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Updated: 05 नवम्बर, 2021 10:40 AM
विजय मनोहर तिवारी
विजय मनोहर तिवारी
  @vijay.m.tiwari
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भारत की अनंत स्मृतियों में बहुत कुछ ऐसा है, जो पूरी दुनिया की धरोहर है. यहां युगों की यात्रा में महानायकों की एक चमकदार श्रृंखला है. महान् ऋषि परंपरा भारतीय संस्कृति के मूल में है. वेदों और उपनिषदों ने भारत को एक वैचारिक ऊंचाई और दार्शनिक गहराई दी. फिर युग बदले. राम और कृष्ण की महागाथाएं जुड़ती चली गईं. बुद्ध और महावीर से विवेकानंद और अरविंद तक. हर युग और हर पीढ़ी ने कुछ न कुछ श्रेष्ठ जोड़ा. कुछ ऐसा जो पीढ़ियों तक पीढ़ियों के काम आए. चिरस्मरणीय. अमृततुल्य. संपूर्ण जगत के लिए. एक ऐसा विचार जिसने पूरी धरती को एक परिवार के रूप में देखा. कोई अलग नहीं. सब एक. अभिन्न. भारत की इसी यात्रा के एक जगमगाते पड़ाव हैं- आदिगुरू शंकराचार्य. महान् ऋषि परंपरा की एक ऐसी कड़ी, जिन्होंने भारत को भारतीयता के अर्थ से लबालब भरा. केवल 32 साल की आयु में वे आध्यात्मिक विरासत पर जम चुकी समय की धूल को साफ करके देश को सनातन संस्कृति के एक मजबूत धागे में बांधकर चुपचाप चले गए. आचार्य शंकर की पदचाप केरल के समुद्र से लेकर केदारनाथ के पहाड़ों में आज भी ताजा हैं.

उनकी देशना गुरुकुलों और आश्रमों में आज भी गूंज रही हैं. गुरुकुलों में आचार्य हैरत से भरकर कहते हैं कि शंकर के दर्शन में एक मामूली सी मात्रा लायक सुधार की गुंजाइश नहीं है. वह इतना परिपूर्ण है. एक-एक श्लोक. एक-एक शब्द. एक-एक अक्षर. आखिर वह क्या है? केरल के कालडि में उनके माता-पिता ने अपने इष्ट के समक्ष एक दीर्घायु बुद्धिहीन पुत्र की बजाए अल्पायु पुत्र की कामना की थी, जो सर्वज्ञ हो.

Swami Vivekananda, Adi Shankaracharya, Hindu, Hindutva, Religion, Educationआदिगुरू शंकराचार्य, महान् ऋषि परंपरा की एक ऐसी कड़ी, जिन्होंने भारत को भारतीयता के अर्थ से लबालब भरा.

पिता अल्पायु में ही चल बसे थे. मां से संन्यास की आज्ञा लेकर शंकर आठ वर्ष की आयु में दक्षिण से निकले थे और मध्यप्रदेश केओंकारेश्वर में गुरू गोविंदपाद के यहां जा पहुंचे. उस समय समाधिस्थ गुरू ने पूछा-"बालक तुम कौन हो?' शंकर का उत्तर है- 'स्वामी! मैं न तो पृथ्वी हूं, न जल हूं, न अग्नि हूं, न वायु हूं, न कोई गुणधर्म हूं, मैं इंद्रियों में से कोई इंद्रिय भी नहीं हूं, मैं तो अखंड चैतन्य हूं.'

और अपने समय के एक प्रसिद्ध गुरू को एक योग्य शिष्य मिल गया. मध्यप्रदेश उन्हीं आदि शंकर की गुरू भूमि है. शंकर की देशना है कि नश्वर शरीर तक दृष्टि सीमित मत रखो. यह भाव हमेशा रखो कि मैं ही विश्व हूं. सारा विश्व मेरे शरीर का ही अंग है. सोचिए, असावधानी से भी अगर जीभ दांतों के बीच आकर कट जाए और रक्त निकलने लगे तो क्रोध नहीं आएगा और न ही दांतों को तोड़ने का मन होगा.

क्यों? इसलिए कि यह भाव हमारे भीतर बना रहता है कि दांत भी मेरे ही हैं. इन्हें कैसे क्षति पहुंचा सकता हूं. जिसका निश्चय ऐसा होगा कि यह पूरा विश्व ही मेरा रूप है तो यह जगत कितनी व्याधियों से मुक्त हो सकता है. 'यूनिवर्सल वननेस' का वही भाव आज अज्ञान और आतंक से भरी दुनिया में सुरक्षा और विकास की गारंटी है. शंकर कहते हैं, 'अविद्या से मुक्ति के लिए किसी लंबी भूमिका की आवश्यकता नहीं होती.

ज्ञान रोशनी की एक किरण या बिजली की एक कौंध में ही सब कुछ प्रकाशित कर सकता है.' शंकर के जीवन का एक प्रसंग है. वे श्रृंगेरी जा रहे थे. प्रभाकर नाम के एक ब्राह्मण अपने इकलौते बेटे के साथ उनके समक्ष आते हैं. तेरह साल का वह बेटा जड़वत है. गूंगा. कुछ बोलता ही नहीं. आचार्य शंकर उसी से पूछते हैं-"हे शिशु, तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, कहां जा रहे हो, तुम्हारा नाम क्या है, कहां से आए हो, इन प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे प्रसन्न करो. तुम्हें देखकर मैं आनंदित हूं.'

शंकर की वाणी उस मौन बालक के ह्दय में उतरती है. वह खिल उठता है. उनके चेहरे पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके कहता है- ‘मैं मनुष्य नहीं हूं, देवता या यक्ष भी नहीं हूं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी नहीं हूं. ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थी, संन्यासी भी नहीं. मैं केवल निज बोध स्वरूप आत्मा हूं...' शंकराचार्य उसके पिता को बालक की पृष्ठभूमि बताते हैं कि कौन सिद्ध पुरुष उसकी देह में हैं और उनकी दिशा क्या है?

बहुत बेमन से प्रभाकर अपने बेटे को आचार्य को सौंप देते हैं. हस्तामलक उनका नाम होता है और यह जो जवाब उसने आचार्य को दिया था, वह हस्तामलक स्त्रोत के नाम से प्रसिद्ध है. इस स्त्रोत में वह बालक क्या कह रहा है-"मैं यह भी नहीं हूं, मैं वह भी नहीं हूं...' हस्तामलक अपनी सारी बाहरी पहचानों को प्याज की परतों की तरह छीलकर फैंक रहा है. यह अद्वैत दर्शन का बोध वाक्य है.

पिछले एक हजार साल में भारतीय उपमहाद्वीप में मची रही भयावह उथलपुथल में बहुत कुछ बदला. नए इलाके बने. नई भाषाएं आईं. लोगों की पहचानें बदल गईं. लेकिन चमत्कार ही है कि रूमी और बुल्ले शाह से लेकर कबीर तक अद्वैत का वही दर्शन चेतना में लहराता रहा. बुल्ले शाह की वाणी रब्बी शेरगिल की आवाज में सुनिए-बुल्ला की जाणां मैं कौण...

अद्वैत की वाणी बुल्ले के कंठ से झर रही है. अब शंकर की विराटता देखिए. वे बार-बार कहते हैं कि यह वो ज्ञान है, जो पहले के ऋषियों ने दिया. उन्हें उनके भी पहले के ऋषियों ने दिया. ये मेरा नहीं है. मैं सिर्फ स्मरण करा रहा हूं. ऐसा करके शंकर हजारों साल पुरानी वैचारिक और दार्शनिक परंपरा से भारत को तो जोेड़ देते हैं और खुद परदे के पीछे बने रहते हैं. उनकी कोई रुचि नहीं है कि उन्हें स्मरण में भी रखा जाए. उनकी कोई पूजा हो.

वे किसी पद पर प्रतिष्ठित हों. हम आज भी उस महापुरुष के बारे में कितना जानते हैं? आचार्य शंकर भारत के गहरे अंधेरे आकाश में चमकी बिजली की एक जबर्दस्त कौंध हैं, जिसने भारत को अपनी ही विस्मृत छवि के विराट दर्शन कराए. वह भारत को मिला देवताओं का आशीर्वाद हैं. वह ऋषियों का प्रसाद थे, जो भारत की हथेली पर रखा गया.

स्वामी अवधेशानंद गिरि कहते हैं कि भारत भर में घूमने वाले हम लाखों संन्यासी उनके ऋणी हैं. हम कभी इस ऋण से मुक्त नहीं हो सकते. और यह बात सिर्फ संन्यासी समुदाय पर लागू नहीं होती. यह हर भारतीय पर लागू है. उत्तराखंड की भूमि 16 वर्ष के आचार्य शंकर के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई. यहीं वेद व्यास ने उन्हें एक महान् दायित्व दिया और इसे पूरा करने के लिए अल्पायु शंकर को उम्र के 16 वर्ष और दिए.

शंकर के जीवन का यह अगला अध्याय धर्म और संस्कृति के लिए अमृत तुल्य सिद्ध होने वाला था. भारत के कोने-कोने की अथक यात्राओं का एक आश्चर्यजनक अध्याय. अब वे ज्ञान की एक महालपट के रूप में अवतरित हुए. वे जहां गए, वेद विपरीत साधना पद्धतियों को अपने अकाट्य तर्क से हटाया. मंदिर प्रतिष्ठानों में वैदिक साधन स्थापित किए.

शंकर के सृजन संसार में पवित्र नदियों की स्तुतियां सदियों से आज तक गाई जा रही हैं. "मनीषा पंचकम्' में उन्होंने समस्त जातिभेद गिरा दिए और कहा कि ज्ञान के अनुभव को उपलब्ध चांडाल हो या द्विज, वह मेरा गुरू है. "दक्षिणमूर्ति स्त्रोत' को यूट्यूब पर ही सुनिए तो लगता है अनंत की पुकार ह्दय को स्पर्श कर रही है. मंडन मिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ और कुमारिल भट्‌ट के साथ संवाद इतिहास प्रसिद्ध घटनाक्रम हैं.

दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के नीति निर्धारकों, शिक्षाविदों  और संस्थानों ने भारत के मानबिंदुओं को अतीत के अंधेरे तहखानों में ही रखकर छोड़ा और "बिना खड्ग, बिना ढाल' से प्राप्त मुफ्त की स्वतंत्रता में आनंदित देश सेक्युलर तमाशे में गुम हो गया. केरल से लेकर केदार तक जिनके चरण चिन्ह चप्पे-चप्पे में मौजूद हैं, उन शांत मूर्ति शंकर के योगदान को कितना स्मरण में रखा गया? न के बराबर.

भारतीय भूभाग की विस्तृत भौगोलिक सीमाओं के चारों कोनों पर चार मठ-प्रतिष्ठानों की स्थापना के जरिए शंकराचार्य ने देश को सांस्कृतिक सूत्रों में बांध दिया था. आज की कॉर्पोरेट शैली की तरह हरेक मठ काे एक बोधवाक्य और प्रथक संकल्प देकर गए. वे प्रतिष्ठान संसार की सबसे पुरानी अटूट और जीवंत परंपराओं में से एक हैं. कोई हो-हल्ला किए बिना 13 सौ साल पहले आचार्य शंकर अज्ञान, आतंक और अपराध से भरी इस अभागी दुनिया को क्या अमृत देकर गए, इसका सही आकलन होना अब शुरू हुआ है. केदारनाथ आदि शंकराचार्य के जीवन का पवित्र प्रस्थान बिंदु है...

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लेखक

विजय मनोहर तिवारी विजय मनोहर तिवारी @vijay.m.tiwari

लेखक मध्यप्रदेश के स्टेट इन्फॉर्मेशन कमिश्नर हैं. और 'भारत की खोज में मेरे पांच साल' सहित छह किताबें लिख चुक हैं.

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