संस्कृति से बेखबर, संस्कृति के ठेकेदार
संस्कृति के इन तथाकथित ठेकेदारों को संस्कृति का कुछ पता भी है? शायद , इनको खुद भी भारतीय संस्कृति का आधा अधूरा ही ज्ञान ही है या ये बस अपने राजनीतिक ध्रुवीकरण का ऐजेंडा साधने के लिए लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं.
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कोई 'धर्म जागरण' नाम की संस्था है आगरा में और उस से जुड़े कोई नन्द किशोर बाल्मीकि नाम के महानुभाव हैं, उन्होंने धमकी दी है की इन नवरात्रों में अगर मीट बिका तो वो जामा मस्जिद के अन्दर सौ सूअर भेज देंगे. नंद किशोर बाल्मीकि सुर्ख़ियों में हैं, आखिरकार क्यों न हो, उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाने की इतनी बड़ी पहल जो की है.
वैसे इसमें केंद्र सरकार का कोई हाथ नहीं है, ये बस महज संयोग है कि इस तरह की मांग कुछ दिनों पहले हमारे संस्कृति मंत्री श्री महेश शर्मा जी ने भी उठायी थी. संस्कृति मंत्री ने एक मांग और भी की थी कि लडकियां शाम होते ही सीधे घर आ जाएँ, क्योंकि भारतीय संस्कृति यही सिखाती है. हम कोई अमेरिका , यूरोप जैसे निकृष्ट थोड़े ही हैं, हम महान विश्व गुरु भारत के महान नागरिक हैं. वो दूसरी बात है कि अभी दो दिन पहले ही हमारी महान संस्कृति को शर्मशार करते हुए एक युवक ने चार साल की लड़की का बलात्कार किया और बाद में उसे खून से लथपथ, मरणासन्न हालत में छोड़ कर भाग गया. शायद, ये खबर संस्कृति मंत्री या किसी और संस्कारी मंत्री तक अभी तक पहुँच नहीं पायी क्योंकि किसी ने अभी तक ये नहीं कहा कि हम इस घटना पर शर्मिन्दा हैं. वैसे इस तरह की घटनाएं अब इतनी आम हो गयी हैं कि मन को उतना झकझोरती भी नहीं, तब तक, जब तक कि इस तरह की चीख खुद अपने आँगन तक ना पहुच जाए.
खैर..! बात हो रही थी संस्कृति की. सवाल ये है की संस्कृति के इन तथाकथित ठेकेदारों को संस्कृति का कुछ पता भी है? शायद , इनको खुद भी भारतीय संस्कृति का आधा अधूरा ही ज्ञान ही है या ये बस अपने राजनीतिक ध्रुवीकरण का ऐजेंडा साधने के लिए लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं.
नवरात्रि शक्ति पूजा का अवसर होता है और असम का कामख्या मंदिर माँ शक्ति के सबसे प्रमुख शक्ति पीठ में से एक है. जानवरों की बलि और प्रसाद में उनके मांस का वितरण वहाँ का एक प्रमुख रिवाज़ है. क्या नवरात्रि पर मीट बैन की मांग उठाने वाले ये संस्कृति के ठेकेदार वहाँ जा कर संस्कृति की व्याख्या और शास्तार्थ करेंगे? नहीं, क्यों वो कर ही नहीं पायेंगे. शक्ति पूजा में तंत्र का भी विशेष महत्व होता है और तंत्र पांच मकारों से साधा जाता है, जो हैं, मदिरा, मांस, मन्त्र, मुद्रा एवं मैथुन ( मद्यं मांसम मीनं मुद्राम मैथुनम एव च.. एते पञ्च मकारा: स्योरमोक्षदे युगे-युगे..). कहने का मतलब है कि भारतीय संस्कृति ने सबको ये अधिकार दिया है कि वो अपनी इच्छा के अनुसार खाए, पीये और जीये. लेकिन हमारे " बैन- ओब्सेस्सेड" नेताओं को ये बात समझ ही नहीं आती.
रही बात औरतो और लड़कियों के शाम से पहले घर आने की, तो अब जो महाभारत की कथा मैं सुनाने जा रही हूँ, उसे संस्कृति मंत्री ध्यान से सुनें, मोहन भागवत भी सुनें, राजनीति करने वाले साध्वी और योगी भी सुने और चारों दिशाओं में फैले संस्कृति के छुटभैये ठेकेदार भी सुन लें...
निसंतान महाराजा पांडु ने जब कुंती से ये आग्रह किया के वो देवताओं का आव्हान कर के पुत्र प्राप्त करें तो उनकी पत्नि कुंती ने साफ़ मना कर दिया. इस पर महाराजा पांडु ने उन्हें वैदिक युग की एक कथा सुनाई जब स्त्रियाँ पूर्ण रूप से स्वतंत्र और स्वछन्द होतीं थी और किसी भी सम्बन्ध में उनकी स्वीकृति और अस्वीकृति ही निर्णय का एकमात्र आधार होती थी. विवाह नाम की संस्था उस समय नहीं बनी थी. बहुत बाद में, ऋषि श्वेतकेतु ने विवाह नाम की संस्था का निर्माण किया क्योंकि वो इस बात से नाराज़ थे कि उन की माँ उन्हें छोड़ कर एक नए प्रेमी के साथ चली गयी थी.
ये तो सिर्फ एक कथा है, अगर हम वेद पुराण खोल कर पढने बैठे तो हमें पता चलेगा की हमारे पूर्वज कितने उन्नतिशील और प्रगतिवादी थे. हम तो उनकी तुलना में निरे देहाती रह गए. शायद तभी, उस समय हम नए नए आविष्कार और प्रयोग करने में सक्षम थे, शून्य से लेकर खगोलशास्त्र तक, आध्यात्म के रहस्यों से ले कर कामसूत्र तक. हमारे पूर्वजों के शरीर में शक्ति थी, मन में ऊर्जा थी. गुफाओं को काट काट कर उन पर नक्काशी करने के लिए कितनी शक्ति, ऊर्जा और मनोयोग चाहिए होता होगा. अजन्ता , एलोरा , एलेफेंटा गुफाएं क्या ऐसे ही थोड़े ही बन गयी होंगी.
वो हमारी तरह अपना समय व्यर्थ में नहीं गंवाते होंगे, ध्यान और कर्मठता में निपुण हमारे पूर्वजों ने हमें एक महान सांस्कृतिक धरोहर दी, जिस पर हमें गर्व है लेकिन आज वो जब हमें क्या खाए और क्या न खाएं, कब जाएँ और कब आयें पर राष्ट्रीय बहस करते देखते होंगे, तो कसम से पानी पी पी कर गाली देते होंगे.
भारतीय संस्कृति को विश्व भर में सम्मानित करने वाले विवेकानन्द जी को अगर हमारे संस्कृति मंत्री, साध्वी प्राची और तमाम छुट-भय्ये नेता पढ़ लें तो सारे झगडे ही ख़त्म हो जाएँ. सन्यासी होते हुए भी विवेकानद जी ने मांसाहार का जम के समर्थन किया था. उन्होंने कहा था कि कमजोरी मृत्यु है और शक्ति ही जीवन है और शक्ति पाने के लिए अगर नरक भी जाना पड़े तो वो भी सही है. विवेकान्द जी ने ये भी कहा था कि किसी समाज की उन्नति को मापने का सबसे बड़ा पैमाना ये है कि वो अपनी स्त्रियों के प्रति किस तरह का व्यवहार करता है, स्त्री जाति के प्रश्न हल करनेवाले हम कौन हैं ? अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने वे पूर्णत: सक्षम हैं.
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