों भारत के लिए इसकी जरूरत नहीं समझी जबकि अपने यहां बड़े चाव से पढ़ाते हैं. जामी के साहित्य में दो विपरीत संस्कृतियों के मिलन की जो दास्तान है वह दुर्लभ है. कहीं ऐसा तो नहीं कि संस्कृत को लेकर एक घृणा सिर्फ इसीलिए फैलाई गई कि लोग संस्कृति के उस सच को ना जान पाए जो 'संस्कृत साहित्य' में दर्ज है. और जिसकी सैकड़ों साल पुरानी मूल प्रतियाँ सुरक्षित हैं. सोचने वाली बात है कि भाषा का किसी मनुष्य से किस तरह का बैर हो सकता है.

मेरे अपने घर में बांग्ला, मराठी, उड़िया, उर्दू और तेलुगु जानने वाले लोग हैं. महाराष्ट्र में बिना जरूरत के मैंने भी मराठी सीखी. मुझे इसने बेतहाशा फायदा पहुंचाया. मेरे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पालन-पोषण गांव से कोसो दूर शहरों में हो रहा. आजकल देखता हूं अधिकांश लोग गांवों में भी अपने बच्चों के साथ खड़ी भाषा में बात करते हैं. पता नहीं किसने लोगों के कान भर दिए हैं कि खड़ी भाषा बोलना ही सभ्य होना है और उर्दू में बतिया रहे तब तो आप तहजीब के सबसे ऊंचे पायदान पर बैठे हैं. दक्षिण में इस तरह का समान्यीकरण नहीं है. हमलोग आपस में चाहे घर के अंदर रहें या किसी लकदक भीड़भरे व्यावसायिक परिसर में- अवधी में ही बतियाते हैं. ठसक के साथ. बच्चे खड़ी भाषा, अवधी और अंग्रेजी में भी बतियाते हैं. मैं चाहता हूं कि वे और भी भारतीय भाषाओं के साथ हितकारी विदेशी भाषाएं सीखते रहें. उर्दू भी. लेकिन गर्व के साथ अपनी मातृभाषा का भी व्यवहार रखें. अब चूंकि वे हिंदी के भी वारिसदार हैं तो उसे भी साथ लेकर आगे बढ़ें.

हिंदी समेत दुनिया की भाषाएं अपने स्वाभाविक सफ़र पर हैं. उनकी चिंता करने की बजाए उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. बस उनका रास्ता मत रोकिए. वे अपनी मंजिल खुद तय कर लेंगी. हमें आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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